यूरोप में टूटता कम्युनिज़्म का तिलिस्म

वामपंथियों के इस टूटते मायाजाल के पीछे का मुख्य कारण है उनकी वैचारिक पृष्टभूमि। दरअसल वामपंथ एक ऐसा विचार है जो बिना किसी कारण राष्ट्रवाद का विरोध करता है। इस नीति के चलते यूरोप में स्थानीय मूलनिवासियों से अधिक शरणार्थियों और अरब मूल के लोगों के हितों का ध्यान रखते हुए तुष्टिकरण की राजनीति की जा रही है।

The Narrative World    31-Jan-2023
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द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद
4 दशकों तक दुनिया दो हिस्सों में बंटी रही। एक पूरब और दूसरा पश्चिम। इस पूरब और पश्चिम के विभाजन का केंद्र था यूरोप, जिसके देशों का साम्राज्य एक-एक कर ढह रहा था।


इस दौर में दो विचारों ने दुनिया को अपने कब्जे में करने के लिए तमाम षड्यंत्र रचे जिसमें से एक था कम्युनिज़्म अर्थात साम्यवाद।


यूरोप का एक हिस्सा पूरी तरह साम्यवाद के जकड़ में था, जो जर्मनी से लेकर सोवियत संघ तक फैला हुआ था, जिसे ईस्टर्न ब्लॉक कहा जाता था।


पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, लिथुआनिया, लात्विया, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, यूगोस्लाविया, अल्बानिया, बुल्गारिया, रोमानिया समेत कई ऐसे क्षेत्र थे जहां वामपंथ का सीधा शासन था, वहीं कुछ क्षेत्रों में साम्यवादी शक्तियों ने अपना प्रभाव फैलाने का प्रयास किया।


लेकिन अब वर्तमान में यूरोप के पश्चिमी ही नहीं बल्कि पूर्वी हिस्से भी साम्यवाद के प्रभाव और उसके मकड़जाल से बाहर निकल रहा है।


यूरोप के जिन क्षेत्रों में कम्युनिस्ट समूहों ने दशकों तक शासन किया, वहां अब उनका पूरी तरह सफाया हो चुका है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है हाल ही में हुआ चेक गणराज्य का चुनाव।


चेक गणराज्य में दोनों चरणों के चुनाव संपन्न हो चुके हैं और अब चुनाव के नतीजे भी घोषित किए जा चुके हैं।


इन चुनावों में पूर्व मिलिट्री जनरल पेट्र पॉवेल ने जीत हासिल की है, वहीं पूर्व प्रधानमंत्री आंद्रेज बेबिस को हार का सामना करना पड़ा है।


इस चुनाव की दिलचस्प बात यह है कि चेक गणराज्य में हुए इस चुनाव में इस बार सेंटर और सेंटर-राइट विचारधारा की पार्टियों ने सर्वाधिक मत हासिल किए हैं, वहीं कम्युनिस्ट दलों का कोई नाम लेवा नहीं रहा है।


दरअसल राष्ट्रपति का चुनाव जीतने वाले पॉवेल किसी समय में कम्युनिस्ट दल से ही जुड़े हुए थे, लेकिन वह एक ऐसी प्रक्रिया का हिस्सा थे जिसमें उनके पास कोई और विकल्प नहीं था, इसीलिए वह अपने इस कम्युनिस्ट बैकग्राउंड को एक गलती मानते हैं।


उनका कहना है कि चेकोस्लोवाकिया (कम्युनिस्ट शासन में चेक गणराज्य और स्लोवाकिया एक थे) में पढ़ाई के दौरान वो कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे, जब वहां केवल कम्युनिस्ट दल का शासन हुआ करता था।


उनका कहना है कि उन्होंने जब कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ने का फैसला किया तब यह कोई बड़ी बात नहीं हुआ करती थी।


पॉवेल कम्युनिस्ट दल से अपने संबंध को लेकर कहते हैं कि उन्हें ना ही कम्युनिस्टों के आपराधिक प्रवृत्ति की जानकारी थी, और ना ही उसका अनुभव, लेकिन अब समझ आता है कि उससे जुड़ना एक गलती थी।


दरअसल पॉवेल से पहले अभी तक चेक गणराज्य में मिलोस जेमन राष्ट्रपति थे और उनकी वामपंथी विचारधारा कस प्रति झुकाव ने चेक गणराज्य सहित यूरोप को भी काफी संकट में डालने का काम किया है।


एक तरफ जहां यूरोपीय संघ एवं नाटो जैसे संगठन चीन की कम्युनिस्ट विचारधारा और उससे आने वाले संकट से मुकाबले की तैयारी कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर इस समूहों का सदस्य होने के बावजूद चेक गणराज्य के राष्ट्रपति बीजिंग का समर्थन करने में जुटे हुए थे।


यह दिलचस्प बात है कि किसी दौर में चेक गणराज्य में शिखर पर रहने वाले वामपंथी अब दिखाई भी नहीं दे रहे हैं। यहां का इतिहास ऐसा रहा है कि अपनी स्थापना के बाद से कम्युनिस्ट समूह ने 40 प्रतिशत तक मत हासिल किए हैं।


शीत युद्ध के दौरान कम्युनिस्टों का एकछत्र शासन रहा, वहीं सोवियत विघटन के बाद अलग चेक गणराज्य का गठन हुआ और इसके बाद हुए चुनावों में भी वामपंथी पार्टियां 10 प्रतिशत से अधिक मत हासिल करती रहीं।


1998 से लेकर 2006 और 2014 से 2017 तक चेक गणराज्य की सरकार का नेतृत्व तो चेक सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ने किया जो वामपंथी विचार का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन वर्तमान चुनाव में वामपंथी समूह को 5 प्रतिशत से भी कम वोट प्राप्त हुए हैं।


यूरोप में वामपंथ का यह टूटता तिलिस्म केवल चेक गणराज्य तक ही सीमित नहीं है।


पूर्व में सोवियत के अधीन रहे कई राष्ट्र अब अपनी कम्युनिस्ट निशानियों को नष्ट कर रहे हैं, कई देशों में सरकारी दस्तावेजों को निकाला जा रहा है ताकि कम्युनिस्टों के द्वारा किए गए अपराधों की सच्चाई बाहर आ सके, वहीं कई देशों में कम्युनिस्ट काल की सभी इमारतों को ध्वस्त किया जा रहा है।


यदि राजनीतिक दृष्टिकोण से भी देखें तो यह स्पष्ट रूप से दिखाई देता है कि यूरोप के विभिन्न हिस्सों में कम्युनिस्ट दलों का राजनीतिक पतन भी हो रहा है।


हाल ही में स्वीडन में चुनाव हुए थे, वहां दशकों तक सत्ता में राज करने वाली कम्युनिस्ट विचार की पार्टी को मात देते हुए एक दक्षिणपंथी दल ने जीत हासिल की है।

स्वीडन में हुए 24 में से 19 चुनावों में जीतने वाली कम्युनिस्ट विचार की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी बुरी तरह से हारकर सत्ता से बाहर हुई है।


इसके अलावा बीते वर्ष इटली में भी आम चुनाव हुए, जहां वामपंथी दल की करारी हार हुई। इटली में तो एक ऐसी पार्टी ने चुनाव जीता है, जिसकी नेता पर मुसोलिनी की समर्थक होने का आरोप वामपंथी गुट लगाते हैं।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहला मौका है जब यूरोप में दक्षिणपंथ का ऐसा विस्तार देखा जा रहा है। वर्तमान में यूरोपीय संघ में 27 सदस्य देश हैं, जिसमें भी दक्षिणपंथी धड़े ने अपनी जगह मजबूती से बना ली है।


“किसी काल में कम्युनिस्ट तानाशाही झेलने वाले हंगरी, पोलैंड और ऑस्ट्रिया में अब वामपंथी सत्ता से बाहर किए जा चुके हैं। वहीं फ्रांस के संसदीय चुनाव में दक्षिणपंथी समूह को ऐतिहासिक जीत मिली है। एक तरफ जहां यूके में कंजरवेटिव पार्टी की सरकार है, वहीं हाल ही में हुए स्वीडन एवं इटली के चुनाव में वामपंथियों को नामो निशान मिटता हुआ दिखाई दे रहा है।”


वामपंथियों के इस टूटते मायाजाल के पीछे का मुख्य कारण है उनकी वैचारिक पृष्टभूमि। दरअसल वामपंथ एक ऐसा विचार है जो बिना किसी कारण राष्ट्रवाद का विरोध करता है।


इस नीति के चलते यूरोप में स्थानीय मूलनिवासियों से अधिक शरणार्थियों और अरब मूल के लोगों के हितों का ध्यान रखते हुए तुष्टिकरण की राजनीति की जा रही है।

 
स्वीडन में मुस्लिमों की बढ़ती आबादी के बाद हो रहे दंगे और अपराधिक घटनाओं के बाद भी वामपंथियों की चुप्पी ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया।


इटली में कम्युनिस्ट नीतियों का विरोध करने वाली नेता को जनता ने चुनाव जीता दिया।


बावजूद इसके कम्युनिस्ट समूहों ने तुष्टिकरण की राजनीति नहीं छोड़ी है, यही कारण है कि एक के बाद एक यूरोप के ऐसे देशों में भी उनका पतन हो रहा है, जो दशकों तक कम्युनिस्ट शासन के अंतर्गत रह चुके हैं।


हालांकि यह भी एक कारण है कि कम्युनिस्ट समूहों ने जिस प्रकार से अपने शासन के दौरान तानाशाही की थी, उसकी सच्चाई अब आम जनता के सामने आ रही है, और जनता अब उस आतंकी तानाशाही विचार को सत्ता नहीं देना चाहती है।