वे प्रोपेगेंडा में निपुण हैं। उनकी बिरादरी का काम ही यही है। प्रोपेगेंडा में वे बड़े कलाकार हैं। उन्हें इसके लिए कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। उन्हें जब भी प्रोपेगेंडा का मौका मिलता है वह किसी भी विषय में कर लेते हैं। वैसे तो प्रोपेगेंडा करने व भूख में कोई ज्यादा समानता नहीं है, लेकिन उनके प्रोपेगेंडा के पीछे किसी ना किसी तरह की भूख ही काम करती हैं। कभी पुरस्कारों की भूख, तो कभी किसी पद की भूख, वहीं अंध विरोध प्रोपेगेंडा का प्रमुख कारण बनता है !
उनके समय-समय पर प्रोपेगेंडा का चिंतन कुछ तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्र व सोशल मीडिया मंच भी करते हैं। भले उनकी प्रोपेगेंडा की कला से उनके सगे मालिक तक प्रभावित ना हो। लेकिन वे अपनी विचारधारा की भूख के लिए प्रोपेगेंडा करना पसंद करते हैं। उन्हें सिर्फ़ प्रोपेगेंडा वाला श्वान कहना, श्वान संगठन व समाज का अपमान माना जाऐगा। वे इससे भी बड़े सम्मान के अधिकारी है।
वे जब भी प्रोपेगेंडा करने लगते हैं, जनता को चोर-चोर सुनाई देता है। लेकिन उनके प्रोपेगेंडा के पीछे उनके ही बनाये मापदंड वालें वैश्विक भूख सूचकांक काम करते हैं। इधर उनके प्रोपेगेंडा पर जनता चोर व चोरी की चर्चा में लग जाती हैं और वे अपनी इस कला से जेब भर लेते हैं। जनता को कितने ही मंचों से उनके प्रोपेगेंडा की आवाज तो सुनाई देती है लेकिन वे कब प्रोपेगेंडा की आड़ में आंकड़ों की हेराफेरी कर देते है, बड़े-बड़े बुद्धि-प्रसादों को इसकी भनक तक नहीं लगती !
हर समय प्रोपेगेंडा की प्रतिभा के दम पर उनके कितने ही संगठन विश्व के कितने ही मंचों पर दमखम दिखाते रहते हैं। उनका पेट भरा हो या फिर खाली, वे हर हाल में हर विषय पर प्रोपेगेंडा करते हैं।
विगत दिनों वे फिर दुनियाभर में अपने ही बनाये “वैश्विक भूख सूचकांक” के आधार पर बोले। उनके प्रोपेगेंडा से एक बार फिर सिद्ध हुआ कि उन्होंने आगे लंबे समय के लिए अपने पेट भरने के लिए तगड़ा माल लपक लिया है। प्रोपेगेंडा से जारी हुए आंकड़े बता रहे हैं कि एक बार फिर किसी ओर के इशारे पर यह किया जा रहा है।
वैसे उनके प्रोपेगेंडा की यह कला नई नहीं है। वे सदियों से भ्रामक प्रचार-प्रसार भरे तथ्यों के आधार पर संगठित रूप से प्रोपेगेंडा करते आये हैं। वे अपने पेट खाली होने पर नहीं बोलते, “दूसरों के भरे हुए पेट पर यह करने लगते हैं ! और उस प्रोपेगेंडा को नाम देते हैं- गरीबी, भूखमरी, शोषण, असहिष्णुता, अत्याचार आदि।" यह कला ही उनकी काबिलियत है। इसके ही आधार पर उनका हर एक सूचकांक आता है। वे दिनभर प्रोपेगेंडा फैलाते हैं गरीबों के लिए और रातें गुजारते है अमीरों के साथ! गरीबों की गरीबी के साथ फोटोशूट करवाते हैं और प्रोपेगेंडा रचते हैं अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए।
वे प्रोपेगेंडा के आदि हो चुके हैं। वे किसी दिन यह ना करें तो उनकी पाचन क्रिया खराब हो जाये। उनके भारी-भरकम आंकड़े उनसे ही पचाना मुश्किल हो जाए। उनका भूख सूचकांक उन्हें ही “गरीबी की रेखा” से नीचें गिरा दें। आखिर वे क्या करें ? वैश्विक स्तर पर प्रोपेगेंडा से ही उनकी दुकानें जो चलती हैं। अब क्या अच्छे-प्यारे पप्पी-टामी जैसा बनकर एक कोनें में पड़े रहे ? लोकतंत्र में उन्हें प्रोपेगेंडा का भी अधिकार नहीं है ? अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत क्या वे अब प्रोपेगेंडा भी नहीं सकते। प्रोपेगेंडा उनकी कला है। अब वे भ्रामक भूख सूचकांक के दम पर प्रोपेगेंडा भी नहीं करें ? उनका इस कहावत से भी कोई लेना-देना नहीं है कि ‛हाथी चले बाजार, श्वान भौंके…!’
भूपेन्द्र भारतीय
देवास, मध्यप्रदेश