वेदांत जातिवाद के विरुद्ध, अद्वैतवाद मनुवाद को समर्पित, मार्क्स की दुनिया में भारतीय दर्शनों के भी अपने मायने हैं

The Narrative World    04-Jan-2023   
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जब भी विचारों की बात आती है तो भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां, कम्युनिस्ट आतंकी विचारधारा को प्रत्यक्ष रूप से अपनाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) से अलग बताते आईं हैं हालांकि गाहे-बगाहे ऐसी पार्टियों की राजनीतिक बयानबाजी वैचारिक आतंकवाद को लेकर इनके एवं अर्बन नक्सलियों के समूह के बीच की समानता को उजागर कर ही देते हैं।
 
दरअसल लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनावों के माध्यम से मार्क्सवादी विचारधारा के पक्ष में वातावरण का निर्माण करने वाले इन दलों की वैचारिक रेखा की सूक्ष्मता से पड़ताल करने पर इस राजनीतिक मुखौटे के पीछे का स्याह चेहरा स्वतः उजागर होता दिखाई देता है, तीस पर भी इस विचारधारा से जुड़े राजनेताओं के राजनीतिक या यूं कहें कि रणनीतिक रूप से समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करने के प्रयास भी समय समय पर जगजाहिर होता ही रहते हैं जो मूल रूप से इनकी वास्तविकता को ही सामने लाते हैं।
 
अब इसी क्रम में कम्युनिस्ट शासित केरल सरकार के मंत्री एम बी राजेश ने केरल में सत्तासीन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सिस्ट) की वैचारिक कलई खोलने वाला विवादास्पद बयान दिया है, दरअसल केरल के वर्कला स्थित मठ में एक कार्यक्रम के दौरान लोगों को संबोधित करते हुए एम बी राजेश ने कहा कि जगद्गुरु शंकराचार्य (आदि शंकराचार्य) क्रूर जातिवादी व्यवस्था के समर्थक थे।
 
अपने संबोधन में राजेश ने श्री नारायण गुरु से आदि शंकराचार्य की तुलना करते हुए कहा कि "शंकराचार्य मनुस्मृति आधारित जाति व्यवस्था के समर्थक थे जबकि उनके विपरीत नारायण गुरु इसके विरुद्ध समर्पित रहे, इस बीच अपने ऐतिहासिक ज्ञान का बखान करते हुए राजेश ने यह भी कहा की केरल को यदि किसी गुरु की आवश्यकता है तो वो श्री नारायण गुरु की है ना कि शंकराचार्य की।
 
दरअसल आध्यात्मिक रूप से वेदांत के दर्शन से जुड़े दोनों गुरुओं को जाति के आधार पर बांटने के पीछे मार्क्स के सिपाही राजेश का प्रयास जाति आधारित वर्ग संघर्ष के विचार को ही पोषित करने का था, ताकि इस वर्गीकरण के आधार पर सत्ता में बने रहने एवं कथित समानता के विचार से समाज को रंगने की उनकी लालसा का मार्ग आगे भी प्रशस्त होता रहे, हालांकि अपने मार्क्सवादी चिंतन से भारतीय दर्शन को रंगने के प्रयास में एम बी राजेश यह भूल गए कि वेदांत की मूल भावना 'मानवमात्र' के आध्यात्मिक उन्नति के शिखर को पहुँचने को समर्पित है ना कि किसी जाति अथवा वर्ग विशेष के।
 
तीस पर भी आदि शंकराचार्य एवं श्री नारायण गुरु के दर्शन में जिन कथित असमानताओं का आधार बनाकर समाज को बांटने का प्रयास एम बी राजेश कर रहे थे उसके पूर्वाग्रह को दोनों गुरुओं के जीवनकाल के कालखंडों के बीच के अंतर से भी बखूबी समझा जा सकता है। बावजूद इसके मार्क्स के कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष के पूर्वाग्रह से प्रेरित सिपाही को दसियों शताब्दियों का यह अंतर भी मामूली जान पड़ता है उनके लिए तो बात बस इस पर ही खत्म हो जाती है कि यदि जहां किसी कालखंड में भी किसी भी आधार पर समाज का वर्गीकरण हुआ हो, वहां एक वर्ग सर्वहारा तो दूसरा बुजुरवा ही होगा।
 
फिर धर्म आधारित किसी दर्शन के विषय में इस पूर्वाग्रह से निकलना तो कम्युनिस्ट विचार को समर्पित किसी राजनेता के लिए इसलिए भी संभव नहीं कि धर्म तो वहां अफीम से अधिक और कुछ भी नहीं, तो समानता, उन्नति (आध्यात्मिक एवं व्यवहारिक) एवं मनुष्य जीवन की संपूर्णता का ज्ञान किसी धार्मिक ग्रंथ से निकले ऐसा तो कतई संभव नहीं। भारत के संदर्भ में तो ऐसे भी कोई भी भारतीय दर्शन उस मनुवाद पर ही आधारित है जिसके श्लोकों के विश्लेषण के स्रोत जेएनयू के कॉमरेड प्रोफेसरों के परिश्रम में निहित हैं।
 
इसलिए इतनी अल्प आयु में देश को उत्तर से लेकर दक्षिण तक सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर एक धागे में पिरोने वाले किसी मनीषी, किसी संत का दर्शन इन्हें समाज को जोड़ने वाला कैसे प्रतीत हो सकता है, कम्युनिज्म विशेषकर सांस्कृतिक मार्क्सवाद के सिद्धांत के चश्मे से उसे देखने के लिए तो निश्चित ही उसकी व्याख्या ब्राह्मणवाद, जातिवाद, मनुवाद अथवा इस जैसे गढ़े गए अनेकों बेतुकी अवधारणाओं के आलोक में देखने की आवश्यकता होगी ताकि इसके आधार पर आज नहीं तो कल लाल किले पर लाल निशान के दुःस्वप्न की अभिपूर्ती हो सके।
 
खैर विडंबना तो यह है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मिले अधिकारों को लेकर ना केवल ऐसे जन प्रतिनिधियों को हमारा जनमानस ऐसे स्वतंत्र दुष्प्रचार करने का अवसर देते आया है अपितु अपने संतो अपने मनीषियों की महान रचनाओं, उनके दर्शनों के विरुद्ध किये गए ऐसे दुष्प्रचारों की जद में आकर देश की युवा पीढ़ी का एक वर्ग विशेष दिग्भ्रमित एवं दुष्प्रचारित विचारों के पक्ष में लामबंद होता भी दिखाई पड़ता है। उनके लिए तो मार्क्स अथवा माओ की क्रांति के मायने अपनी संस्कृति को मनुवाद के चश्मे से देखना भर है।