बीते वर्षों में कई बार यह विषय उठाया गया है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की सरकारों में इस्लामिक कट्टरपंथियों से लेकर कम्युनिस्ट आतंकियों तक, सभी के लिए एक नर्म रवैया अपनाया जा रहा है। हाल ही में विपक्षी दलों द्वारा बनाए गए INDI गठबंधन के नेताओं की सरकार में ऐसी ही परिस्थितियां देखने को मिल रहीं हैं।
इसका ताजा उदाहरण है बिहार में एक हार्डकोर माओवादी की रिहाई। दरअसल बीते सोमवार 16 अक्टूबर को पटना के एडीजे कोर्ट में आंध्र प्रदेश के हार्डकोर माओवादी को रिहा किया है। रिहा होने वाला माओवादी तुषारकान्त भट्टाचार्य उर्फ रघु उर्फ श्याम माओवादी आतंकी संगठन के पीपुल्स वॉर ग्रुप का सदस्य है।
गौरतलब है कि माओवादी आतंकी संगठन पीपुल्स वॉर ग्रुप भारत में एक प्रतिबंधित आतंकी संगठन है, लेकिन बावजूद इसके INDI गठबंधन के नेताओं द्वारा चल रही बिहार सरकार की पुलिस माओवादी के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं जुटा पाई।
प्रतिबंधित माओवादी संगठन का सदस्य तुषारकान्त मूल रूप से आंध्रप्रदेश का रहने वाला है, जिसे बिहार पुलिस ने माओवादी हिंसा से जुड़े मामले में 18 सितंबर, 2007 को गिरफ्तार किया गया था।
INDI गठबंधन के तहत चल रही बिहार सरकार की पुलिस की नाकामी को इससे ही समझा जा सकता है कि जिन 11 पुलिसकर्मियों को इस मामले में गवाह बनाया गया था, वो कोर्ट के बार-बार निर्देश देने के बाद भी गवाही देने नहीं पहुंचे। अंततः कोर्ट ने साक्ष्यों के अभाव में माओवादी को बरी कर दिया।
जबकि सच्चाई यह है कि वर्ष 2007 में जब तुषारकान्त की गिरफ्तारी की गई थी, तब उसके पास से लैपटॉप और कुछ दस्तावेज बरामद किए गए थे, जिसमें कुछ संदिग्ध गतिविधियां पाई गईं थीं। इस दौरान यह खुलासा भी हुआ था कि तुषारकान्त माओवादियों के 'ऑपरेशन U' को सफल बनाने के लिए योजना बना रहा है।
तुषारकान्त की गिरफ्तारी को पटना पुलिस ने बड़ी सफलता बताया था, साथ ही यह भी दावा किया था कि इसके पास से माओवादी साहित्य, विस्फोटक, पेन ड्राइव एवं अन्य उपकरण भी बरामद किए गए हैं। लेकिन इन सब के बाद भी खुद पुलिस ने गवाही ना देकर इस रिहाई को संदिग्ध बना दिया है।
दरअसल यह पहली बार नहीं है कि कांग्रेस के सहयोगी या हम कहें कि INDI गठबंधन में शामिल दल की सरकार में माओवादी आतंकियों की इस तरह से संदिग्ध हालातों में रिहाई हुई है, इससे पहले भी ऐसे मामले सामने आ चुके हैं।
बीते वर्षों में झारखंड में हेमंत सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के दौरान पुलिस की ढिलाई के चलते आम लोगों और सुरक्षाकर्मियों की हत्या से लेकर विभाग गंभीर अपराधों में शामिल रहे खूंखार माओवादी साक्ष्यों के अभाव में न्यायालय से बरी होते जा रहे हैं।
1. कुंदन पाहन - झारखंड के कोल्हान क्षेत्र में आतंक का पर्याय रहा है कुंदन पाहन। इस पूरे क्षेत्र में माओवादी आतंकी संगठन की बागडोर संभालने वाला और विभिन्न माओवादी आतंकी गतिविधियों में शामिल था कुंदन पाहन। कुंदन के विरुद्ध 5 करोड़ नगदी और एक किलो सोना लूटने का आरोप था। इसके अलावा स्पेशल ब्रांच के इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदवार एवं पूर्व मंत्री रमेश मुंडा की हत्या का आरोप भी कुंदन पाहन पर लगा हुआ था।
कुंदन पाहन की माओवादी गतिविधियों ने सक्रियता और माओवादी संगठन की पैठ मजबूत कराने की गतिविधियों को देखते हुए सरकार ने उस पर 15 लाख रुपये का इनाम घोषित किया था। वर्ष 2017 में प्रदेश में भाजपा सरकार रहने के दौरान उसने सरेंडर पॉलिसी से प्रभावित होकर आत्मसमर्पण किया और वर्ष 2019 में उसने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा। लेकिन इन सब के बीच प्रदेश में हेमंत सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार आने के बाद कुंदन पाहन के ऊपर लगे तमाम मामलों में वह एक के बाद एक बरी होता गया।
रांची के सिविल कोर्ट ने वर्ष 2008 में हुए मुठभेड़ के मामले में कुंदन पाहन को बरी किया, क्योंकि झारखंड पुलिस कुंदन के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य पेश नहीं कर पाई है। पुलिस के द्वारा पेश किए गए 5 गवाहों के कुंदन को न्यायालय के भीतर पहचानने से इंकार कर दिया। यह उस मामले की सुनवाई हो रही थी, जो वर्ष 2008 में रांची के नामकुम क्षेत्र में घटित हुई थी, जिसमें कुंदन के दस्ते के साथ पुलिसकर्मियों की मुठभेड़ हुई थी। तमाम आरोपों के बाद भी कुंदन पाहन के विरुद्ध झारखंड पुलिस सबूत जुटाने में असमर्थ रही।
2. शिकारीपाड़ा में मतदानकर्मियों पर हमले का मामला - दिसंबर 2022 में ही दुमका के एक न्यायालय ने फैसला सुनाते हुए हार्डकोर माओवादी सुखलाल मुर्मू उर्फ प्रवीर दा समेत 5 खूंखार माओवादियों को बरी कर दिया था। इन माओवादियों के बरी होने के पीछे भी झारखंड पुलिस का वही ढीला रवैया रहा, जो प्रदेश में सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार आने के बाद से जारी है। पुलिस इन आरोपियों के विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य जुटाने में नाकाम रही।
24 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के दौरान शिकारीपाड़ा के सरसाजोल के असना गांव में माओवादियों ने एक पुल को विस्फोट कर उड़ा दिया था। इस दौरान माओवादियों ने मतदानकर्मियों की गाड़ी में भी हमला किया था, जिसमें 3 मतदान कर्मी मारे गए थे। वहीं मतदानकर्मियों की गाड़ी के आगे चल रही पुलिस की गाड़ी पर हमला कर माओवादी आतंकियों ने पुलिस बल पर अंधाधुंध फायरिंग की थी, जिसमें 5 जवान बलिदान हो गए थे। इस मामले में प्रवीर दा उर्स सुखलाल मुर्मू समेत 5 माओवादियों को आरोपी बनाया गया था। अन्य 4 अभियुक्तों में बुद्धनाथ मुर्मू, ताला कुड़ी मुर्मू और बाबूराम बास्की दुमका के केंद्रीय जेल में बंद हैं, वहीं सोमू मुर्मू जमानत पर बाहर है।
दिलचस्प बात यह थी कि पुलिस ने अपनी जांच के बाद न्यायालय में 28 गवाह पेश किए लेकिन किसी भी गवाह के बयान में समानता नहीं पाई गई। ऐसा प्रतीत हुआ, मानो अपराधियों को छुड़ाने के लिए ही गवाहों के बयानों में भिन्नता लाई गई है।
सुखलाल मुर्मू जैसे हार्डकोर माओवादी, जिसपर पाकुड़ जिले में सिस्टर वालसा और जिला पुलिस अधीक्षक अमरजीत बलिहार की हत्या का भी आरोप है, उसे पुलिस की ढिलाई के चलते साक्ष्यों के अभाव में न्यायालय ने बरी कर दिया है। कभी माओवादियों के स्पेशल एरिया कमेटी के सदस्य रहे खूंखार माओवादी सुखलाल मुर्मू पर 27 माओवादी वारदातों में शामिल रहने का आरोप है, जिसे वर्ष 2014 में गिरफ्तार किया गया था।
3. चौकीदार हत्याकांड (गिरिडीह) - 9 जनवरी 2009 को तुरी पीरटांड़ थाना में चौकीदार नंदलाल तुरी अपने घर से निकलने के दौरान माओवादियों से टकरा गए थे, जिसके बाद उनके बीच कुछ बहस हुई और माओवादियों ने नंदलाल तुरी का अपहरण कर उसकी हत्या कर दी थी। नंदलाल की हत्या करने के बाद उसके शव को जंगल में फेंक दिया था।
इस घटना के बाद नंदलाल की पत्नी मालती देवी ने प्राथमिकी दर्ज कराया था, और पुलिस ने 10 आरोपियों को नामजद किया था, जिसमें गुरकुटवा तुरी उर्फ राजकुमार तुरी और नेताजी उर्फ सुखु किस्कु का नाम शामिल था।
लेकिन पुलिस की जांच ऐसी रही कि 6 गवाहों के परीक्षण के बाद भी इन माओवादियों पर आरोप सिद्ध नहीं किया जा सका, और अंततः साक्ष्यों के अभाव में 14 जून 2022 को नेताजी और गुरकुटवा तुरी को गिरिडीह जिला जज के आदेश के बाद रिहा कर दिया गया।
4. कामेश्वर बैठा - हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा से पलामू का सांसद (2009-2014) रहा कामेश्वर बैठा किसी समय में खूंखार माओवादी आतंकी था, जिस पर हत्या, लूटपाट, आगजनी समेत कुल 53 अपराधिक मामले दर्ज थे। माओवादी आतंकी संगठन के लिए इसने कोल-शंख क्षेत्र में संगठन को बढ़ाने का कार्य किया और लगातार माओवादी गतिविधियों में संलिप्त रहा।
कामेश्वर बैठा पर 17 पीएसी जवानों एवं एक डीएफओ की हत्या का आरोप लगा था। इसके अलावा माओवादियों ने वर्ष 2003 में नावाडीह स्थित नहर खुदाई कार्य में लगे एजेंसी के बेस कैंप में जाकर अंधाधुंध हवाई फायरिंग की थी, जिसके बाद माओवादियों ने कर्मचारियों को बंधक बनाकर निर्माण कार्य में लगी सभी 25 मशीनों/वाहनों को आग के हवाले कर दिया था, ऐसा कहा गया था कि इस घटना को कामेश्वर बैठा के नेतृत्व में माओवादियों ने अंजाम दिया था।
जब इस मामले की सुनवाई बिहार के न्यायालय में चली तो जांच में जुटी झारखंड पुलिस पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध कराने में असमर्थ रही। 16 गवाह इस मामले में बनाए गए थे, लेकिन पुलिस केवल 2 गवाहों को पेश कर पाई। नतीजतन मार्च 2021 में न्यायालय ने कामेश्वर बैठा को सबूतों के अभाव में रिहा करने का निर्देश दिया।
5. बालकेश्वर उरांव - 25 लाख रुपये का इनामी और सबसे कम आयु में माओवादी संगठन के केंद्रीय कमेटी का सदस्य बनने वाला माओवादी बड़ा विकास उर्फ बालकेश्वर उरांव भी झारखंड पुलिस की नाकामी के कारण कोर्ट से 5 दर्जन मामलों में बरी हो चुका है।
वर्ष 1994 से माओवादी आतंकी संगठन में सक्रिय बालकेश्वर के सर पर 50 लाख रुपये के इनाम की अनुशंसा की गई थी, हालांकि घोषणा से पूर्व ही उसने भाजपा सरकार के दौरान वर्ष 2016 में आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन झारखंड में सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के दौरान पुलिस के ढीले रवैये के चलते बालकेश्वर के ऊपर दर्ज 78 मामलों में से उसे 60 मामलों में बरी किया जा चुका है।
वहीं अन्य 18 मामलों में भी उसे जमानत दी जा चुकी है। वर्ष 2021 में ही उसे जेल से रिहा किया गया है। बालकेश्वर उरांव झारखंड ही नहीं, बल्कि छत्तीसगढ़ के वांछित माओवादियों में शामिल है, जिसने झारखंड डीजीपी के समक्ष आत्मसमर्पण किया था।
6. मिथिलेश मंडल - झारखंड में माओवादी आतंक का कभी पर्याय रहे मिथिलेश मंडल के विरुद्ध भी झारखंड पुलिस पर्याप्त साक्ष्य नहीं जुटा पाई थी, जिसके कारण गिरिडीह जिला न्यायाधीश ने मार्च 2020 में मिथिलेश मंडल को आरोपों से बरी कर दिया था।
हालांकि अन्य मामलों के कारण वह जेल से बाहर नहीं आया लेकिन जिस तरह से अन्य माओवादियों के दर्जनों केसों में पुलिस ने लापरवाही बरती और फिर वो माओवादी सजा काटे बिना ही बाहर घूमने लगे, उससे एक बार फिर यही शंका है कि सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार में ये माओवादी भी कहीं छूट ना जाये।
मिथिलेश मंडल माओवादी आतंकी संगठन का सक्रिय सदस्य रहा है और उस पर पुकिसकर्मी की हत्या, विस्फोटक रखने एवं माओवादी गतिविधियों में शामिल रहने समेत 2009 में हुए माओवादी आतंकी घटना में शामिल रहने का आरोप है।
7. नवीन मांझी - नवंबर 2022 में ही झारखंड के ही एक और कुख्यात माओवादी नवीन मांझी उर्फ भुवन को साक्ष्यों के अभाव में जिला न्यायालय से बरी किया गया था। इस दौरान 15 लाख रुपये के इनामी रहे माओवादी नवीन मांझी के अलावा संतोष मांझी, गोकुल साव, रामा राम, हेमलाल महतो, टुपलाल महतो और गयासुद्दीन अंसारी जैसे माओवादी भी शामिल थे।
वहीं वर्ष 2020 में झारखंड में सोरेन सरकार बनने के कुछ महीनों के बाद ही गिरिडीह के जिला न्यायालय द्वारा नवीन मांझी को एक अन्य मामले में बरी किया गया था। पुलिस द्वारा इस मामले की ढिलाई इस तरीके से भी समझी जा सकती है कि नवीन मांझी के विरुद्ध केवल गवाह न्यायालय में पेश किया जा सका और उसने भी घटना का समर्थन नहीं किया।
दस अन्य गवाहों को न्यायालय में उपस्थित कराने में पुलिस असमर्थ रही। 26 नवंबर 2001 को जीटी रोड स्थित मालदा पुल में करीबन 150 माओवादियों ने ट्रकों को रोक कर उनसे माल लूट लिया था, जिसमें नवीन मांझी भी आरोपी था।
इसके अलावा पारसनाथ, झुमरा और पलमा तक नवीन मांझी ने माओवादी आतंकी संगठन का विस्तार किया और इन क्षेत्रों में होने वाली तमाम माओवादी गतिविधियों में उसका हाथ शामिल रहा।
वर्ष 2012 में हजारीबाग पुलिस ने नवीन को गिरफ्तार किया था, हालांकि अब हेमंत सोरेन और कांग्रेस की सरकार में पुलिस की नाकामी के चलते ऐसे खूंखार माओवादी भी बरी होते जा रहे हैं।
8. हेमलाल महतो उर्फ गुरुजी - झारखंड में पुलिस द्वारा माओवादी गतिविधियों में संलिप्तता के आरोप में गिरफ्तार हेमलाल महतो उर्फ गुरुजी को लेकर भी पुलिस की जांच ढीली रही। न्यायालय ने साक्ष्यों के अभाव में हेमलाल को बरी कर दिया था।
9. डॉ अजय कुमार - कभी आईपीएस अफसर रहे झारखंड के पूर्व सांसद और कांग्रेस नेता डॉ अजय कुमार पर भी माओवादियों से सहयोग लेने के आरोप लगे थे। वर्ष 2011 के जमशेदपुर लोकसभा सीट के उपचुनाव में जीत हासिल कर वह सांसद बने थे, जिसके बाद उनके प्रतिद्वंद्वी भाजपा नेता दिनेशानंद गोस्वामी ने आरोप लगाते हुए प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
आरोप में कहा गया था कि अजय कुमार ने चुनाव जीतने के लिए माओवादी कमांडर समरजी की सहायता ली है और इससे मतदाताओं को प्रभावित किया है। इस दौरान भाजपा नेता ने अजय कुमार और समरजी के बीच हुई बातचीत की एक रिकॉर्डेड सीडी भी पुलिस को सौंपने की बात कही थी।
हालांकि प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष रह चुके अजय कुमार को अगस्त 2021 में एमपी-एमएलए कोर्ट के विशेष न्यायाधीश ने साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया। दिलचस्प बात यह थी कि इस कांग्रेस नेता के विरोध में वही झारखंड पुलिस सबूत इकट्ठा करने में नाकाम रही जो, हेमंत सोरेन और कांग्रेस की गठबंधन सरकार के अधीन है।