माओवाद मुर्दाबाद, नक्सलवाद मुर्दाबाद, माओवाद प्रभावित सुकमा में युवाओं की हुंकार बदलते दौर का है संदेश

उन्हें समझना चाहिए कि गोलापल्ली में माओवादियों के विरुद्ध युवाओं का आक्रोश कोई अपवाद नहीं अपितु यह दशकों से आतंक के साये में पीड़ित रहे युवा शक्ति की हुंकार है

The Narrative World    30-Dec-2022   
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सुकमा का गोलापल्ली क्षेत्र, माओवाद प्रभावित इस क्षेत्र में बीते दिनों युवाओं का वो शंखनाद सुनाई दिया जिसकी गूंज कथित समानता कि क्रांति के नाम पर निर्दोषों के रक्त से दंडकारण्य की माटी को लाल करने वाले उस प्रत्येक हथियारबंद अपराधी के कानों को भेद रही होगी जिसने इस उन्मादी, आदर्श रहित कथित क्रांति को लेकर अपने ही लोगों का खून बहाया है।
 
दरअसल छत्तीसगढ़ के धुर माओवाद प्रभावित बस्तर अंचल का सुकमा जनपद दशकों से कम्युनिस्ट उग्रवाद अथवा माओवाद (नक्सलवाद) से पीड़ित रहा है, जहां चीनी तानाशाह माओ जेदोंग की विचारधारा को समर्पित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) अर्थात सीपीआई (एम) के गुरिल्ला लड़ाकों ने कथित क्रांति के नाम पर दशकों रक्तपात एवं आतंक फैलाया है।
 
इस क्षेत्र में पीएलजीए (सीपीआईएम) की सैन्य इकाई का आतंक ऐसा की यहां दशकों से ग्रामीण बुनियादी सुविधाओं जैसे शिक्षा, सड़क, एवं स्वास्थ्य से वंचित रहे है, 1980 के दशक से लेकर अब तक बीते 4 दशकों से कई क्षेत्रों में प्रशासन की उपस्थिति केवल कागजो पर ही सीमित रही और प्रभावी रूप से माओवादियों ने ना केवल अपने लिबेरटेड ज़ोन्स (अबूझमाड़ जैसे क्षेत्र) में अपनी समानांतर प्रशासनिक व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया अपितु 8-10 वर्ष पूर्व तक इसे प्रभावी रूप से संचालित भी करते रहे।
 
यह बताने की आवश्यकता नहीं कि देश की संप्रभु भूमि पर अपनी पृथक समानांतर सरकार चलाने की व्यवस्था, हजारों निर्दोष नागरिकों एवं सुरक्षाबलों की हत्याएं, सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमलों के पीछे केवल जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों से कथित क्रांति के नाम पर एकत्रित किये गए लड़ाकों की शक्ति नहीं अपितु राष्ट्रद्रोहियों का एक पूरे इकोसिस्टम का सामर्थ्य रहा है जिन्होंने समय समय पर यह सुनिश्चित किया है कि भारत के जिन राज्यों में भी माओवादी विचार के नाम पर दिग्भ्रमित किये गए लड़ाको के समूह बने वहां प्रत्येक हाथ मे आधुनिक हथियार उपलब्ध कराए जा सकें।
 
हालांकि इस क्रम में देश की संप्रभुता एवं उसकी अखंडता पर सबसे बड़ा कुठाराघात तो उन्होंने इस कथित सशस्त्र विद्रोह के पक्ष में वैचारिक नैरेटिव गढ़ कर किया है, यह कोई छुपी छुपाई बात नहीं कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में दशकों तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देश का ही एक कथित बुद्धिजीवी वर्ग (अर्बन नक्सल्स) मुक्त कंठ से इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को वंचितों का शोषण के विरुद्ध उठाया गया न्यायोचित कदम बताते रहा, विडंबना तो यह है कि पूर्ववर्ती सरकारों ने इस क्रम में उन्हें इतनी गैर आवश्यक स्वतंत्रता दी कि उन्होंने देश के प्रतिष्ठित शिक्षा संस्थानों से लेकर, साहित्य अकादमियों आदि को इस राष्ट्रविरोधी कृत्य के गढ़ के रूप में स्थापित किया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि भारत को विखंडित करने की उनकी वृहद योजना को दिग्भ्रमित युवा शक्ति का वैचारिक समर्थन मिलता रहे।
 
इसमें भी संशय नहीं कि अपने विद्वेषित हितों की अभिपूर्ती के लिए इस सशस्त्र संघर्ष में निर्दयतापूर्वक उसी जनजातीय समुदाय के हितों की बलि चढ़ाई गई है जिसके नाम पर यह पूरा नैरेटिव स्थापित किया गया है, यह केवल संयोग नहीं कि दशकों से अनवरत जारी इस संघर्ष में हिंसा एवं रक्तपात के लिए अग्रिम पंक्ति में जनजातीय समुदाय के उन्ही युवाओं को खड़ा किया गया जिनके समुदाय, जिनकी भूमि को इस कथित क्रांति के विचारकों ने विकास की मुख्यधारा से दूर रखा।
 
इसे ऐसे समझे कि पीएलजीए के 22 वर्षों के इतिहास में 20000 से अधिक लोगों की जान लेने वाले इस हिंसक संघर्ष में सबसे ज्यादा मौतें जनजातीय समुदाय से हुई हैं। इनमें से अधिकांश ऐसे दिग्भ्रमित युवा या निर्दोष नागरिक थे जिन्हें ना तो माओ और ना ही कम्युनिस्ट विचार के विषय में जानकारी थी उन्हें तो बस इतना बताया गया कि वर्दी में उनकी सुरक्षा को खड़ा जवान उनकी भूमि हड़पना चाहता है, इसलिए अपनी भूमि अपनी जमीन की रक्षा के लिए यदि सर्वस्व भी बलिदान करना है तो माओ की क्रांति के गीत गुनगुनाते ऐसा करने में गुरेज नहीं।
 
सौभाग्य से पिछले 7-8 वर्षों में इन क्षेत्रों में हो रहे विकास कार्यों एवं माओवादी हिंसा के विरुद्ध निरंतर चलाये जा रहे अभियानों से जमीन पर परिस्थितियों में तेजी से परिवर्तन हुआ है, यह परिवर्तन ना केवल उन क्षेत्रों में ही हुआ है जो प्रत्यक्ष रूप से माओवाद जनित हिंसक विचार से पीड़ित रहे हैं अपितु अप्रत्यक्ष रूप से इसे पोषित कर रहे वैचारिक तंत्र पर भी नकेल कसी गई है, परिणामस्वरूप कभी दिग्भ्रमित युवाओं के समुहों (सशस्त्र टुकड़ियों) के साथ सुरक्षाबलों पर हमला कर क्रांति से देश का भविष्य परिवर्तित करने का दंभ भरने वाले माओवादियों की बंदूकें अब बौखलाहट में उन निर्दोष जनजातियों पर बरस रही हैं जो अब किसी विदेशी रक्तरंजित विचार के बजाए विकास की मुख्यधारा में सहभागी बनना चाहता है।
 
इस क्रम में पिछले 2-3 महिनों में ही माओवादियों ने तिसियों निर्दोष लोगों की हत्याएं की हैं, इनमें से ज्यादातर ऐसे युवा और किसान हैं जो विकास की मुख्यधारा से जुड़कर अपना बेहतर भविष्य चाहते थे, जो दुर्गम क्षेत्रों में दशकों में पहली बार हो रहे विकास के कार्यों में सहभागिता दिखा रहे थे, माओवादियों के लिए ग्रामीणों का यह आचरण अप्रत्याशित है इसलिए वे इसे अपनी बर्बरता से दबाना चाहते हैं हालांकि इस क्रम में वे ये भूल रहे हैं कि वास्तविक शक्ति बंदूक की नली से नहीं जन सामान्य के सामूहिक भावना में निहित है, वे इसे जितना दबाएंगे ये शक्ति उतनी ही प्रखर होगी।
 
उन्हें समझना चाहिए कि गोलापल्ली में माओवादियों के विरुद्ध युवाओं का आक्रोश कोई अपवाद नहीं अपितु यह दशकों से आतंक के साये में पीड़ित रहे युवा शक्ति की हुंकार है जो भविष्य में और प्रखर होकर गूंजेगी। उन्हें समझना होगा कि इन सुदूर जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों की नवीन पीढ़ी अब नक्सलवाद के महिमामंडन में नहीं इसके संमुल उन्मूलन में विश्वास रखती है।