रामकृष्ण परमहंस जी : सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक

The Narrative World    13-Jan-2023   
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Ramakrishna Paramhansa 
 
आर्यावर्त की भूमि, आदर्शों की भूमि है। चाहे आदर्श परिवार की व्याख्या हो या आदर्शों से परिपूर्ण सामाजिक व न्याय व्यवस्था या चाहे विज्ञान को ओढ़ी परंपराएं हों, सनातन संस्कृति की इस पावन धरा पर हर प्रकार के प्रसून मिलते हैं, जिनकी सुगंध रूपी धरोहर ने सृष्टि को आनंदित किया है। किंतु कालांतर में ज्ञान के अभाव में यहां कुछ विकृतियों ने जन्म लिया, ज्ञान के अभाव रूपी इस अंधड़ ने इन प्रसूनों को सूखा डाला। किंतु सनातन संस्कृति की शिक्षाओं का पुनः प्रसार करने हेतु परमेश्वर के वह महाअंश इस वसुंधरा पर अवतरित हुए,जिनकी शिक्षाओं ने भारत समेत, समूचे विश्व में ज्ञान की दीप्ति प्रसारित की।
 
ऐसे तो संपूर्ण देश में बहुत से संत हुए, किंतु 19वी सदी के प्रभावशाली संतों में से एक थे श्री रामकृष्ण परमहंस। बंगाल की भूमि पर रामकृष्ण परमहंस जी का जन्म हुआ। यह वही समय था जब राजा राम मोहन रॉय जैसे तथाकथित 'समाज सुधारक' वेदों एवं सनातन ग्रंथों की निरर्थक भर्त्सना में व्यस्त थे, तब इन्होंने न केवल सनातन ग्रंथों के महत्व को बताया अपितु उसके प्रसार के लिए शिष्यों की शृंखला भी विरासत में देकर गए।
 
स्वामी रामकृष्ण परमहंस जिनका पहले नाम गदाधर था, गदाधर का जन्म कलकत्ते से सत्तर मील दूर पश्चिम में कामारपुकुर ग्राम में 18 फरवरी, 1836 ई. बुधवार को हुआ था। बाद में ये ही श्रीरामकृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुए।कहा जाता है कि रामकृष्ण के माता-पिता ने उनके जन्म के संबंध में अलौकिक घटनाओं और दर्शनों का अनुभव किया था। गया में, उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा जिसमें भगवान गदाधर (भगवान विष्णु का एक रूप) ने उनसे कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे।
 
कहा जाता है कि चंद्रमणि देवी को योगीदर शिव मंदिर में लिंगम से उनके गर्भ में प्रवेश करने वाले प्रकाश के दर्शन हुए थे। रामकृष्ण के जन्म के बाद एक अन्य दृष्टि में, उनकी माँ ने बच्चे रामकृष्ण के बजाय बिस्तर पर एक अजीब से लम्बे व्यक्ति को देखा। धार्मिकता, श्रद्धा एवं भक्तिपूर्ण सरल ग्रामीण वातावरण में लालित-पालित होने के कारण गदाधर के हृदय में बाल्यकाल से ही भगवान के दर्शन की तीव्र अभीप्सा थी । पढ़ने लिखने की ओर विशेष ध्यान न देकर वे साधु-संन्यासियों एवं तीर्थयात्रियों के बीच समय बिताते और अपने अन्य समवयस्क संगी-साथियों को लेकर धार्मिक नाटक खेला करते थे।
 
जब श्री रामकृष्ण सोलह वर्ष के थे, तब उनके भाई रामकुमार उन्हें पुरोहित के पेशे में सहायता करने के लिए कोलकाता ले गए। 1855 में रानी रासमणि द्वारा निर्मित दक्षिणेश्वर के काली मंदिर की प्रतिष्ठा की गई और रामकुमार उस मंदिर के मुख्य पुजारी बने। जब कुछ महीने बाद उनकी मृत्यु हो गई, तो रामकृष्ण को पुजारी नियुक्त किया गया।
 
रामकृष्ण ने माँ काली के प्रति गहन भक्ति विकसित की और पुजारी कर्तव्यों के अनुष्ठानों को भूलकर, उनकी छवि की प्रेमपूर्ण आराधना में घंटों बिताए। उनकी तीव्र लालसा उनके चारों ओर सब कुछ घेरने वाली असीम प्रभा के रूप में माँ काली के दर्शन में परिणत हुई परंतु गदाधर ने देखा कि सभी प्रकार से जागतिक ज्ञानका लक्ष्य केवल भौतिक उन्नति ही है। अतः उन्होंने मन ही मन संकल्प किया कि वे अपना जीवन केवल आध्यात्मिक ज्ञान की उपलब्धि में लगायेंगे जिससे शाश्वत शान्ति की प्राप्ति निश्चित रूप से हो सके।
 
श्री रामकृष्ण की ईश्वर के प्रति अपार भक्ति को देखते हुए कमरपुकुर में उनके रिश्तेदारों को चिंतित कर दिया और उन्होंने उनका विवाह जयरामबती के पड़ोसी गांव की लड़की शारदा से कर दिया। विवाह से अप्रभावित, श्री रामकृष्ण और भी अधिक गहन आध्यात्मिक साधना में डूब गए। वे अपनी भार्या को देवी मां मानकर पूजते थे, इस दंपति का संबंध केवल आध्यात्मिक रहा। उन्होंने एक प्रकार से आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया, किंतु कभी ब्रह्मचर्य के प्रयोग नहीं किए, जो स्पष्ट रूप से यह दर्शाता है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने हेतु, ब्रह्मचर्य के प्रयोग किए बिना हो सकता है।
 
श्री रामकृष्ण परमहंस जी के ह्रदय में दीन दुखियों के लिए भी अपार करुणा थी। एक बार काशी तीर्थ यात्रा पर जाते हुए घर के निकट भूख से व्यथित लोगों को देखकर श्री मथुर बाबू को उन्होंने कहा पहले इन सभी को पेट भर भोजन तथा कपड़ा दो तभी आगे बढ़ेंगे तो इस पर मथुर बाबू ने कहा कि फिर तो काशी की यात्रा नहीं हो सकेगी ठाकुर जी ने कहा कोई बात नहीं वापस कलकत्ता चले जाएंगे।
 
मथुरा बाबू ने इस बात को सुनते ही कोलकाता से कपड़े मंगवाए सभी गरीबों को दिलवा तभी ठाकुर आगे बढ़े उन्हीं गरीबों के मध्य जाकर ठाकुर स्वयं भी बैठ जाते थे ऐसे ही दीन दुखियों की सेवा हेतु उन्होंने सन्यासियों की टोली कर ली थी। सार्वभौमिक प्रेम तथा समन्वय का संदेश लेकर यह लोग देश भर में निकल गए शिष्य सन्यासियों में प्रमुख थे अद्भुत आनंद स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी अद्वैतानंद, स्वामी विवेकानंद जी, स्वामी शिवानंद जी, स्वामी प्रेमानंद जी, स्वामी योगानंद जी, स्वामी विरजानंद जी।
विश्व को ज्ञान ज्योति प्रदान कर श्री राम कृष्ण परमहंस जी ने सन् 1886 ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को देह त्याग दिया। 16 अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही समय पहले श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये। जीवन के लगभग हर पहलू पर रामकृष्ण परमहंस जी ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि डाली है, जिनमें से कुछ विषय उन्हीं की वाणी में समझने का प्रयत्न करते हुए चलते हैं -
 
ज्ञान
 
'मैं कौन हूँ', इसका भली भाँति विचार करने पर दिखाई देता है कि मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं। एक प्याज लो और उसके छिलकों को अलग करते जाओ। पहले बाहरी लाल छिलके, फिर मोटे सफेद छिलके मिलेंगे। इन्हें भी एक एक करके निकालते जाओ। अन्त में तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा। उस अवस्था में फिर मनुष्य को अपने अहं का अस्तित्व ही नहीं मिलता और तब उसे ढूँढ़नेवाला ही कहाँ रह जाता है? उस अवस्था में उसे अपने शुद्ध बोध में ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का जो अनुभव होता है, उसका वर्णन कौन कर सकता है?" इस प्रकार परमहंस जी मन, बुद्धि, शरीर, अहंकार को 'मैं' मान लेना उचित नहीं मानते, उनके अनुसार मनुष्य के भीतर के ब्रह्म तत्व को बोध होना ही मनुष्य का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। इसी प्रकार वे कहते हैं कि - " ज्ञान एकत्व की ओर ले जाता है, अज्ञान नानात्व की ओर।"
 
वे असल ज्ञान प्राप्त करने के विषय में आगे कहते हैं - "निम्नश्रेणी का भक्त कहता है, 'भगवान् है, किन्तु वे बड़ी दूर स्वर्ग में हैं।' मध्यम श्रेणी का भक्त कहता है, 'भगवान सभी जीवों में प्राण एवं चैतन्य के रूप में 'हैं।' उत्तम श्रेणी का भक्त कहता है, 'भगवान् स्वयं ही सब कुछ बने हुए हैं, मैं जो कुछ देखता हूँ वह भगवान का एक रूप मात्र हैं। एकमात्र वे ही माया, जगत् एवं समस्त जीव बने हैं। भगवान को छोड़ और कुछ है ही नहीं।" यहां परमहंस जी अद्वैत के सिद्धांत का प्रतिपादन कर रहे हैं, जो आज के भोगवाद में डूबे युवाओं के लिए समझना अत्यंत आवश्यक है।
 
कर्म
 
कर्म के बारे में श्री रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं कि कर्म को पूर्ण रूप से त्यागना संभव नहीं है हमारी इच्छा हो या ना हो हमारे स्वभाव हमसे कर्म करवाएगा ही इसलिए शास्त्री यह कहते हैं कि अनासक्त होकर कर्म करो मोह मुक्त भाव से कर्म करने का नाम ही असल में कर्मयोग है वे कहते हैं कि यह संसार हमारा कर्म क्षेत्र है यहां कुछ कर्तव्य करने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है जब हरी काली अथवा राम का नाम लेते ही आंखों से आंसू बहने लगते हैं तब फिर उसे संध्या पूजा आदि करने की आवश्यकता नहीं रहती उसके सभी कर्म अपने आप छूट जाते हैं।
 
कर्मों का फल उस व्यक्ति को स्पर्श नहीं कर पाता,हम पराया देखते हैं कि अध्यात्म में रूचि रखने वाले लोग धूप बहुत है किंतु उन्हें गुरु का उचित सानिध्य प्राप्त न होने के कारण अध्यापकों को जानने के लिए गुरु की खोज में भटकते रहते हैं उनके लिए श्री रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं यदि तुम्हारे अंतः करण में भगवान के प्रति ठीक-ठीक अनुराग उत्पन्न है उन्हें जाने किस प्रभाव उत्पन्न है तो सद्गुरु से मिला देंगे तुम्हें सब गुरु के लिए चिंता करने की आवश्यकता नहीं है ।
 
भगवत प्राप्ति के उपाय
 
इसी के साथ ईश्वर प्राप्ति के संदर्भ में श्री रामकृष्ण परमहंस जी कहते हैं कि ईश्वर और जीव का संबंध ठीक वैसा ही है जैसा चुंबक और लोहे का जिस प्रकार अत्यधिक कीचड़ में लिपटा हुआ लोहा चुंबक के द्वारा आकर्षित नहीं होता उसी प्रकार अत्यधिक माया में लिप्त जीत ईश्वर के आकर्षण का अनुभव नहीं करता किंतु जिस प्रकार पानी से कीचड़ के दूर जाने पर लोहा चुंबक की ओर खींचने रखता है उसी प्रकार अविरत प्रार्थना तथा पश्चाताप के अक्षरों द्वारा संसार बंधन में डालने वाली माया का वाक्य झड़ जाता है तुझे शीघ्र ही ईश्वर की ओर आकर्षित होने लगता है ।
 
ईश्वर प्राप्ति के लिए यह मानते थे कि व्याकुलता के बिना ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं है साथ ही वे मानते थे ईश्वर प्राप्ति के लिए व्याकुलता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है यह व्याकुलता का भाव साधु संग निरंतर करने से उत्पन्न होगा वह प्राप्त होगा उनके अनुसार यदि कोई व्यक्ति सतत 12 वर्षों तक पूर्ण ब्रम्हचर्य का पालन करें तो उसकी मेधा गाड़ी खुल जाती है अर्थात उसकी प्रज्ञा शक्ति खुल जाती है तब उसकी बुद्धि सूक्ष्म से सूक्ष्म विचारों में प्रवेश करने और उन्हें ग्रहण करने में समर्थ हो जाती है ऐसी ही बुद्धि होने पर मनुष्य भगवान की प्राप्ति कर सकता है केवल इसी प्रकार की विशुद्ध बुद्धि के द्वारा भगवत प्राप्ति संभव है श्री रामकृष्ण परमहंस जी के दर्शन में वे हमें यह स्पष्ट दर्शन देते हैं कि सांसारिक वस्तुओं के प्रति तनिक भी मोह रखते हुए भगवत प्राप्ति नहीं हो सकती।
 
हालंकि परमहंस जी के कुछ मत ऐसे भी थे, जहां तथ्यों को देखते हुए सहमत हो पाना असम्भव प्रतीत होता है उदाहरणार्थ वे कहते थे "कुछ लोग सत्य को 'अल्लाह' के नाम से पुकारते हैं, कुछ 'गॉड' कहकर, कुछ लोग 'ब्रह्म' कहकर, कुछ 'काली' कहकर, तो कुछ लोग 'राम', 'ईसा', 'दुर्गा' तथा 'हरि' नाम लेकर पुकारते हैं। कोई भी निश्चित रूप से यह नही कह सकता कि भगवान् केवल 'यह' हैं, और कुछ नहीं।" इतिहासकार,प्रोफेसर, शोधकर्ता पंकज सक्सेना जी "जीसस क्राइस्ट : एन आर्टिस्फेस्ट फॉर एग्रेशन" में उल्लिखित यह बात बताते हैं कि वर्षों के ईसाइयों द्वारा बाइबल का गहन अध्ययन से किए गए रिसर्च से यह पता पड़ा है कि जीसस नाम से कोई व्यक्ति इतिहास में थे ही नहीं।
 
किंतु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि भारत के इतिहास में सनातन संस्कृति पर इतने सुदृढ़ विचार रखने वाले व उसका प्रसार करने वाले महनतम संतों में से एक संत रामकृष्ण जी हैं। बंगाल की भूमि पर जन्मे इस संत को मैं इस श्लोक के साथ शत शत नमन करती हूं -
 
स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।
अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः।।