कम्युनिस्टों-इस्लामियों-कांग्रेसियों एवं औपनिवेशिक शक्तियों के साझे विद्वेषित हितों का पुलिंदा है बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री

भारत के संदर्भ में तो ओछी मानसिकता के साथ बीबीसी द्वारा किये गए दुष्प्रचारों का एक लंबा इतिहास रहा है

The Narrative World    27-Jan-2023   
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लोकतांत्रिक राष्ट्रों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अपने मायने हैं और मीडिया अथवा पत्रकारिता तो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में गिनी जाती है, यह लोकतंत्र के आधार स्तंभों में से है हालांकि दुर्भाग्य से अभिव्यक्ति एवं पत्रकारिता के नाम पर कुछ भी परोसने की यही स्वतंत्रता भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में औपनिवेशिक शक्तियों एवं कम्युनिस्टों (वामपंथी) की घृणा जनित दुष्प्रचार का केंद्र बिंदु भी है।
 
पत्रकारिता के नाम पर फैलाया जा रहा यह दुष्प्रचार दशकों से जारी है, इसमें यदि कथित बुद्धिजीवियों के एजेंडावादी अवधारणाओं को जोड़ लें तो शायद शताब्दियों से, जिसका मूल उद्देश्य इसे दुष्प्रचारित कर रही शक्तियों के अनुसार समय समय पर परिवर्तित होता रहता है उदाहरण के तौर पर स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिशर्स के लिए यह आर्यन एवं द्रविडं जैसे मिथक गढ़ने एवं उसके दुष्प्रचार का टूलकिट बन जाता है तो स्वतंत्रता के उपरांत यह कम्युनिस्ट विभाजनकारी नितियों के लिए दिव्य बूटी की तरह कार्य करता आया है जहां वे इसके माध्यम से कथित समाजवाद एवं समानता की क्रांति का चोला ओढ़कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को मिटाने पर आमादा है।
 
दुर्भाग्य से ऐसे भारत विरोधी एजेंडावादी खोजी पत्रकारिता एवं कथित बुद्धिजीवी वर्ग की अधपकी अवधारणाओं को सिर माथे पर बिठाने वालों में कम्युनिस्टों, विदेशी औपनिवेशिक शक्तियों के अतिरिक्त ऐसे राजनीतिक दल भी शामिल हैं जो कथित धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़े बैठे इनका भरपूर समर्थन करते आए हैं, जो सत्ता पाने अथवा उस पर काबिज रहने की अपनी ओछी लालसा में किसी भी दुष्प्रचारित अवधारणा को जोर शोर से प्रचारित करने के लिए समय समय पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा उठाए बरसाती मेंढकों की तरह अपने अपने बिलों से बाहर निकल आते हैं।
 
बीते दिनों से चर्चा में रही "बीबीसी" यानी ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कॉर्पोरेशन की गोधरा दंगो पर आई डॉक्यूमेंट्री "इंडिया द मोदी क्वेस्चन" दशकों से चली आ रही इसी परिपाटी की नवीन कड़ी है, जहां भारत विरोधी दुष्प्रचारित एजेंडा चलाने वाली इस मीडिया संस्थान ने एक बार फिर दो दशक पहले निर्दोष कारसेवकों की निर्ममता से हुई हत्या के उपरांत भड़की साम्प्रदायिक हिंसा को आधार बनाकर झूठा प्रपंच बुनने एवं इसके माध्यम से वर्तमान सरकार को कटघरे में खड़ा करने का वृहद षडयंत्र रचा है।
 
दरअसल इस डॉक्यूमेंट्री के माध्यम से इस दुष्प्रचार तंत्र का लक्ष्य वर्तमान प्रधानमंत्री की छवि धूमिल कर सरकार पर दबाव बनाने का है जिसको लेकर अपने अपने एजेंडे को लेकर देश की कुछेक प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से लेकर देश विरोधी कृत्यों में लिप्त समुहों का अघोषित गठबंधन स्पष्ट रूप से प्रतिलिक्षित होता दिखाई दे रहा।
 
इसे ऐसे समझे कि इस डॉक्यूमेंट्री पर छिड़े विवाद के बीच देश में माओवाद जैसे सशस्त्र विद्रोह की धुरी रहा कम्युनिस्ट तंत्र, सत्ता में वापसी की कवायद में तुष्टिकरण की नीति वाली कांग्रेस, ईसाई मिशनरियों, औपनिवेशिक शक्तियों एवं चरमपंथी इस्लामिक गुटों द्वारा इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए विभिन्न स्थानों पर डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग की जा रही है।
कम्युनिस्टों, इस्लामियों एवं कांग्रेसियों के बीच इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग को लेकर मची होड़ तब है जब देश की केंद्रीय जांच एजेंसियां जो उस काल खंड में कांग्रेस सरकार की देख रेख में जांच कर रही थी से लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी तक ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गोधरा हिंसा में दोष रहित माना है बावजूद इसके इस दुष्प्रचार के माध्यम से राजनीतिक रूप से हाशिए पर पड़े कम्युनिस्टों एवं कांग्रेस के साथ कट्टरपंथी विचारधारा रखने वाले एक वर्ग साम्प्रदायिक सौहार्द खराब करने का भरपूर प्रयास कर रहा है।
 
हालांकि इस गठबंधन (कांग्रेस-इस्लामियों-कम्युनिस्टों) द्वारा देश की छवि धूमिल करने का यह प्रयास कोई नया नहीं है, आप सरकार द्वारा बैन की गई इस डॉक्यूमेंट्री के स्क्रीनिंग के पैटर्न को समझे आप पाएंगे कि इसके जड़ो में वही शक्तियां हैं जिन्होंने एनआरसी एवं सी ए ए प्रदर्शनों के नाम पर देश भर में अराजकता के वातावरण का निर्माण करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, जिसने अवार्ड वापसी एवं कथित असहिष्णुता के नाम पर वैश्विक परिदृश्य में भारत की छवि को गहरा आघात पहुंचाया था, जिसने जेएनयू प्रकरण में भारत की न्यायिक व्यवस्था को आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की हत्या का दोषी मानते हुए नारे बुलंद किए थे, जो किसान आंदोलन के नाम पर देश को बंधक बनाने एवं इसे देशद्रोहियों के सशस्त्र विद्रोह का मंच बनाने पर आमादा था।
 
“यहां यक्ष प्रश्न यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर दो दशक पहले कारसेवकों की निर्ममता से हुई हत्या की प्रतिक्रिया स्वरूप भड़की साम्प्रदायिक हिंसा जिसको लेकर वर्षो चली जांच के उपरांत न्यायालय द्वारा दी गई क्लीन चिट को अपने दुष्प्रचार से रंगने के होड़ के पीछे इस गठजोड़ की वास्तविक मंशा क्या है? तो दरअसल वर्तमान सरकार का विरोध की इस कवायद के पीछे इस गठबंधन के घटकों के अपने अपने निजी स्वार्थ निहित हैं, जिसमें देश भर में राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ी कांग्रेस इसे मुस्लिम वोटों के धुर्वीकरण से जोड़कर सत्ता में वापसी की कुंजी मान रही है तो वहीं कम्युनिस्टों एवं इस्लामियों के लिए तो यह अस्तित्व बचाने का संघर्ष है।”
 
 
इसलिए कांग्रेस शासित पंजाब से लेकर कम्युनिस्टों के गढ़ रहे केरल, वामियों-इस्लामियों के साझा प्रभाव वाले जेएनयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया एवं हैदराबाद विश्वविद्यालय तक में कांग्रेस, लेफ्ट की छात्र इकाइयों द्वारा धड़ल्ले से इसकी स्क्रीनिंग की जा रही है ताकि इसके आधार पर वोटों के धुर्वीकरण से लेकर चुनावों से पूर्व देश विरोधी मुहिम को पूरे सामर्थ्य से हवा दी जा सके
हालांकि इन सब के बीच इस पूरे प्रपंच के पीछे उन विदेशी अदृश्य शक्तियों की भी अहम भूमिका है जो दशकों से एक राष्ट्र के रूप में भारत के उत्थान के धुर विरोधी रहे हैं।
 
जिन्होंने भारत को सदैव से इसकी समृद्ध संस्कृति एवं सामर्थ्य के कारण वैश्विक मंच पर एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा है, जिन्हें वैश्विक जगत में भारत की बढ़ती धमक अपने किसी दुःस्वप्न के सच होने जैसा प्रतीत होता है, यह बताने की आवश्यकता नहीं कि देश के विभाजन से लेकर आर्य-द्रविडं सिद्धांत, आदिवासी-मूलनिवासी जैसे प्रपंचों को गढ़ने एवं इसके आधार पर भारत के सामर्थ्य को कमजोर करने के यह प्रयास शताब्दियों से अनवरत जारी हैं जिनमें कट्टरपंथी इस्लामियों से लेकर कम्युनिस्टों एवं कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल इन शक्तियों के रणनीतिक साझेदार रहे हैं।
 
जहां तक बात बीबीसी की है तो षड़यंत्र रचने एवं जोर शोर से उसके दुष्प्रचार को हवा देने जैसे कृत्यों के लिए बीबीसी सदैव से कुख्यात रहा है, भारत के संदर्भ में तो ओछी मानसिकता के साथ बीबीसी द्वारा किये गए दुष्प्रचारों का एक लंबा इतिहास रहा है, जहां तक तात्कालिक परिस्थितियों की बात है तो इसमें भी संशय नहीं कि वैश्विक परिदृश्य में आत्मनिर्भरता के साथ मजबूत कदम बढ़ाते भारत के उभार से सबसे अधिक नुकसान ब्रिटेन की साख को ही हुआ है, उसे डर है कि अर्थव्यवस्था के तर्ज पर ही संयुक्त राष्ट्र से लेकर शेष वैश्विक मंचो पर भारत ब्रिटेन के सशक्त विकल्प के तौर पर उभर रहा है।