वामपंथियों का महिला विरोधी चरित्र

यह सभी उदाहरण बताते हैं कि भारत में वामपंथी राजनीतिक दलों के नेताओं के द्वारा चाहे जितनी भी महिला उत्थान और समानता की बात की जाती हो, सच्चाई यही है कि इनके अपने ही संगठन में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है

The Narrative World    16-Oct-2022
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कम्युनिस्ट, एक ऐसी प्रजाति जो पूरे विश्व में नारीवाद, स्त्री विमर्श, महिला स्वतंत्रता, महिलाओं के अधिकार एवं नारी सशक्तिकरण पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, जिनके द्वारा महिला उद्धार को लेकर तमाम दावे किए जाते हैं और वैश्विक रूप से स्वयं की ऐसी छवि बनाई जाती है कि संपूर्ण विश्व में नारियों को जितनी स्वतंत्रता मिल रही है, उसका मुख्य कारण वामपंथ ही है।
 
वामपंथियों का यह विचार भारत में भी देखा जा सकता है। भारत के कम्युनिस्ट समूहों का भी यही सोचना है कि भारत में महिलाओं के लिए असली क्रांति उन्होंने ही लाई है, लेकिन सच्चाई तो यही है कि ये वामपंथी समूह ही है, जिनकी वजह से भारत समेत पूरे विश्व में स्त्री विमर्श को लेकर नकारात्मकता की छवि बनी है और महिलाओं को लेकर जिन वास्तविक विषयों पर बात करनी चाहिए उस पर कोई चर्चा नहीं होती है।
 
खैर, महिलाओं के किन विषयों पर चर्चा होनी चाहिए यह एक अलग विषय है, लेकिन इससे पहले यह जानना आवश्यक है कि महिलाओं की स्थिति इन वामपंथी समूहों के भीतर ही वर्तमान में कैसी है और पूर्व में कैसी रही है।
 
भारत के छोटे स्थानों में सीमित प्रभाव के क्षेत्र से लेकर विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले चीन तक, वामपंथियों के द्वारा विभिन्न स्तरों में महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है एवं महिलाओं को सत्ता एवं संगठन में पुरुषों की तुलना में उनकी स्थिति कमजोर ही रखी जाती है।
 
वैश्विक स्तर वामपंथियों के बीच महिलाओं की स्थिति
 
वर्तमान में दुनियाभर में 5 पूर्ण कम्युनिस्ट शासित राष्ट्र हैं, जो चीन, क्यूबा, लाओस, वियतनाम और उत्तर कोरिया है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचार पर हुई थी और इस विचार के माध्यम से चीन के तत्कालीन कम्युनिस्ट नेताओं ने महिला उद्धार को लेकर तमाम बातें की थी।
 
वर्ष 1949 में कम्युनिस्ट सत्ता की स्थापना के बाद साम्यवादी तानाशाह ने सैद्धांतिक एवं दस्तावेजी तौर पर तो महिला समानता, स्वतंत्रता एवं सशक्तिकरण को अपना एजेंडा बनाया था, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि 1949 से लेकर आज तक भी चीन में महिला समानता, आमदनी, रोजगार और शिक्षा की स्थिति में ना ही कोई व्यापक बढ़ोतरी है और ना ही इसमें कोई निरंतरता देखी गई है।
 
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में भी देखा गया है कि वर्तमान समय में भी एक अदृश्य 'ग्लास सीलिंग' मौजूद है, जो महिलाओं को पार्टी में प्रमुख पदों पर पहुंचने से रोक देती है।
 
चीन के अलावा कम्युनिस्ट शासित लाओस में महिलाओं की स्थिति सम्पूर्ण विश्व की तुलना में अत्यधिक बुरी एवं संघर्षशील है। लाओस में कम्युनिस्ट नीतियों के कारण आज स्थिति ऐसी है कि संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि लाओस के ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में महिलाओं के साथ मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।
 
लाओस में महिलाओं की पहुंच में सामान्य भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा और राजनीतिक भागीदारी की भी कमी है। इसके अलावा क्यूबा एवं वियतनाम की आर्थिक स्थितियां वैश्विक मीडिया में हमेशा से स्थान बनाती रही है, और इन देशों में भी महिलाओं की स्थिति अत्यंत दयनीय है।
 
उत्तर कोरिया में तानाशाह किम जोंग उन के राज में महिलाओं को समाज के किसी भी स्तर में पुरुषों से पीछे रखा गया है, वहीं महिलाओं के साथ शोषण की खबरें भी आम हैं।
 
भारत के परिपेक्ष्य में वामपंथ के भीतर नारियों की स्थिति
 
भारत में वामपंथी विभिन्न स्वरूपों में मौजूद हैं, राजनीतिक दलों से लेकर नक्सल-माओवादी आतंकी के रूप में। इसके अलावा भारत में साहित्य, पत्रकारिता और समाज के विभिन्न हिस्सों में भी यह समूह शामिल है।
 
इस समूह को भी यही लगता है कि भारत में महिला स्वतंत्रता के इन्होंने ही लड़ाई लड़ी है, क्रांति लाई है और आज महिलाएं जिस तरह से स्वतंत्र हैं उसके पीछे इनकी हो सोच और तथाकथित क्रांतिकारी गतिविधियां हैं। लेकिन यहां भी स्थिति पूरी तरह से उलट है।
 
भारत में कम्युनिस्ट नाम और विचार से विभिन्न राजनीतिक दल हैं, जिनमें से सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई (माले) प्रमुख रूप से शामिल हैं। अब बाहरी लोगों को छोड़कर इससे जुड़ी महिलाओं की ही बात करें तो इन दलों में इक्का-दुक्का महिलाओं को छोड़कर किसी भी महिला नेता प्रमुख पदों में नहीं रही हैं।
 
सिर्फ इतना ही नहीं, इन दलों के विचार से जरा सा भी विपरीत जाने वाली महिला नेताओं को इनके ही समूह के द्वारा ट्रोल किया गया है। हाल ही में सीपीआई (माले) की पूर्व नेता कविता कृष्णन ने कहा था कि उनकी पार्टी चीन और रूस में तानाशाही के के विरुद्ध कुछ क्यों नहीं कहती है?
 
इसके बाद कुछ ऐसा बवाल मचा कि कविता कृष्णन को ना सिर्फ पार्टी के सभी पदों को बल्कि पार्टी की सदस्यता को भी छोड़ना पड़ा। इस कृत्य के बाद उनकी ही जमात के लोगों ने जमकर उनकी ट्रोलिंग की और कविता कृष्णन की बातों को पूरी तरह से दबाने का प्रयास किया।
 
इसके अलावा यदि हम सीपीएम की केके शैलजा से जुड़ी घटना को देखें तो भी यह समझ आता है कि कैसे एक महिला को आगे बढ़ता देख कम्युनिस्ट विचार में खलबली मच जाती है और फिर उसे नीचे गिराने का प्रयास किया जाता है।
 
कोरोना महामारी के दौरान कथित रूप से केरल में अच्छा कार्य करने वाली (हालांकि यह भी संदिग्ध है) तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री के.के शैलजा को जब रेमन मैग्सेसे पुरस्कार देने की घोषणा की गई तब सीपीएम ने यह कहते हुए पुरस्कार लेने से शैलजा को रोक दिया कि यह उपलब्धि केवल उनकी नहीं है, बल्कि पूरे राज्य के शासन-प्रशासन की है।
 
इसके अलावा सीपीएम ने यह भी कहा कि मैग्सेसे वामपंथ का विरोधी और पूंजीवाद का समर्थक था, इसीलिए यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिए। लेकिन इसी सीपीएम ने केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन को तमाम पूंजीवादी विचार के देशों और संस्थाओं के बीच शामिल होने पर चुप्पी साध ली थी।
 
हाल ही में कुछ माह पहले सीपीएम की ही महिला नेता और केरल सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री आर बिंदु ने पार्टी नेतृत्व पर महिला विरोधी होने का आरोप लगाया था।
 
यह सभी उदाहरण बताते हैं कि भारत में वामपंथी राजनीतिक दलों के नेताओं के द्वारा चाहे जितनी भी महिला उत्थान और समानता की बात की जाती हो, सच्चाई यही है कि इनके अपने ही संगठन में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाता है।
 
वर्ष 2018 में डीएफवाईए कई एक नेता ने केरल के कम्युनिस्ट विधायक पीके ससी पर यौन शोषण का गंभीर आरोप लगाया था जिसके बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी समेत कम्युनिस्ट विचारकों ने इसे अनदेखा कर दिया।
 
इस दौरान कम्युनिस्ट नेताओं ने ही उस पीड़ित महिला नेता से शिकायत वापस लेने का दबाव बनाया। साथ ही इससे एक कदम आगे बढ़कर केरल राज्य महिला आयोग की प्रमुख एमसी जोसेफन ने पीके ससी के पक्ष में यह तक कह कि 'गलती तो सभी से हो जाती है।'
 
इन राजनीतिक दलों के अलावा यदि हम बात करें वामपंथियों के अतिवादी दल अर्थात माओवादी-नक्सली संगठन की तो इसमें भी होने वाले महिला शोषण की बातें किसी से छिपी नहीं है। महिलाओं की स्थिति इस संगठन में भी दयनीय है, जिसमें खासकर जनजाति समाज से महिलाएं शामिल हैं।
 
इसके अलावा इन तथाकथित वामपंथी नारीवादियों ने जिस तरह से नारीवाद के मुद्दे को पेश किया है, इसने केवल और केवल महिलाओं का ही नुकसान किया। आज जिस तरह से अश्लीलता, नशाखोरी एवं असभ्यता को नारी स्वतंत्रता का रूप बताया जा रहा है, इसने नारीवाद के विमर्श को ही बदनाम किया है।
 
इसके अलावा इन बेतुकी बातों के कारण उन महिलाओं की बातें, समस्याएं एवं आवश्यकताएं मुख्यधारा में नहीं पहुंच सकी हैं जिन्हें असल में शराब और अश्लीलता की नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन जीने की स्वतंत्रता चाहिए। सच्चाई यही है कि वामपंथी संगठन, वामपंथी विचार, वामपंथी नेता और वामपंथी विचारक, सभी के सभी नारी विमर्श तो करना चाहते हैं लेकिन नारी उत्थान नहीं चाहते।