माओवादियों के लिए 'भारत जोड़ो यात्रा' के अपने मायने हैं

अब ऐसे में माओवादियों की राहुल की मुक्त कंठ से की गई प्रसंशा एवं समानांतर रूप से सॉफ्ट हिंदुत्व की उनकी आलोचना को उनकी अस्तित्व बचाने की वेदना से जोड़ कर देखा जा सकता है

The Narrative World    11-Jan-2023   
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bharat jodo yatra  

इसमें संदेह नहीं कि जैसे जैसे देश में लेफ्ट यानी कम्युनिस्ट विचारधारा की पार्टियों का ग्राफ नीचे गिरते गया उन्होंने कांग्रेस को अपनी राजनीतिक वैशाखी बनाने से गुरेज नहीं किया। हालांकि आश्चर्यजनक रूप से यह सांठगांठ केवल केंद्र में ही दिखाई देता है राज्यों में जहां कहीं भी कम्युनिस्ट विचारधारा के दलों का कोई ठोस अस्तित्व रहा है वहां एक दूसरे के विरोध में खड़े होने से इन्होंने कभी गुरेज नहीं किया।
 
यानी कुल मिलाकर सुविधा की राजनीति और गठबंधन से ना तो कांग्रेस और ना ही कम्युनिस्ट दलों को ही कोई समस्या है, इस क्रम में हिंसा के माध्यम से सत्ता पाने की कवायद में लीन प्रतिबंधित माओवादी संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया यानी सीपीआई (एम) भी कोई अपवाद नहीं और बीते दिनों इस हिंसक संगठन ने अपनी मासिक पत्रिका में इसे खुल कर दर्शाया भी है।
 
माओवादियों ने अपनी मासिक पत्रिका द पीपुल्स मार्च में खुलकर राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा की प्रसंशा करते हुए इसे कथित रूप से नफरत की राजनीति की काट के रूप में चिन्हित किया है। पत्रिका में छपे आलेख में माओवादियों ने यह दर्शाना के प्रयास किया है कि राहुल की भारत जोड़ो यात्रा को प्रत्येक आयु एवं वर्ग के लोगों का समर्थन मिला है और इसे वर्तमान में केंद्र एवं कई राज्यों में सत्तासीन भाजपा एवं संघ की कथित घृणा की राजनीति के विकल्प के रूप में गंभीरता से लिया जा सकता है।
हालांकि इसी दौरान नक्सलियों ने राहुल एवं कांग्रेस की सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि को लेकर उन्हें घेरा भी है, पत्रिका में राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ में सत्तासीन कांग्रेस के नरम हिंदुत्व की छवि को उसके विकल्प के रूप में सबसे बड़ी बाधा बताते हुए माओवादियों ने कांग्रेस नेतृत्व से सहानभूति जताई है।
 
दरअसल दशकों से समाज को धर्म, संप्रदाय, रंग, भाषा अथवा भगौलिक आधार पर बांटने के पीछे अपनी सारी शक्ति झोंकने वाले माओवादियों के लिए राहुल उम्मीद की आखिरी किरण के जैसे हैं जिनके आधार पर वे संगठित होते समाज को तोड़ने का यथासंभव प्रयास कर रहे हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं कि देश के नागरिकों का संस्कृति, राष्ट्रवाद, देशभक्ति, धार्मिक अथवा किसी भी अन्य आधार पर संगठित होना ही उस कथित क्रांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है, जिसका सपना भारत के कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी दशकों से देख रहे हैं।
 
तीस पर इसमें भी दोराय नहीं कि वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता में आये नरेंद्र मोदी सरकार ने माओवाद के मोर्चे पर ना केवल जमीनी स्तर पर सक्रिय माओवादियों की सैन्य इकाई पीएलजीए के विरुद्ध वृहद स्तर पर सुरक्षाबलों की तैनाती को मजबूत किया है अपितु समानांतर रूप से माओवादियों के शहरी कथित बुद्धिजीवी वर्ग (अर्बन नक्सलियों) के विरुद्ध भी मुहिम छेड़ रखी है, अब ऐसे में वर्तमान केंद्र सरकार का सत्ता से हटना तो माओवादियों के लिए तो जैसे अस्तित्व बचाने का संघर्ष है।
 
इसलिए यह कतई अस्वाभाविक नहीं कि इस यात्रा की शुरुवात से लेकर अब तक वैचारिक रूप से माओवाद का समर्थन करने वाले वर्ग के पोस्टर बॉय रहे योगेंद्र यादव एवं पूर्व कॉमरेड कन्हैया कुमार जैसे लोग राहुल गांधी के साथ कदमताल करते आये हैं, रही सही कसर मेधा पाटकर, फिल्मी जगत में कम्युनिस्टों की पोस्टर गर्ल स्वरा भास्कर, कुणाल कामरा, प्रशांत भूषण जैसों ने पूरी की है, इन सब में वैचारिक रूप से एक समानता है कि यह सभी भारत विरोधी पक्ष रखने अथवा ऐसी किसी मुहिम को वैचारिक समर्थन देते आये हैं।
 
इतिहास की दृष्टि से देखें तो भी कांग्रेस में कम्युनिस्ट विचारों के पैराकारों की घेलमेल कोई छुपी छुपाई बात नहीं, नेहरू के कथित आदर्शवाद की नीति से लेकर, इंदिरा गांधी के जवाने का सोवियत आयातित समाजवाद, कम्युनिस्ट झुकाव वाले इतिहासकारों की देख रेख में शिक्षा नीति का विकास आदि, सब कहीं ना कहीं कांग्रेस के भीतर कम्युनिस्ट घुसपैठ की रणनीति का ही बखान करते हैं, हालांकि इस संदर्भ में महत्वपूर्ण यह भी है कि सांस्कृतिक मार्क्सवाद के इस युग में सत्तासीन दलों में कम्युनिस्ट कैडरों की घुसपैठ कम्युनिस्टों की टाइम टेस्टेड रणनीति का भाग रही है यह अपवाद स्वरूप कथित रूप से भाजपा सरीखे दक्षिणपंथी दलों पर ही लागू नहीं होता।
 
अब ऐसे में माओवादियों की राहुल की मुक्त कंठ से की गई प्रसंशा एवं समानांतर रूप से सॉफ्ट हिंदुत्व की उनकी आलोचना को उनकी अस्तित्व बचाने की वेदना से जोड़ कर देखा जा सकता है, जहां तक बात आगामी वर्षों में कांग्रेस को मिलने वाले समर्थन से है तो यह अब छुपी बात नहीं कि कृषि कानूनों एवं अग्निपथ जैसी योजनाओं के विरुद्ध हुए प्रदर्शनों में माओवादीयों की अपनी अहम भूमिका थी जिसका खुलासा उनके आंतरिक वितरण को तैयार किये गए बुकलेट के सामने आने से हुई भी थी, इन प्रदर्शनों में कांग्रेस पार्टी की भूमिका तो जगजाहिर ही रही है।
 
हालांकि बावजूद की देश के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अस्तित्व बचाने का जितना संघर्ष माओवादी कर रहे हैं कमोबेश वही स्थिति कांग्रेस की भी है मूल अंतर केवल इतना ही है कि जहां कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व से लेकर येन केन प्रकारेण केवल केंद्र में अपनी वापसी चाहती है तो वहीं माओवादियों के लिए भय केवल इस बात का है कि यदि यह वापसी सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते हुई तो उनके लिए सामाजिक ताने बाने को तोड़कर क्रांति की कल्पना भी दूर की कौड़ी बनकर ही रह जायेगी।
 
बावजूद इसके कॉमरेडों को इस बात का भी बखूबी भान है कि यदि सत्ता के इस संघर्ष में वह 2024 की लड़ाई हार जाते हैं तो उनका अस्तित्व कहीं बस कागजों तक ना सिमट जाए इसलिए चाहे कुछ भी हो 2024 के संघर्ष में कॉमरेडों का जोर तो राहुल के पीछे जरूर होगा, उनके लिए तो भारत जोड़ो समेत कांग्रेस की सत्ता में वापसी तक कि यात्रा के अपने मायने हैं।
 
जहां तक कांग्रेस की बात है तो यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं कि विरोधाभास से परिपूर्ण इस कदमताल के पीछे केवल उसी सुविधा की राजनीति की परिछाई दिखाई देती है, जहां एक ओर केरल जैसे राज्य में तो कांग्रेस सीपीआईएम का विरोध करते दिखाई देती है लेकिन केंद्र अथवा बिहार जैसे किसी विशेष परिस्थिति में समान विचार वाले किसी दल से सुविधानुसार गठबंधन करने से गुरेज नहीं करती, जहां विचार आधारित राजनीत का कोई स्थान शेष नहीं, स्थान है तो बस सत्ता में वापसी की कुंजी का।