शोर को दबाने के लिए उससे अधिक शोर की आवश्यकता होती है, और जनजाति समाज ने बस्तर में यही किया है

वो संदेह की दृष्टि से प्रश्न करते हैं कि आखिर इन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि बड़ी संख्या में जनजातियों ने ईसाई मत स्वीकार कर लिया

The Narrative World    14-Jan-2023   
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बस्तर, जो लाल आतंक की हिंसा से ग्रसित है, वास्तव में नैसर्गिक सुंदरता और सनातन संस्कृति के वाहकों का एक बड़ा केंद्र है, जहां आज भी सहस्त्राब्दियों से चली आ रही परंपराएं देखीं जा सकती हैं। मूल वनवासी संस्कृति को मानने वाले जनजातियों ने आज भी अपनी संस्कृति, रीति-रिवाजों एवं रूढ़ियों को सहेज कर रखा और इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करते गए। यही कारण है कि हमें आज भी बस्तर के विभिन्न क्षेत्रों में कुछ ऐसी रीतियाँ और परंपराएं दिखाई देती हैं जो भारत के किसी अन्य क्षेत्र में मौजूद नहीं है।
 
लेकिन इन सब के बीच वर्तमान में ऐसा क्या हुआ है कि बस्तर साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में है, आखिर क्या हुआ है कि विधर्मियों के द्वारा लगाई गई आग की लपटों से बस्तर घिर गया है, आखिर क्या कारण है कि बस्तर का शांतिप्रिय जनजाति समाज अब आक्रोशित होकर सड़कों में उतर रहा है और बंद और चक्काजाम जैसे आह्वान कर रहा है।
 
हाल ही में बस्तर के अक्रोशित जनजातियों ने बस्तर बंद की घोषणा की थी, जिसे बस्तर के सर्व समाज का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ। केशकाल से कोंटा तक इस बंद का असर दिखाई दिया। लेकिन यह बंद क्यों हुआ, इसके पीछे का क्या कारण है, जनजातीय नेतृत्वकर्ता एवं जानकर इस विषय को लेकर क्या कह रहे हैं, यह समझना आवश्यक है।
 
दरअसल बस्तर की वास्तविकता को शहरों के वातानुकूलित स्टूडियो और कमरों में बैठ कर रिपोर्ट बनाने वालों ने कभी जानने की कोशिश ही नहीं, और कभी उन्हें बताया गया तो उन्होंने अपने पूर्वाग्रह के चलते उसे भी अनदेखा कर दिया। बस्तर में हजारों वर्षों से जनजातीय समाज अपनी संस्कृतियों का अनुपालन करता आ रहा है। जब यह क्षेत्र दंडक अरण्य था तब भी इस स्थली में सनातनी आस्थाओं का पालन किया जा रहा था। भगवान श्रीराम ने जब यहां कदम रखें तब इन्हीं वनवासियों ने उनका स्वागत किया था।
 
बस्तर की अपनी एक विशिष्ट परंपरा में यहां के लोक देवी-देवताओं का भी अत्यधिक महत्व है, ऐसे में यहां के लोक देवी-देवताओं की उपासना करने भी जनजातियों की संस्कृति का हिस्सा रहा है। लेकिन बीते दशकों में जनजातियों के बीच एक वैमनस्यता देखी जा रही है, जिसका मुख्य कारण है कि इनके बीच विधर्मियों ने अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी है।
 
बस्तर में जहां जनजाति समाज माँ दंतेश्वरी की उपासना करता था, देव गुड़ी में जाया करता था और ग्राम देवता से लेकर लोक देवियों की स्तुति में भजन गाया करता था, उन्हें दिग्भ्रमित कर अब यीशु की आराधना कराई जा रही है, उन्हें अब चर्च ले जाया जा रहा और उनसे यीशु प्रार्थना कराई जा रही है।
 
बस्तर क्षेत्र ईसाई मिशनरियों के निशाने में हमेशा से रहा है, लेकिन पिछले 2 दशकों में जिस तरह से इन्होंने अपने मकड़जाल को फैलाया है, इसने जनजातियों के सामने सामाजिक पतन का संकट खड़ा कर दिया है। इसी मुद्दे को लेकर छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के प्रांतीय उपाध्यक्ष राजाराम तोड़ेम कहते हैं कि 20 वर्ष पहले बस्तर के इक्का-दुक्का गांव में ईसाई हुआ करते थे, लेकिन इन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि इनकी संख्या इतनी अधिक बढ़ गई।
 
वो संदेह की दृष्टि से प्रश्न करते हैं कि आखिर इन वर्षों में ऐसा क्या हुआ कि बड़ी संख्या में जनजातियों ने ईसाई मत स्वीकार कर लिया। तोड़ेम यह भी कहते हैं कि इस बदले हुए जनसांख्यिकी के पीछे कौन है, इसकी भी जांच की जानी चाहिए। राजाराम तोड़ेम ने अपने एक अन्य बयान में यह भी कहा है कि "मिशनरियां पूरे बस्तर संभाग में मतांतरण करवा रही हैं। इससे जनजाति संस्कृति के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। गांव-गांव में चर्च बनाए जा रहे हैं। इसके कारण गांव दो गुट में बंट रहे हैं। इससे हिंसक माहौल तैयार हो रहा है। छत्तीसगढ़ में मतांतरण के विरुद्ध कड़े कानून बनाए जाने चाहिए।"
 
दरअसल राजाराम तोड़ेम जो कह रहे हैं, वही बातें बस्तर का आम ग्रामीण भी कह रहा है, लेकिन उसके देखने का दायरा और कहने के शब्द कुछ अलग हैं। बस्तर के ही एक जनजातीय ग्रामीण का कहना है कि उनके गांव में पहले एक भी ईसाई नहीं था, लेकिन किसी अन्य गांव में रहने वाले एक परिवार ने ईसाई धर्म अपनाया और फिर उनके गांव में मौजूद अपने रिश्तेदार को प्रभावित कर उसे भी ईसाई बना लिया।
 
एक परिवार से शुरू हुआ यह मतांतरण का खेल धीरे-धीरे पूरे गांव में फैलता गया और अब उस गांव में 15 से अधिक परिवार ईसाई बन चुके हैं, साथ ही अब प्रत्येक रविवार को एक अस्थायी चर्च में इनके द्वारा प्रार्थना भी की जाती है।
 
बस्तर के उस ग्रामीण का कहना है कि जब गांव में बढ़ती ईसाई आबादी और जनजातियों की घटती संख्या को लेकर ग्राम सभा में बात उठाई गई तो बाहर से आए ईसाई पादरियों ने प्रलोभन एवं राजनीतिक पहुँच दिखाने का भी प्रयास किया।
दरअसल यह स्थिति कमोबेश बस्तर के हर उस गांव की कहानी है, जहां अब ईसाइयों की आबादी प्रभावी है और जिन क्षेत्रों में साम्प्रदायिक तनाव की स्थितियां निर्मित हो रही है।
 
जिन क्षेत्रों में दो दशक पहले जनजातियों की संख्या अधिक थी, अब उनमें से कुछ गांवों में ईसाइयों की जनसंख्या में अप्रत्याशित वृद्धि देखने को मिल रही है। हालांकि ईसाइयों की बढ़ती आबादी के दावों के बीच आधिकारिक आंकड़ों में कभी इनकी जनसंख्या अधिक दिखाई नहीं देती।
 
इस मामले को लेकर जनजातीय विषयों के जानकार और बस्तर के वरिष्ठ अधिवक्ता का कहना है कि बस्तर के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में कई जनजातीय परिवारों ने ईसाई मत तो अपना लिया है लेकिन उन्होंने सरकारी दस्तावेजों में अभी भी धर्मान्तरण का खुलासा नहीं किया है।
 
इसके पीछे का कारण बताते हुए वो कहते हैं कि इन मतांतरित जनजातियों को डर है कि यदि इन्होंने अपने धर्म परिवर्तन की जानकारी सार्वजनिक की तो इन्हें अनुसूचित जनजाति के आधार पर मिलने वाले लाभ मिलने बंद हो जाएंगे।
 
हालांकि इस मामले में ईसाइयों के द्वारा बार-बार उन्हें यह बताने का प्रयास किया जाता है कि उनके ईसाई होने का खुलासा करने के बाद भी उनके अनुसूचित जनजाति का दर्जा खत्म नहीं किया जाएगा, बावजूद कई ग्रामीणों के द्वारा इसका खुलासा नहीं किया जाता है।
 
हाल ही में एक मीडिया समूह ने बस्तर से जुड़ी एक रिपोर्ट में यह खुलासा किया था कि हिंसा से प्रभावित नारायणपुर जिले के भूमियाबेड़ा, तेरदुल, घुमियाबेड़ा, चिपरेल, कोहड़ा, ओरछा, गुदाड़ी समेत कई ऐसे गांव हैं जहां ईसाइयों की आबादी अचानक से बढ़ी है।
 
जिले के कुछ प्रबुद्ध लोगों का कहना है कि जिला मुख्यालय से दूरस्थ गांवों को विशेष तौर पर लक्षित किया गया है। अभी तक के संकेत ऐसे हैं कि मुख्यालय से जितने अधिक दूरी पर गांव स्थित है, उतना ही अधिक मतांतरण उस क्षेत्र में देखा जा रहा है। कुछेक गांवों में तो ईसाई आबादी 90 प्रतिशत तक पहुंच चुकी है।
 
स्थानीय क्षेत्र के गोंड समेत मुरिया, मुड़िया, अबुझमाड़िया और अन्य जनजाति ईसाइयों के निशाने पर हैं। स्थानीय जनजातीय ग्रामीणों का आरोप है कि ईसाई बनने के एवज में मुफ्त शिक्षा, अनाज, उपचार एवं रुपये भी दिए जाते हैं।
 
ग्रामीणों ने तो यह भी कहा है कि चर्च के माध्यम से कुछ युवाओं को मोटरसाइकिल भी दिलाई गई है। स्थितियां इतनी विकराल रूप ले रही हैं कि एडका, भाटपाल, रेमावन, चिंगरान, बेनूर और गरांजी जैसे अंदरूनी क्षेत्रों में भी प्रार्थना घर निर्मित किए जा चुके हैं।
 
ईसाइयों की इन गतिविधियों को देखने के कारण जनजातीय ग्रामीण लंबे समय से आक्रोशित हैं, साथ ही ग्रामीणों ने कई बार सामाजिक स्तर पर भी इस समस्या को सुलझाने का प्रयास किया। लेकिन जनजातीय ग्रामीणों के इन प्रयासों के बाद भी ईसाइयों ने अपनी अनैतिक गतिविधियों को नहीं रोका, बल्कि गांव दर गांव इसे बढ़ाते ही चले गए।
 
बस्तर के छोटे-छोटे गांव में चर्च खुलने लग गए और ग्रामीणों को प्रलोभन देकर ईसाई बनाया जाने लगा। विधर्मियों की इन गतिविधियों के कारण बस्तर में जनजातीय समाज को अपने सामाजिक पतन के संकेत दिखाई देने लगे, जिसने समाज के भीतर असुरक्षा की भावना को भी पैदा किया।
 
इसके चलते कभी ग्रामीणों ने ईसाई बन चुके लोगों को 'घर वापसी' करने के लिए समझाईश दी, तो कभी ग्राम सभा के स्तर पर ईसाई प्रचार तंत्र पर प्रतिबंध लगाया। लेकिन इन सब के बाद भी ईसाइयों ने बस्तर की भूमि में विधर्मी गतिविधियां जारी रखीं।
एक आंकड़ों के अनुसार छत्तीसगढ़ में वर्तमान में असंगठित पैराचर्च में जाने वाले लोगों की संख्या 9 लाख से अधिक है, जो घोषित रूप से ईसाई जनसंख्या की दोगुनी से भी ज्यादा है।
 
इस 9 लाख में बड़ी संख्या बस्तर के उन जनजातियों की भी है जिन्होंने शासकीय दस्तावेजों में स्वयं को ईसाई घोषित नहीं किया है। ईसाइयों की इस रणनीति के चलते ग्रामीण क्षेत्रों में जनजातीय संस्कृति को छोड़ चर्च जाने वाले बढ़ने लगे हैं, जो आंकड़ों में दिखाई नहीं देते।
 
इन तमाम गतिविधियों के कारण बस्तर का जनजाति समाज ना सिर्फ असहाय महसूस कर रहा है बल्कि आक्रोश से भी भरा हुआ है। हाल ही में जनजातियों द्वारा की गई प्रतिक्रिया रूपी छिटपुट हिंसा की घटना हो या बस्तर बंद का आह्वान हो, यह सब चर्च की अनैतिक गतिविधियों का ही परिणाम है।
 
जनजातियों की यह प्रतिक्रिया एक दिन के आक्रोश या किसी एक घटना का जवाब नहीं है, बल्कि यह उस निरंतर प्रक्रिया का प्रतिकार है जिसे विधर्मियों द्वारा बीते 2 दशकों से बस्तर की वनवासी भूमि पर अंजाम दिया जा रहा है, जो सनातन संस्कृति के आधार और वाहकों की मूल भूमि है।
 
दरअसल जिस प्रकार से ईसाइयों द्वारा जनजातीय संस्कृति का उपहास उड़ाकर, सनातनी आस्थाओं का विरोध कर और रीति-परंपराओं को अनुचित बताकर यीशु की शरण में आने के लिए प्रेरित किया जा रहा है, उसने जनजातीय समाज को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के लिए विवश कर दिया है।
 
गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर का एक कथन है कि 'मिट्टी के बंधन से मुक्ति, पेड़ के लिए आजादी नहीं है', यह बात जनजाति समाज के लिए भी लागू होती है। यदि जनजाति समाज अपने मिट्टी रूपी जड़ों से, अपनी संस्कृति से, परंपराओं से, रीति-रिवाज, समाज और पुरखों की विरासत से कट कर मुक्त हो जाएगा तो वह स्वतंत्र नहीं बल्कि समाप्त हो जाएगा।