श्री राम भक्त विभीषण की धर्मपरायणता

The Narrative World    18-Dec-2022   
Total Views |
Vibhishan 
 
समुद्र के तट से थोड़ी दूर पर उगी वनस्पतियों की पत्तियां और समुद्र की लहरें सतत गूंज के साथ दोलायमान थी। ध्यान लगाकर सुनने पर उस गूंज का स्रोत स्पष्ट हुआ। कोई श्वास ले रहा था, पत्तियां और लहरें उस श्वास के साथ खिंचीं चली जा रही थी, और श्वास वायु के छोड़ते समय निकल रहे शब्द 'राम' के साथ पत्तियां और लहरें वापस लौट रही थी। क्या किसी के श्वास में इतनी आकर्षण शक्ति हो सकती है, या राम के नाम में, अथवा प्रकृति भी रामनाम में घुल कर मद में चूर थी?
 
कंधों पर वीणा को धारण किया हुआ एक युवा सन्यासी उस गूंज के उद्गम की खोज में बढ़ा चला जा रहा था। अंततः उसे विशाल चट्टान पर बैठा वयोवृद्ध परन्तु अत्यंत शक्तिशाली प्रतीत होने वाला, कोयले से भी अधिक काला सुदर्शन पुरुष दिखा।
 
उसके आसपास मृग और सिंह, सियार और खरगोश, कबूतर और बाज अभय होकर बैठे हुए थे। उसके मुख से निकलते रामनाम के मद से स्वयं को आप्लावित करते हुए उस युवा सन्यासी से वीणा का तार छेड़ा और 'नारायण-नारायण' का स्वर निकालकर वृद्ध पुरुष का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
 
वृद्ध ने अपने नेत्र खोले, सम्मुख खड़े युवा को पहचानते ही हड़बड़ी में खड़ा हो गया और प्रणाम करते हुए बोला, "अहोभाग्य, अहोभाग्य। मुझ राक्षस पर प्रभु राम की अत्यंत कृपा हुई जो स्वयं ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद ने मुझे दर्शन दिए। पधारें महात्मन।" एक समतल चट्टान पर कुछ पत्तियां बिछाकर वह वृद्ध पुनः बोला, "कृपया यहाँ विराजें और मुझे अपने श्रीचरणों में बैठने का सौभाग्य प्रदान करें।"
 
नारद ने आसन ग्रहण किया और अपने चरणों में बैठने को उद्दत वृद्ध को रोकते हुए उसे अपने निकट ही बिठाते हुए बोले, "राजन! आप नारायण के रूप श्रीराम के भक्त हैं और मैं नारायण का। इस नाते हम गुरुभाई हुए। मैं भले ही आयु में आपसे बड़ा होऊं, पर गुरुभाइयों में आयु की महत्ता शून्य होती है। मेरे निकट बैठें और मुझे अपनी रामभक्ति की ऊर्जा से आप्लावित होने दें।"
 
"जैसा आपको उचित लगे देवर्षि। परन्तु मुझे राजन न कहें। मैंने वर्षों पहले ही राजपाट छोड़ दिया।"
 
"आपने राजपाट भले छोड़ दिया हो, पर मेरे लिए तो आप ही लंकेश हैं। मेरे मन में एक प्रश्न था विभीषण। यदि आपको उचित लगे, तभी उत्तर दीजिएगा।"
 
"तीनों लोकों में भ्रमण करने वाले, वैकुंठ, कैलाश और ब्रह्मलोक में अपनी इच्छा से आ-जा सकने वाले, भूत, वर्तमान और भविष्य को देख सकने वाले ब्रह्मर्षि के मन में प्रश्न? वह भी मुझसे? अवश्य पूछें देवर्षि!"
 
"आपको अमरता का वरदान है। आप भी मेरी भाँति सभी लोकों में विचरण कर सकते हैं। आप चाहें तो देवलोक में इंद्र के आसन के निकट बैठकर समस्त भोगों को भोग सकते हैं। परन्तु आप यहाँ इस भूखंड पर क्यों निवास करते हैं। समस्त संसार, समस्त ब्रह्मांड को छोड़ इस भूमि में ऐसा क्या है जो आप यहां से जाना नहीं चाहते?"
 
"यह मेरी मातृभूमि है देवर्षि। पर उससे भी बड़ी बात है कि इस भूमि पर श्रीराम के चरण पड़े थे। जब मैं इस भूमि के भिन्न-भिन्न स्थानों पर विचरण करता हूँ तो मुझे स्पष्ट दिखता है कि श्रीराम ने यहाँ स्थान ग्रहण किया था, यहाँ स्नान किया था, यहाँ उन्होंने अपने मंत्रियों के साथ मंत्रणा की थी, यहीं पर युद्धनीति निश्चित की थी, यहाँ पर उन्होंने शस्त्रधारण किये थे, यहीं पर उनकी पत्नी से उनका मिलन हुआ था। यहाँ कण-कण में राम हैं, और राम के अतिरिक्त इस संसार में और क्या है जिसे देखने के लिए मैं इस भूमि को छोड़ कहीं और जाने का विचार करूँ!"
 
"अरे! और मैं जो सब जगह घूमता रहता हूँ, उसे क्या कहेंगे?"
 
"कृपया मुझसे अपनी तुलना न करें देवर्षि। आपका परास विस्तृत है। आप पूरे जगत में नारायण को देखते हैं, मैं मात्र इस भूखंड में राम को पाता हूँ।"
 
"यदि ऐसा है तो आपने इस भूमि से द्रोह क्यों किया? आज सकल विश्व में कहा जाता है कि 'घर का भेदी लंका ढाए'। अन्यथा न लीजिएगा, यह मैं नहीं कहता, संसार कहता है।"
 
"कोई क्या कहता है, इससे मुझे आपत्ति नहीं है। संसार स्वयं आप जैसे महान भक्त को भी कितने ही अनुचित और मिथ्या अलंकारों से आभूषित करता है। अस्तु, यह 'घर का भेदी, लंका ढाए' कहना सत्य नहीं है। और यह मेरा नहीं, प्रभु श्रीराम का अपमान है।"
 
"वह कैसे विभीषण?"
 
"यह मानने वाली बात है कि विभीषण न होता तो रावण की लंका बची रहती? विभीषण जब कहीं नहीं था, तभी राम के एक भक्त ने पूरी लंका को जलाकर राख कर दिया था। क्या वह पुनः ऐसा नहीं कर सकता था? जब विभीषण को राम की वानर सेना में कोई नहीं जानता था, तब राम का एक अभियंता समुद्र पर पुल बना चुका था। जो निर्माण कर सकता है, क्या वह विध्वंस नहीं कर सकता? क्या पत्थरों को पानी में तैराने वाला नील लंका के भवनों में लगे पत्थरों को हवा में उड़ा नहीं सकता था? राम के एक दूत के पैरों को भूमि से उठा सकने में असमर्थ समस्त राक्षसों को क्या अपने पैरों तले रौंदने के लिए उस बालक अंगद को विभीषण की सहायता की आवश्यकता थी?
 
जिस रावण को बाली ने खेल-खेल में हरा दिया था, उसी रावणविजयी बाली को मात्र एक बाण से यमलोक पहुंचा देने वाले श्रीराम को मुझ तुच्छ राक्षस की आवश्यकता पड़ती? दंडकारण्य में रावण के समान शक्तिशाली खर, दूषण को सहस्रों राक्षस सैनिकों के साथ अकेले ही एक ही स्थान पर खड़े-खड़े काटकर गिरा देने वाले राम को लंका ढहाने के लिए मेरी आवश्यकता नहीं थी।
 
हाथी की पीठ पर बैठी चिड़िया बोलती रहे, और हाथी पेड़ उखाड़ दे, तो क्या पेड़ को गिराने का श्रेय उस चिड़िया को दिया जाएगा? यह तो राम की दयालुता है कि उन्होंने मुझे अपना साथ देने का अवसर प्रदान किया था।"
"आपकी सारी बातें सत्य हैं। परंतु यह भी सत्य है कि कोई भी आपके नाम पर अपने बच्चों का नाम नहीं रखता।"
 
"आप इसे अपमानजनक मानिए, मैं तो इसे इस रूप में लूंगा कि विभीषण आजतक मात्र एक ही हुआ है। धर्म का पक्ष लेना ही अपने आप में पर्याप्त पुरस्कार है। कोई धर्म को भूल पारस्परिक सम्बन्धों को, रक्त सम्बन्धों को महत्व देता हो, तो वह उसकी अपनी सोच। भक्त प्रह्लाद ने भी अपने पिता हिरण्यकश्यप से द्रोह किया और उसकी मृत्यु का कारण बनें।क्या इसे पितृदोह कहेंगे?"
 
नारद के चेहरे पर मुस्कान आ गई। कुछ देर विभीषण को स्नेह से देखने के पश्चात नारद ने अपनी वीणा संभाली और उठने का उपक्रम करते हुए बोले, "अच्छा, तो मुझे अब अनुमति दें लंकेश।"
 
विभीषण हाथ जोड़कर बोले, "क्या मैंने कुछ अनुचित कह दिया देवर्षि?"
 
"नहीं, नहीं!" जुड़े हुए हाथों पर अपनी हथेली रखकर नारद बोले, "आपने सर्वथा सत्य बोला भक्तशिरोमणि। धर्म ही प्रमुख है। रक्तसम्बन्ध यदि धर्माचरण में बाधक हों तो ऐसे सम्बन्धों का त्याग ही उचित है। यह संसार आपके प्रति अन्यायी है जो यह नहीं देखता कि स्व-प्रतिष्ठा का बलिदान किसी भी अन्य प्रकार के बलिदान से अधिक श्रेष्ठ है। त्रेता में आपने अपने स्व-कुल का त्याग किया, द्वापर में स्वयं नारायण ने अपने ही हाथों अपने मातुल का वध किया, अपने वंश का त्याग किया, और अपने उपदेशों से वीरों के हाथों उन वीरों के भाइयों, पिताओं, पुत्रों का वध करवाया, जो अधर्म के पक्ष में थे।
 
धर्म और अधर्म के युद्ध में रक्तसम्बन्धों का कोई महत्व नहीं। लंकेश विभीषण, आप धन्य हैं जो आपको धर्म चुनने के लिए प्रेरित करने हेतु स्वयं नारायण को गीता का पाठ नहीं पढ़ाना पड़ा। आप धन्य हैं क्योंकि प्रभु श्रीराम ने सम्पूर्ण रामायण में अपने बालसखाओं के अतिरिक्त मात्र आपको मित्र सम्बोधित किया है। कोई अपने बच्चों का नाम आपके नाम पर रखे या न रखे, नारायण के हृदय में आपका नाम अंकित है। नारायण, नारायण।"