साहिबजादों का शहीदी सप्ताह - चकमौर का भीषण युद्ध और धर्म रक्षा के लिए गुरु पुत्रों का बलिदान

घने अंधेरा और भारी बारिश के बीच उफनती सरसा नदी के तट पर चल रहे इस भीषण संघर्ष में सिख योद्धाओं ने गुरु परिवार को बचाने के लिए मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और गुरु परिवार को नदी पार करने का अवसर दिया

The Narrative World    23-Dec-2022   
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Guru Gobind Singh Ji and sahibjadee
 
जब-जब भारतभूमि पर बाहरी आक्रांताओं ने आक्रमण किया है, जब-जब सनातनी संस्कृति पर हमला करने का प्रयास किया गया है, तब-तब सिख गुरुओं ने सनातन समाज का नेतृत्व कर विधर्मियों का सामना किया और परिस्थितियों के विषम होने पर अपने प्राणों की आहुति देने से भी गुरेज नहीं किया। यही कारण है कि सिर्फ सिख समाज ही नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति के प्रत्येक शाखाओं के बीच सिख गुरुओं को लेकर अनन्य आस्था है।
 
सिख गुरुओं ने मातृभूमि की सेवा और धर्म की रक्षा के लिए जिस प्रकार से सर्वस्व न्यौछावर किया, ठीक उसी प्रकार उनके परिजनों और अनुयायियों ने भी बलिदान दिया।
 
लेकिन सिख समाज सहित संपूर्ण भारतीय इतिहास में 20 दिसंबर से लेकर 29 दिसंबर की तिथि एक कभी ना भूले जानी वाली तारीख है, जिस दौरान दशम गुरु के साहिबजादों समेत उनके परिजनों एवं सिखों के एक बड़े जत्थे ने धर्म रक्षा के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था।
 
यह पूरा सप्ताह (20 दिसंबर से 27 दिसंबर) साहिबजादों के शहीदी सप्ताह के रूप में मनाया जाता है, जिसमें पूरा देश कृतज्ञता के भाव के साथ गुरु पुत्रों, गुरु माता, उनके अनुयायियों एवं सिख योद्धाओं के बलिदान को याद करता है।
 
यह वही सप्ताह है जिसमें चकमौर का वह भीषण युद्ध हुआ था जिसे भारतभूमि के महानतम युद्धों में शामिल किया जाता है। इस युद्ध में चंद सिख योद्धाओं ने लाखों की इस्लामिक सेना को नाको चने चबवा दिए थे।
 
दरअसल इसका आरंभ 20 दिसंबर 1704-1705 (ज्ञानी ज्ञान सिंह पंथ प्रकाश के अनुसार यह वर्ष 1704 की और बंसावलीनामा दासन पातशाहियां केसर सिंह छिब्बर एवं प्राचीन पंथ प्रकाश रतन सिंह भंगू के अनुसार यह वर्ष 1705 की घटना है) की उस घटना के बाद हुआ था जब इस्लामिक आक्रमणकारियों की विशाल सेना ने गुरु निवास आनंदपुर साहिब किले में हमला कर दिया था।
 
इस दौरान मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह जी के समक्ष यह शर्त रखी थी कि यदि वें अपना किला छोड़कर चले जाएं तो उनके परिवार समेत किसी भी सिख पर आक्रामक नहीं किया जाएगा। मुगलों के द्वारा यह भी कहा गया था कि औरंगजेब ने क़ुरान की कसम खाकर कहा है कि वह गुरु और उनके परिजनों को आनंदपुर साहिब से निकलने के लिए सुरक्षित मार्ग भी प्रदान करेगा।
 
हालांकि इस्लामिक आक्रमणकारियों की यह बात भी उनके तमाम बातों की तरह झूठी निकली और जैसे ही 20 दिसंबर की देर रात्रि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने परिवार और 400 सिखों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़ा, वैसे ही इस्लामिक आक्रमणकारियों ने
उनके विरुद्ध आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी।
 
20-21 दिसंबर की मध्यरात्रि में जैसे ही गुरु के नेतृत्व में सिखों का जत्था किले से 25 किलोमीटर दूर सरसा नदी के समीप पहुंचा, वहाँ पहले से मौजूद मुगल सेना ने सिखों पर हमला कर दिया। इस्लामिक जिहादी आक्रमणकारियों द्वारा किए गए इस औचक हमले के कारण कई सिख वीरगति को प्राप्त हुए।
 
घने अंधेरा और भारी बारिश के बीच उफनती सरसा नदी के तट पर चल रहे इस भीषण संघर्ष में सिख योद्धाओं ने गुरु परिवार को बचाने के लिए मुगल सेना का जमकर मुकाबला किया और गुरु परिवार को नदी पार करने का अवसर दिया।
 
हालांकि इस दौरान गुरु गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी जी और गुरु के दो छोटे साहिबजादे अलग दिशा में चले गए, वहीं दो बड़े साहिबजादे अपने पिता के साथ दूसरे मार्ग में चल पड़े।
 
400 सिखों के साथ निकलला यह जत्था, इस हमले के बाद कमजोर हो गया और गुरु के साथ उनके दो पुत्रों के अलावा केवल 45 सिख योद्धा बचे। 21 दिसंबर को इन योद्धाओं ने चमकौर में अपना डेरा डाला और फिर सायं काल तक क्षेत्र की छोटी पहाड़ी में स्थित कच्ची गढ़ी पर अपना नियंत्रण स्थापित किया।
 
इस दौरान लाखों जिहादियों की विशाल मुगल सेना चकमौर पहुंच रही थी, जिनका एकमात्र उद्देश्य गुरु समेत उनके सभी योद्धाओ को खत्म करना था। 'सत श्री अकाल' के जयकारे के साथ सिख योद्धाओं ने इस्लामिक आक्रमणकारियों के विरुद्ध युद्ध लड़ा, लेकिन अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए उन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी को युद्ध से दूर रखा, ताकि विषम परिस्थितियों में भी सिख समाज को गुरु का नेतृत्व मिलता रहे।
 
इस चकमौर के भीषण युद्ध में 40 सिख योद्धाओं ने लाखों की मुगल फौज का जमकर मुकाबला किया। इस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों बड़े साहिबजादों ने एक-एक कर शामिल होने की अनुमति मांगी और मुगल सेना का वीरता से सामना करते हुए मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने प्राणों की आहुति दे दी। इस युद्ध में मुगल सेना को भारी क्षति का सामना करना पड़ा और गुरु गोबिंद सिंह जी भी उनकी पकड़ से बाहर रहे।
 
इस युद्ध के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी की भेंट अपनी एक अनुयायी बीबी हरशरण कौर जी से हुई, जिन्हें चमकौर के युद्ध की जानकारी मिली। इसके बाद बीबी हरशरण कौर ने चमकौर के बलिदानियों को उचित सम्मान देते हुए उनका अंतिम संस्कार करने का प्रयास किया, लेकिन इस दौरान भी इस्लामिक सेना ने बीबी हरशरण कौर को रोक कर उन्हें ही बंदी बना लिया और फिर उन्हें जीवित ही आग के हवाले कर दिया।
 
इस्लामिक आक्रमणकारी चाहते थे कि इन सिख योद्धाओं शव का अंतिम संस्कार ना हो और उन्हें चील-कौवें-गिद्ध खाते रहें। वहीं दूसरी ओर वजीर खान गुरु गोबिंद सिंह को ना पकड़ पाने के कारण तिलमिला उठा और उसने गुरु माता गुजरी जी और उनके दोनों छोटे साहिबजादों को प्रताड़ित करना आरंभ किया।
 
वजीर खान ने साहिबजादों पर धर्म परिवर्तन कर इस्लाम अपनाने का दबाव बनाने का प्रयास किया जिसमें वह पूरी तरह असफल हुआ। साहिबजादों की वीरता, धर्म भक्ति और शौर्य देखकर वजीर खान ने उन्हें मृत्यु की धमकी भी दी, लेकि वह भूल गया था कि वो दोनों साहिबजादे गुरु गोबिंद सिंह जी की संतानें हैं और नानक परंपरा का पालन करते हुए सनातन संस्कृति की जड़ों से जुड़े हुए हैं।
 
जब इस्लामिक आक्रमणकारी वजीर खान उन दो छोटे बालकों से इस्लाम कुबूल करवाने में असमर्थ हुआ तो उसने दोनों गुरु पुत्रों को जीवित अवस्था में ही दीवार पर चुनवा देने का आदेश दिया। दोनों साहिबजादों ने 'सत श्री अकाल' के जयकारे के साथ मृत्यु को स्वीकार किया, लेकिन इस्लाम नहीं अपनाया।
 
दोनों साहिबजादों की वीरगति की सूचना सुनकर माता गुजरी ने भी अपने प्राण त्याग दिए और इस प्रकार एक सप्ताह के भीतर ही दशम गुरु के चारों साहिबजादों समेत उनकी माता, अन्य 400 सिख योद्धाओं और बीबी हरशरण कौर ने धर्म रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।