अक्टूबर 1976 में ख़त्म हुई थी चीनी 'सांस्कृतिक क्रांति', इसके वीभत्स रूप को दिखाती है "आई डॉन्ट क्वाइट रिकॉल"

"सांस्कृतिक क्रांति" माओ के जीवनकाल में एक तानाशाह के रूप में उसकी बर्बरता का सबसे सफल प्रयोग था जिसने चीन के इतिहास के स्वरूप को बदल कर रख दिया।

The Narrative World    07-Oct-2023   
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चीन के वर्तमान कम्युनिस्ट तानाशाह की नीतियों को माओ जेडोंग से जोड़ कर देखा जाता रहा है। दबी जुबान में उनके विरोधी तो ज़िनपिंग को माओ के नक्शे कदम पर चलने वाला एक ऐसा तानाशाह मानते हैं
, जिसने सत्ता में आते ही माओ के एन्टी राइटिस्ट मूवमेंट (1957) के तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नाम पर अपने सभी विरोधियों को एक एक कर अपने रास्ते से हटा दिया।


हालांकि एन्टी राइटिस्ट अभियान अथवा द ग्रेट लीप फारवर्ड (1959-60) के अतिरिक्त जिस एक मूवमेंट अथवा पोग्राम (नरसंहार के संदर्भ में) ने माओ जेडोंग को चीन के अब तक से सर्वाधिक शक्तिशाली तानाशाह के रूप में स्थापित किया, वह वर्ष 1966 में माओ द्वारा लाई गई "सांस्कृतिक क्रांति" (कल्चरल रेवोलुशन) थी।


"सांस्कृतिक क्रांति" माओ के जीवनकाल में एक तानाशाह के रूप में उसकी बर्बरता का सबसे सफल प्रयोग था जिसने चीन के इतिहास के स्वरूप को बदल कर रख दिया।


हालांकि बावजूद की इतने बड़े पैमाने पर शिक्षाविदों, प्राध्यापकों अथवा शिक्षकों के विरुद्ध की गई इस बर्बरता का नालंदा विध्वंस के दौरान बख्तियार खिलजी द्वारा विश्वविद्यालय के आचार्यों पर की गई बर्बरता के अतिरिक्त कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।


चीनी मीडिया पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के क्रमशः नियंत्रण के कारण इस कथित क्रांति के नाम पर अपने ही शिक्षकों के साथ हुई बर्बरता के विषय में हमें बहुत कुछ जानने समझने को नहीं मिलता।


दशकों से सीसीपी के कड़े नियंत्रण में दबे इस वीभत्स नरसंहार के सच को चीनी मूल के जर्मन निर्देशक जहोऊ किंग ने अपनी डॉक्यूमेंट्री "आई डॉन्ट क्वाइट रिकॉल (I dont quite recall) के माध्यम से सामने लाने का प्रयास किया है।


यह डॉक्यूमेंट्री वर्ष 1966 से माओ की मृत्यु तक अगले एक दशक तक बुद्धिजीवियों एवं शिक्षाविदों के नरसंहार के प्रत्यक्षदर्शियों के साक्षात्कारों पर आधारित है, जिसका विस्तृत विवरण रोंगटे खड़े करने वाला है।


डॉक्यूमेंट्री में उन घटनाओं का भी विस्तार से वर्णन हैं, जो शरणार्थी के रूप में वर्ष 1988 में चीन से अमेरिका आई एवं बाद में शिकागो विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बनी चीनी नागरिक यूकीन्ह वांग ने अपने लेखों में साझा किए हैं।


इस कथित सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वांग केवल 13 वर्ष की थी। इस संदर्भ में 5 अगस्त 1966 की एक घटना का उल्लेख करते हुए वांग लिखती हैं कि 5 अगस्त को 10 वीं कक्षा के कुछ छात्रों ने दोपहर में वाईस प्रिंसिपल समेत दो कुलपतियों को पकड़ कर उन्हें पीटना शुरू कर दिया।


छात्रों ने उनके गले मे उनके नाम के पोस्टर बांधे एवं उनके बाल खींच कर उन्हें तब तक मार जब तक कि उनमें से एक बियान झोंगयूं बेहोश ना हो गईं, बियान उसी दिन बाद में सड़क किनारे मृत पाई गईं।


वो इस कथित क्रांति के शुरुवाती दौर में की गई निर्मम हत्याओं में से एक बर्बर हत्या थी। पर ये केवल एक शुरूवात थी और अगले एक दशक में रेड गार्ड्स ने चीन के विभिन्न क्षेत्रों में लगभग 15 लाख शिक्षकों की निर्ममता से हत्याएं की। यह आंकड़ा अविश्वसनीय लगता है, पर दुर्भाग्य से यही सांस्कृतिक क्रांति की वास्तविकता थी।


चीन में वर्ष 1949 के उपरांत से अब तक सीसीपी का कब्जा है जहां यह सच बेहद मजबूती से जमीदोंज किया गया है ऐसे की आप इसकी ऊपरी परतें भी नहीं टटोल सकते।


दरअसल वर्ष 1966 में माओ जेडोंग ने अपनी 16 मई की अधिसूचना में कहा था कि देश का नेतृत्व अब सर्वहारा वर्ग (मजदूरों) के हाथ से निकल कर बुर्जुआ वर्ग (सामान्यतः एलीट वर्ग) के हाथों में चला गया है। जिसे वापस सर्वहारा वर्ग को सौंपने के लिए उन्होंने स्कूल कॉलेजों के छात्र-छात्राओं का आह्वान किया और फिर रेड गार्ड्स की स्थापना की।


अगले 10 वर्षो तक रेड गार्ड्स बिना किसी उत्तरदायित्व के चीन की सड़को पर जमकर उत्पात मचाते रहे, रेड गार्ड्स हाथों में लाल पट्टियां (बैंड) बांधते, माओ एवं क्रांति के गीत गुनगुनाते, उन्हें राज्य का संपूर्ण संरक्षण था।


इसलिए वे अपनी इच्छानुसार अपने शिक्षकों को अपना लक्ष्य बनाते, उन्हें सार्वजनिक रूप से पीटा जाता, उनके बाल मुड़ाये जाते, कई बार तो बेंचो पर खड़ा कर घंटो प्रताड़ित किया जाता, यह आतंक की पराकाष्ठा थी जिसकी कोई सुनवाई नहीं थी।


जो इस मानसिक एवं शारीरिक उत्पीड़न को बर्दाश्त कर लेते उन्हें फिर जबरन मजदूरी के कैंपो में भेजने की व्यव्यस्था रखी गई थी। यह नरसंहार सुचारू रूप से चलता रहे इसलिए स्कूल कॉलेजों को लगभग एक दशक तक स्थायी रूप से बंद रखा गया परिणामस्वरूप चीन की एक पूरी पीढ़ी इस कथित क्रांति की सनक की भेंट चढ़ गई। कालांतर में उसे चीन की खोई हुई पीढ़ी कहा गया।


हालांकि सार्वजनिक रूप से चीन के शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में सुनियोजित रूप से हुए इस बर्बर नरसंहार के उपरांत भी सीसीपी ने यह सुनिश्चित किया कि इसकी वास्तविक सच्चाई कभी भी बाहर ना आ सके। यह अतिवाद का सबसे वीभत्स रूप था जहां बर्बरता के एक पूरे दशक का नामोनिशान मिटा दिया गया।


इसे बेहतर रूप से इस डॉक्यूमेंट्री के नाम से समझा जा सकता है जिसमें निर्देशक ने प्रत्यक्षदर्शियों के साक्षात्कारों में उनके द्वारा सबसे ज्यादा उपयोग किये जाने वाले वाक्य आई डॉन्ट क्वाइट रिकॉल (मुझे ठीक से कुछ याद नहीं) को इसका शीर्षक चुना है।


आप माने या ना माने एक चीनी नागरिक के रूप में अपने इतिहास को लेकर आपको चुनिंदा होना पड़ता है, आपको भूमि सुधार मूवमेंट, द ग्रेट लीप फॉरवर्ड, एवं सांस्कृतिक क्रांति (कल्चरल रेवोल्यूशन) की वास्तविकता को अपनी स्मृति से मिटाना पड़ता है। यही चीनी विशेषता वाला समाजवाद है जिसका गाजे-बाजे से ढ़ोल भारत समेत दुनिया भर के कम्युनिसट पीटते आए हैं।


विडंबना तो यह है कि सांस्कृतिक क्रांति जैसे दसियों वीभत्स नरसंहारों के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी कम्युनिस्ट विचार अथवा समानता की इस कथित क्रांति के ध्वजवाहक आपको मानवाधिकार समेत कई अधिकार समुहों की अगुवाई करते दिखाई देंगे। इनका यह प्रपंच आपको दूर से इतना प्रभावी दिखाई देगा कि इस काल्पनिक लोक की दुनिया में आप स्वयं को भ्रमित पाएंगे, बेहतर है कि आप फ़िल्म देखें।