नन्हीं जनजातीय बच्ची न्याय की आस लेकर पहुंची राज्यपाल के दरवाजे पर

वह तीन वर्ष की एक जनजातीय कन्या बस इसी जिद में थी कि सियाबत्ती उसे फिर से उसे गोद में उठाकर खिला ले

The Narrative World    09-Jan-2023   
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victim of attack meet governor 
 
 तारीख़ 1 जनवरी, 2023, बस्तर के घने जंगलों के बीच मौजूद एक गांव में तीन वर्ष की एक जनजातीय बच्ची घर पर अपनी मां के आने की प्रतीक्षा कर रही है। यह बच्ची गांव के अपने घर में इधर-उधर खेल रही है और अपनी मां को पुकार रही है।
 
एक तरफ जहां इस अबोध सी नन्ही बच्ची का बालमन मां की ममता को खोज रहा है, वहीं दूसरी ओर बच्ची की मां सियाबत्ती दुग्गा आदिवासी समाज पर हो रहे अत्याचारों और अपनी इस बच्ची के भविष्य की चिंता करते हुए ग्रामीणों की बैठक में शामिल होकर जल्दी घर जाने के बारे में सोच रही थी। आखिर सियाबत्ती ने भी अपनी इस छोटी बच्ची को घर में छोड़ रखा था।
 
लेकिन इस बीच 200 से अधिक आतंकियों की भीड़ ने ग्रामीणों पर हमला कर दिया। लोग दर बदर भागने लगे। भीड़ ने लोगों को चुन-चुनकर मारने का प्रयास किया। यह भीड़ थी ईसाइयों की। इसका नेतृत्व कर रहा था ईसाई पादरी और नव धर्मान्तरित ईसाइयों का गिरोह। इस भीड़ ने उस नन्हीं से बच्ची की मां सियाबत्ती दुग्गा को भी नहीं छोड़ा। सियाबत्ती को ईसाइयों की आतंकी भीड़ ने जान से मारने का प्रयास किया।
 
सियाबत्ती बताती हैं कि ईसाइयों ने धारदार हथियारों से उन्हें मारने की कोशिश की, जिसके बाद वो भागने लगी। भागने के बाद भी ईसाइयों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उन्हें बुरी तरह घायल किया। सियाबत्ती कहती हैं कि ईसाइयों के हमले के निशान आज भी उनके शरीर में मौजूद हैं।
 
लेकिन इन सब के बीच सियाबत्ती का कहना है कि ईसाइयों के हमले के दौरान उन्हें के अपनी उस नन्हीं सी बेटी की चिंता हो रही थी। उन्हें डर था कि यदि ईसाइयों ने उन्हें मार दिया तो उनकी बेटी का पालन-पोषण कौन करेगा। उन्हें डर था कि जिस अबोध बेटी को वो 'जल्दी लौट आने' का वादा कर गई थीं, उसे जब मां ही नहीं मिलेगी तो उस बेटी का क्या होगा।
 
सियाबत्ती जब यह बता रहीं थी, तब उनकी आंखों में आंसू थे, मां की एक ममता थी, बेटी के लिए एक प्रेम था, और बेटी का भविष्य अंधकार में जाने का भय। और इन सब के पीछे का का एक ही कारण है, ईसाइयों की भीड़ का जनजातियों पर प्राणघातक हमला।
 
इसी हिंसक हमले की शिकायत लेकर राजधानी रायपुर में राजभवन पहुंचे जनजातियों के प्रतिनिधिमंडल में वह तीन वर्षीय बच्ची भी मौजूद थी। जब प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल महोदया को ज्ञापन सौंपा तब मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि उस नन्हीं सी बच्ची की आंखें भी राज्यपाल से न्याय की आस लगाए बैठी हैं।
 
बच्ची ने भले कुछ नहीं कहा, लेकिन भाव भाव ऐसे थे कि जैसे बालमन कह रहा हो कि उसकी मां पर जिस तरह के हमले उपद्रवियों ने किए, ऐसा दोबारा किसी बच्ची की मां के साथ ना हो।
 
वह तीन वर्ष की एक जनजातीय कन्या बस इसी जिद में थी कि सियाबत्ती उसे फिर से उसे गोद में उठाकर खिला ले, लेकिन उसे क्या पता कि विधर्मियों की भीड़ ने उसकी माँ के साथ इतनी मारपीट की है, कि अब उससे अपनी बच्ची को ठीक से गोद में उठाया भी नहीं जा रहा।
 
राजभवन के भीतर भी जब उस नन्हीं सी बच्ची ने अपनी मां को गोद में उठा लेने की जिद की, तब ऐसा लगा कि वह राज्यपाल महोदया को कहना चाह रही हो कि 'हमारी बस इतनी रक्षा कर दीजिए कि अगली बार बस्तर की किसी सियाबत्ती की बेटी गोद में उठाने की जिद करे, तो उसकी मां उसे केवल इसलिए ना मना कर दें क्योंकि ईसाइयों ने उनकी मां को इस लायक ही नहीं छोड़ा है।'
 

victim of attack meet governor 
एक घंटे से अधिक समय तक राज्यपाल ने प्रतिनिधिमंडल की बात सुनी, उनकी समस्याओं को समझा और उन्हें न्याय का आश्वासन भी दिया। लेकिन इन सब के बीच प्रतिनिधिमंडल ने बताया कि उस छोटी बच्ची से राज्यपाल महोदया को कुछ समय में काफी लगाव हो गया। अब यह लगाव तो होना ही था।
 
दअरसल बच्चे तो मासूमियत की प्रतिमूर्ति होते हैं, और जब बालमन अपने तरीके से अपनी पीड़ा का संवाद करता है, तो बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उस मासूमियत को समझने लगता है। कुछ ऐसा ही हुआ है छत्तीसगढ़ के राजभवन में।
 
एक बच्ची ने न्याय की आशा में राज्यपाल से मुलाकात की है। सच तो यह है कि बच्ची को पता ही नहीं कि आखिर कौन उससे मिला है, कहाँ मिला है, लेकिन उसके भीतर राज्यपाल महोदया ने यह भाव जरूर डाला होगा कि उसकी मां के साथ हिंसा करने वाले आरोपियों को बख्शा नहीं जाएगा।
 
राज्यपाल ने उस नन्हीं बच्ची को मन ही मन यह वादा जरूर किया होगा कि जिन आरोपियों ने उसके गांव में हिंसा की है, उनपर कार्रवाई भी की जाएगी। राज्यपाल महोदया ने इस पीड़ा को भी समझा होगा कि इस भरी सर्दी में उस बच्ची को अपनी माँ के साथ घर की गर्माहट हो छोड़कर शहर की ठंडी हवा सहने के लिए इसलिए आना पड़ा क्योंकि जिला पुलिस और प्रशासन ने उसके साथ न्याय नहीं किया।
 
अब सिर्फ उन जनजाति ग्रामीणों के न्याय की बात नहीं है जिनके साथ हिंसा हुआ है, अब यह केवल आरोपी ईसाइयों पर कार्रवाई का मामला नहीं रह गया है, अब सिर्फ पुलिस-प्रशासन और सरकार की मिलीभगत की बात नहीं रह गई है।
 
अब बात है उस तीन वर्षीय बच्ची के भविष्य की, अब बात है उस बस्तर की उस किलकारी की जो भविष्य में भारत को नई ऊंचाइयों तक ले जाने की संभावना रखती है, अब बात है उस बच्ची के भीतर न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और लोकतंत्र की गरिमा को बनाए रखने की, और इसकी जिम्मेदारी शासन-प्रशासन और पुलिस की तो है ही, साथ ही एक समाज के रूप में हमारी भी है।
 
तो चलिए एक आह्वान करते हैं कि ताकि नन्हीं सी बच्ची को न्याय मिल सके और छत्तीसगढ़ के भविष्य के रूप में इस बच्ची का भारत के महान लोकतंत्र में विश्वास और अधिक सुदृढ़ हो सके।