दक्षिण की भाषाओं में प्राचीनतम तमिल है, जिसका साहित्य संगम काल का है। तमिल की आधुनिक लिपि की तुलना “ग्रन्थ तमिल” वाली पुरानी लिपि से करें, जो आज भी लुप्त नहीं हुई है, तो पायेंगे कि संस्कृत और प्राकृत के लिये प्रयुक्त सारी लिपियों से शत−प्रतिशत साम्य था, किन्तु वैषम्य उत्तरोत्तर बढ़ता गया और आर्य−विरोधी दुष्प्रचार को हवा देने वालों ने वैषम्य को ही प्राचीन मानने वाली झूठी कहानियाँ पिछली शताब्दी में गढ़ ली।
लिपि में वैषम्य का प्रभाव शब्दों की वर्तनी और उच्चारण पर पड़ना ही था। तमिल और उत्तरी भाषाओं में वैषम्य के अधिकांश उदाहरण लिपिभेद से ही निःसृत हुये। इस लिपिभेद का आरम्भ हुआ संगम साहित्य के लिये प्रयुक्त ब्राह्मी के तमिल रूप से जो उत्तरी ब्राह्मी से ही उत्पन्न हुई और नाममात्र का अन्तर रखती है।
संगम काल के तमिल और उस काल के प्राकृत तथा संस्कृत में जितना अन्तर था वह उत्तरोत्तर बढ़ता गया तथा इसे बढ़ाने में लिपिभेद का हाथ है, जो सिद्ध करता है कि उलटी दिशा में जब पिछले युगों की ओर जायेंगे तो तमिल और संस्कृत−प्राकृत में परस्पर विभेद घटते हुए मिलेंगे, अर्थात कोई पुरातन काल ऐसा था जब विभेद था ही नहीं।
न केवल भाषाई, बल्कि सांस्कृतिक विभेद भी घटते हुए मिलेंगे। किन्तु ब्रिटिश काल से ही इतिहासकारों ने साम्य को अनदेखा करने और विभेदों को बढ़ाकर दिखाने की उलटी गंगा बहायी है जिसमें आर्य−विरोध की तथाकथित द्रविड−राजनीति करने वालों ने हाथ धोये हैं। अब परिस्थिति ऐसी है कि सच्चा इतिहास लिखेंगे तो उन लेखकों के पुतले फूँके जायेंगे, तरीके से बहस होने ही नहीं दी जायगी। इस षडयन्त्र के पीछे हिन्दुत्व को मिटाकर ईसाइयत का प्रचार करने वाले अन्तर्राष्ट्रीय गिरोहों का हाथ है जो पानी की तरह पैसा बहाते हैं।
इस पूरे षडयन्त्र का आरम्भ भाषाविज्ञान की आड़ में गोरे नस्लवादियों ने किया। उनको पचता ही नहीं था कि यूरोप के गोरों से दक्षिण भारत के काले लोगों की एकता कैसे हो सकती है। अतः विभेद ढूँढने के मिथ्या सिद्धान्त कल्पित किये गये, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण और आरम्भिक मिथ्या सिद्धान्त था सारे मूर्धन्य वर्णों को अनार्य घोषित करना, योंकि यूरोप की आधुनिक भाषाओं में मूर्धन्य ध्वनियाँ नहीं होतीं।
भारत के भाषाविद् भी उनके भ्रामक विचारों को बिना जाँचे स्वीकारते आ रहे हैं। जाँचने लगेंगे तो मिलेगा कि प्राचीन यूरोप की ग्रीक लैटिन जैसी भाषाओं में मूर्धन्य ध्वनियाँ थीं या नहीं इसका कोई लिखित प्रमाण ही नहीं है क्योंकि उनके सारे लिखित प्रमाण अनार्य मूल की सेमेटिक लिपियों में लिखे गये ग्रीक लैटिन अभिलेखों और ग्रन्थों पर आधारित हैं।
सेमेटिक लिपियों में भारोपीय परिवार की भाषाओं के लिये उपयुक्त चिह्नों का अभाव सदा से रहा है। अतः भारोपीय परिवार की भाषाओं के इतिहास की सही जानकारी तभी मिल सकती है जब सेमेटिक लिपियों के अनुरूप ग्रीक लैटिन आदि दस्तावेजों को पढ़ने की दुष्टता त्यागी जाय —— जो सेमेटिक मूल के यहूदी होने नहीं देंगे। मूर्धन्य वर्णों को अनार्य घोषित करने का परिणाम जानते हैं?तब ऋग्वेद को रिगवेद कहना पड़ेगा,ऋिषि को रिसी कहेंगे,प्राक्−भारोपीय काल के देवता वरुण तब वरुन बन जायेंगे और लगभग सारे वेदमन्त्रों का कबाड़ा बन जायगा। मूर्धन्य वर्णों को अनार्य घोषित करने वाले यूरोप के नस्लवादियों ने ही तमिल के प्राचीन होने की दन्तकथा खोजी ताकि तमिल से संस्कृत−प्राकृत में मूर्धन्य वर्णों के आयात को सिद्ध कर सकें।
परन्तु १९५२ ईस्वी में माइकल वेण्ट्रिस ने लिनियर−बी लिपि को पढ़ने में सफलता पा ली,यह सिद्ध हो गया कि ईसापूर्व १४५० के आसपास माइसीनियन ग्रीक लोगों की नागरिक सभ्यता का स्वर्णयुग था। उससे पहले माना जाता था कि होमर के साहित्य में वर्णित ग्रीक लोग ही यूरोप के प्राचीनतम भारोपीय परिवार वाले हैं,जिनका काल ट्रॉय के युद्ध के काल का है — ईसापूर्व १२०० का,जब होमर के ग्रीक पात्रों की संस्कृति मुख्यतः पशुचारी थी।
उसी आधार पर कल्पित किया गया कि पशुचारी ऋग्वैदिक आर्यों का काल भी लगभग वही रहा होगा । परन्तु लिनियर−बी लिपि के रहस्योद्घाटन के पश्चात सिद्ध हो गया कि ईसापूर्व १४५० में यूरोप के ग्रीक लोग नागरिक सभ्यता वाले थे तो उनके पशुचारी पूर्वज कम से कम ईसापूर्व २००० या उससे भी पहले के रहे होंगे। किन्तु सिन्धु−सरस्वती घाटी में पशुचारी ऋग्वैदिक आर्यों की संस्कृति हड़प्पाई नागरिक संस्कृति के काल में सम्भव नहीं थी।
अतः माइसीनियन ग्रीक लोगों के पशुचारी पूर्वजों से तादात्म्य बिठाने का एकमात्र उपाय यह है कि ऋग्वैदिक काल को हड़प्पा काल से पहले माना जाय। वरना यह कैसे सम्भव है कि ईसापूर्व १२०० में भारोपीय मूल के ऋग्वैदिक आर्यों की संस्कृति पशुचारी थी और उससे भी पहले ईसापूर्व १४५० में माइसीनियन ग्रीक लोग विकसित नगरों में रहते थे?
किन्तु १९५२ ईस्वी तक वैदिक काल के बारे में असत्य विचारों का वर्चस्व पाठ्यपुस्तकों में स्थापित किया जा चुका था,अतः उसे सुधारने की बजाय माइसीनियन प्रमाणों को दबाने या विकृत करने का षडयन्त्र किया गया । इस परिप्रेक्ष्य में दो तथ्यों पर ध्यान देना आवश्यक हैं —
(१) जिस होमर की काल्पनिक कथाओं को सत्य मानकर केवल इस कारण ऋग्वैदिक युग को ईसापूर्व १२०० का माना गया कि तब होमर के पात्र ऋग्वैदिक पशुचारी स्तर के थे — वह होमर स्वयं ग्रीक नहीं बल्कि सेमेटिक था। ग्रीक में आरम्भिक “ह” के लिये जो चिह्न प्रयुक्त होता था उसे “ईटा” वर्ण कहते हैं और उसका उच्चारण स्वर वाला है,कभी भी “ह” नहीं,और वैसे भी किसी ग्रीक शब्द के आरम्भ में “ह” सम्भव ही नहीं है,जिस कारण सप्तसिन्धु को अवेस्ता के असुरपूजकों ने हप्तहिन्दू लिखा तो उस “हिन्दू” से ग्रीकों ने “इण्डिया” बना लिया।
अतः होमर का वास्तविक नाम ओमर या उमर था जो अनार्य सेमेटिक नाम है,खासकर अरब लोगों में यह नाम प्रचलित है। ईसापूर्व २००० से ही ग्रीस में सेमेटिक लोगों की बस्तियों के प्रमाण मिलते हैं। अतः प्राचीन ग्रीक भाषा को सेमेटिक तरीके से पढ़ने की बीमारी गलत है। यूरोप के भाषाविद् भी मानते हैं कि संस्कृत “भ्रातृ” शब्द में जो “भ” है वह प्राक्−भारोपीय काल के “भ” वाला ही है जिसका प्रमाण है दक्षिण यूरोप की लिपियों में ग्रीक Phrater या लैटिन Frater के “फ” तथा उत्तरी यूरोप की स्लाव Bratu, जर्मन ⁄ ट्यूटन Broder Brother या फारसी बिरादर में “ब” — फ और ब को मिलायेंगे तो संस्कृत का भ ही प्राचीन सिद्ध होता है।
किन्तु यूरोप ने सेमेटिक अल्फाबेट को अपनाया जिसमें भ के लिये कोई चिह्न कभी नहीं रहा। अतः भ को कभी फ तो कभी ब के चिह्नों से दर्शाया गया। किन्तु भाषाविज्ञान जब सिद्ध करता है कि इस शब्द के लिखित रूप के फ ⁄ ब का उच्चारण वस्तुतः भ था तो यह मानने का क्या आधार है कि वास्तविक बोलचाल में भी सेमेटिक लिपि वाला फ⁄ब ही प्रयुक्त था?
आज से दो या ढाई सहस्र वर्ष पूर्व के ग्रीक या लैटिन समाजों में कितने प्रतिशत लोग साक्षर थे जिन्होंने सेमेटिक लिपि के अनुसार अपनी भारोपीय भाषा को बिगाड़कर गलत उच्चारण करना सीख लिया था?जो साक्षर थे क्या वे भी सही भारोपीय उच्चारण वास्तविक बोलचाल में करते थे,या विदेशी सेमेटिक लिपि के अनुरूप गलत ग्रीक ⁄ लैटिन बोलते थे?
(२) उक्त प्रश्न का हल मिलता है १९५२ ईस्वी में पढ़ी गयी मायसीनियाई ग्रीक लिपि के रहस्योद्घाटन में। वह लिपि किसी भी प्रकार के सेमेटिक प्रभाव से पूर्णतया मुक्त थी और ब्राह्मी एवं देवनागरी,तमिल आदि भारतीय लिपियों की तरह पूर्णतया “सिलेबिक” अर्थात् “आक्षरिक” थी । इसे समझने से पहले “अक्षर” के सही अर्थ को समझना आवश्यक है जिसे आधुनिक युग में विकृत कर दिया गया है।
जो बोली जाय उसे “भाषा” कहते हैं,उसके लिखित स्वरूप को “भाषा” नहीं कहते। “आक्षरिक” लिपियों को छोड़कर संसार की सभी लिपियों के उच्चारित तथा लिखित रूपों में परस्पर विभेद रहता ही है। अंग्रेजी में भी Leicester को लीस्टर बोलते हैं । कई बार लिखित स्वरूप पुराने उच्चारण को दर्शाते हैं,किन्तु लिपि विदेशी हो तो वास्तविक भाषा को सही तरीके से व्यक्त ही नहीं कर पाती।
किसी भी भाषा को सही तरीके से लिखित रूप में व्यक्त करना तभी सम्भव है जब लिपि का उस भाषा से सहोदर वाला सम्बन्ध हो। किसी भी भाषा के न्यूनतम भाषिक ईकाई को “अक्षर” या सिलेबल कहते हैं,जिसका और भी क्षरण सम्भव न हो । बिना स्वर के आप बोल ही नहीं सकते,और एक से अधिक सवर हों तो एक से अधिक भाषिक ईकाई ⁄ खण्ड बन जायेंगे। अतः न्यूनतम भाषिक ईकाई या “अक्षर” मे एक,और केवल एक,स्वर का रहना अनिवार्य है। व्यञ्जनों की संख्या शून्य भी हो सकती है और एक या दो या तीन आदि भी। पृथक तौर पर किसी व्यञ्जन का उच्चारण सम्भव ही नहीं। अतः केवल व्यञ्जन से कोई “अक्षर” बन ही नहीं सकता।
संस्कृत छन्दशास्त्र के अनुसार पद्य दो प्रकार के होते हैं — “वृत्त” और “जाति”। “वृत्त” के छन्द में चरणों की गणना अक्षरों की संख्या द्वारा की जाती है,तथा “जाति” के छन्द में चरणों की गणना मात्राओं की संख्या द्वारा की जाती है। गायत्री,जगती,अनुष्टुप् आदि वैदिक छन्दों को “वृत्त” कहा जाता है क्योंकि उनका आधार मात्रा नहीं बल्कि अक्षर होते हैं। उदाहरणार्थ गायत्री छन्द में आठ−आठ अक्षरों के तीन चरण होते हैं। पहले चरण में एक अक्षर न्यून हो तो उसे निचृद्−गायत्री छन्द कहते हैं जो गायत्री मन्त्र का छन्द है।
आजकल बहुत से पण्डित भी गायत्री मन्त्र के छन्द को भी गायत्री छन्द मानकर कहते हैं कि चौबीसवाँ अक्षर गुप्त है, यद्यपि वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि इस मन्त्र का छन्द निचृद्−गायत्री है। किसी मन्त्र का जप या अन्य प्रयोग करने से पहले विनियोग अनिवार्य है जिसमें छन्द का सही नाम भी संकल्प का भाग होता है । विनियोग अशुद्ध होनेपर मन्त्र का फल नष्ट होता है।
ब्राह्मी लिपि के सैकड़ो संयुक्ताक्षरों को कैसे लिखते थे यह किसी एक पुस्तक में नहीं मिलेगा,इसका सबसे सुगम तरीका है मेरे “लेखपट्ट” सॉफ्टवेयर में देवनागरी कीबोर्ड की नकल में ब्राह्मी बिना सीखे उसे देवनागरी मानकर टाइप करते जायें — वे सारे चिह्न माइक्रोसॉफ्ट ने ब्राह्मी के विशेषज्ञों की सहायता से बनाये,मैंने केवल माइक्रोसॉफ्ट के उस फॉण्ट में प्राचीन और आधुनिक भारतीय लिपियों को देवनागरी कीबोर्ड की नकल में टाइप करने वाला सॉफ्टवेयर बनाया।
एक श्वास में जो न्यूनतम भाषिक ध्वनि निकलती है उसे एक अक्षर कहते हैं तो उसके लिये लिपि में भी एक ही चिह्न होना चाहिये। प्राचीन समाजों में ऐसा ही था,चित्रलिपि छोड़कर। ऐसे अधिकांश अक्षरों (संयुक्ताक्षरों) के लिखित सङ्केतों में प्राधान्य व्यञ्जनों का ही दिखेगा,अधिकांश स्वरों को आप केवल मात्राओं के रूप में पायेंगे जो व्यञ्जनों पर ही अध्यारोपित किये जाते हैं। सभी प्राचीन और अर्वाचीन भारतीय लिपियों की यही परिपाटी है जो वैज्ञानिक भी है,हालाँकि ऐसी लिपि आम लोगों के लिये कठिन है।
प्राचीन मिस्र में चित्रलिपि के साथ−साथ उपरोक्त आक्षरिक (सिलेबिक) लिपि का भी प्रचलन था जिसमें भारतीय लिपियों की तरह स्वरों को मात्रा बनाकर व्यञ्जनों पर ही अध्यारोपित किया जाता था किन्तु अधिकांशतः परिपाटी यह बन गयी कि स्वर−मात्राओं को लिखा ही नहीं जाता था और समृति के आधार पर लोग उन लिखित शब्दों में स्वरों को जोड़कर सही उच्चारण कर लेते थे। आज भी अरबी, फारसी, उर्दू आदि में कुछ−कुछ वैसी ही परिपाटी बची हुयी है जो लिपि के सरलीकरण का परिणाम है।
जिस प्रकार संयुक्ताक्षरों सहित लिखित चिह्नों के विशाल भण्डार के साथ−साथ ही शुद्ध स्वरों−व्यञ्जनों वाली वर्णमाला भी वैदिक काल से ही भारत में थी — जैसा कि ५३ अक्षरों वाले अक्ष का वर्णन ऋग्वेद के दशम मण्डल में है,वैसे ही प्राचीन मिस्र में भी शुद्ध स्वरों−व्यञ्जनों वाली वर्णमाला का प्रचलन भी था। किन्तु आधुनिक पाश्चात्य लेखक प्राचीन मिस्र में चित्रलिपि पर तो दिल खोलकर कलम चलाते हैं और संस्कृत की तरह मिस्र में आक्षरिक (सिलेबिक) पर या तो चुप्पी लगा लेते हैं या कोने में एक वाक्य में उसे डाल देते हैं।
मुझे कष्ट तब पँहुचा जब माइसिनियन ग्रीक लिपि के अल्फाबेटिक न होकर आक्षरिक (सिलेबिक) होने का तथ्य प्रमाणित हो गया तो अंग्रेजी साहित्य के स्नातकोत्तर भाषाविज्ञान पाठ्यपुस्तक में मुझे पढ़ने को मिला कि माइसिनियन ग्रीक लिपि के लिये आक्षरिक (सिलेबिक) पद्धति अनुपयुक्त थी। कोई मूर्ख ऐसा लिखता तो कष्ट नहीं पँहुचता,अमरीका के भाषाविद् Lerhmann महोदय की पुस्तक Historical Linguistics में यह बकवास मैंने ३७ वर्ष पहले पढ़ी थी । स्पष्ट है कि लेखक मूर्ख नहीं,दुष्ट थे। उसी पुस्तक में यह भी मिला कि प्राक्−भारोपीय में जो “भ” था वह असल में “ब् ह्” था!प्राक्−भारोपीय को संस्कृत से यथासम्भव दूर दिखाने की व्यग्रता साफ दिखी!
इस बदमाशी का कारण जानना आवश्यक है,बीमारी का कारण नहीं पता रहेगा तो समाधान कैसे करेंगे?संस्कृत पूर्णतया मृत भाषा होती और वैदिक संस्कृति आज लुप्त रहती तो यही लोग संस्कृत और वैदिक संस्कृति से द्वेष नहीं दिखाते। किन्तु अब्रह्म को पूर्वज मानने वाले सेमेटिक लोग ब्रह्मवादियों की भाषा और संस्कृति को भला प्राचीन कैसे मान सकते हैं!इन प्रोफेसरों का नस्लवाद,सम्प्रदायवाद,भाषावाद और कूपमण्डूकवाद उनके अकादमिक प्रोफेशनलिज्म पर हावी हो जाता है।
यहूदियों की भाषा हिब्रू है,इस शब्द “हिब्रू” के उचचारण में ‘ह’ बोला नहीं जाता । प्रमाण सुनकर जानना चाहते हैं तो यहूदियाँ का उच्चारण सुन लें — https://forvo.com/word/%D7%A2%D7%91%D7%A8%D7%99%D7%AA/
“हिब्रू” का वास्तविक उच्चारण जिस धातु से बना है उसका सम्बन्ध “इब्राहिम” से है,प्रारम्भिक उच्चारण था “इब्रूः” जो संस्कृत इभ् से निःसृत होकर इभ्रूः और बाद में इब्रूः बना। इसका धात्वार्थ था “काले नस्ल के लोग”!ये लोग प्राचीन मिस्र में गुलाम थे जिनको लेकर पैगम्बर मूसा इजरायल भाग आये। “इजरायल” भी “इजरा” से बना जिसे लिपि में ‘हिजरा” लिखते थे। अरबी में भी यही लिखते थे और अर्थ भी यही था — ‘पलायन’।
मक्का के लोगों ने पैगम्बर मुहम्मद को खदेड़ कर भगाया तो वे पलायन अर्थात् हिज्र करके मदीना चले गये जिस खुशी में हिजरी सम्वत् आरम्भ कर दिये। उसी तरह पैगम्बर मूसा हिज्र करके हिजरायल गये । आरम्भिक चिह्न के ऊँटपटाँग प्रयोग से कभी इज्र तो कभी हिज्र लिखते थे। ये इभ्रूः लोग जब मिस्र में दास थे तो पठन−पाठन की की सुविधा से वञ्चित थे।
मिस्र की लिपि दो प्रकार की थी — Hieratic जो केवल पुरोहित वर्ग जानता था,यह प्राचीन लिपि थी क्योंकि धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त भाषा और लिपि में परिवर्तनों का पुरोहित वर्ग विरोध करता है,और Demotic जो सांसारिक कार्यों में प्रयुक्त हेती थी। Hieratic में चित्रलिपि तथा आक्षरिक लिपि का मिश्रित प्रयोग होता था।
Demotic में सरलीकृत वर्णमाला का वर्चस्व था जिसमें व्यञ्जनों को लिखा जाता था और स्वरों को तभी लिपिबद्ध करते थे जब लिपिबद्ध न करने से गलत उचचारण का खतरा होता था,वरना स्वरों का उच्चारण स्मृति द्वारा ही करते थे। जैसे कि यदि मैं “उच्चारण” शब्द को यदि “उच्चरण” लिख दूँ तो आपलोग स्मृति द्वारा “च्च” पर आकार डालकर सही पढ़ लेंगे क्योंकि भाषा में “उच्चरण” कोई पृथक शब्द है ही नहीं।
किन्तु यदि “उच्चरण” एक भिन्न अर्थ वाला पृथक शब्द होता तो मुझे “उच्चारण” शब्द को “उच्चारण” ही लिखना पड़ता,अर्थात् स्वर का प्रयोग लिपि में करना ही पड़ता। अधिकांश मामलों में बिना स्वर लिखे ही Demotic में लोग काम चला लेते थे,इसी से हिब्रू लिपि बनी।
बाद में यहूदियों और उनके भाई अरब कबीलाइयों ने काल्पनिक नियम बनाया कि सारे हिब्रू और अरबी शब्दों के मूल धातुओं में बिना किसी स्वर के केवल तीन व्यञ्जन ही होते हैं। जैसे कि अरबी धातु “क् त् ब्” से किताब,कातिब,कुतुब,म−कतबा आदि शब्द बने।
बिना किसी स्वर के केवल व्यञ्जन को आप उच्चारित ही नहीं कर सकते । भाषा वह है जो उच्चारित की जाय,लेखन का आविष्कार तो बाद में हुआ । अतःसेमेटिक में बिना किसी स्वर के केवल तीन व्यञ्जन वाला नियम बहुत बाद का है और अवैज्ञानिक है ।
मिस्र से जान बचाकर भागने वाले इभ्रू दासों ने मिस्री Demotic की टाँग तोड़कर जो थोड़ा सा सरलीकृत लेखन सीख लिया था उसी से मूर्खों की सेमेटिक अल्फाबेट बनी। इन लोगों के पूर्वज ब्रह्मविरोधी अब्रह्मिक सम्प्रदायों के थे,तन्त्र में सर्वतोभद्रचक्र के अ−व−क−ह−ड से भौण्डे सरलीकरण से बना A−B−C−D सेमेटिक अल्फाबेट का!क−ह को जोड़कर C बना,स और क के लिये पृथक चिह्न थे,अतः C न तो क के लिये था और न ही स के लिये,आरम्भ में यह च के लिये था। ऐसे ही मूर्ख गड़ेरियों की अशुद्ध लिपियों और ऊँटपटाँग सम्प्रदायों को सच्चे धर्म और वैज्ञानिक भाषा पर थोपने का षडयन्त्र चलता रहा है।
कलियुग में इन गड़ेरियों ने लूटपाट करके पूरे विश्व पर आधिपत्य जमा लिया और अब इतिहास में उल्टी गंगा बहाने में लगे हैं। मिस्र के पिरामिड में वैदिक यज्ञ और उसके धूँये से देवताओं को आहार मिलने का भित्तिचित्र मिलता है तो ऑक्सफर्ड के प्रोफेसर जी⋅एम⋅ राबर्ट्स लिखते हैं कि मिस्र के पुरोहित आग में कोकेन जलाकर उसका धूँआ सूँघते थे!इस मूर्ख को इतना भी पता नहीं था कि दक्षिण अमरीका से बाहर कोकेन का ज्ञान किसी को तबतक नहीं हुआ जबतक दक्षिण अमरीका पर स्पेन ने आधिपत्य नहीं जमाया।
सुकरात के समकालीन ग्रीक नाटककार अरिस्टोफेनीस जब अपने नाटक The Birds में यज्ञ के धूँये से देवताओं को आहार मिलने का वर्णन करते हैं तो यूरोप के सभी विश्वविद्यालयों में १९वीं शती में अरिस्टोफेनीस का अध्ययन अनिवार्य होने के बावजूद एक भी भाषावैज्ञानिक को उस ग्रन्थ की जानकारी नहीं थी और बेशर्मी से लिखते आये हैं कि प्राक्−भारोपीय काल में केवल वैदिक देवताओं के लिये जो यज्ञ होते थे वे बाइबिल की परम्परा में केवल स्तुति वाले थे और उनमें कर्मकाण्ड वाला हवन बिल्कुल नहीं था!
हड़प्पाई स्थल कालीबंगा (कालीभंगा = छिन्नमस्ता) में १६ यज्ञकुण्ड और उनके मध्य में वैदिक यूप मिले तो वामी इतिहासकार रोमिला थापर ने लिखा कि वे तन्दूर की भट्ठियाँ थीं। रोमिला थापर अच्छी तरह जानती हैं कि तन्दूर की भट्ठी में वैदिक यूप नहीं होते। जानबूझकर झूठ लिखतीं हैं । उनको संस्कृत नहीं आती,अतः प्राचीन युग पर उनको लिखने का कोई नैतिक अधिकार नहीं और उनकी सारी डिग्रियाँ वापस ले लेनी चाहिये।
इसी षडयन्त्र के अन्तर्गत केवल ऋग्वेद को वर्ल्ड हिरिटेज में रखा गया — अन्य तीनों वेद विश्व की विरासत से बाहर हैं!इन दुष्टों को पता है कि ऋग्वेद आरम्भ ही होता है कर्मकाण्डीय यज्ञ और उसके देवता अग्नि की स्तुति से!फिर भी झूठा प्रचार करते हैं कि ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म में अनार्य कर्मकाण्डों को बाद में ठूँस दिया!
भारत से बाहर ब्राह्मण नहीं मिलते अतः आक्रमणकारी आर्यों के साथ ब्राह्मण नहीं आये थे,ब्राह्मण भारत के अनार्य थे। और दूसरी तरफ भारत के गैर−ब्राह्मणों को सिखाते हैं कि मनुवादी ब्राह्मण अभारतीय हैं जिनको मारपीटकर भगा देना चाहिये ताकि मूलनिवासियों का कब्जा हो जाय। अर्थात् ब्राह्मण न तो भारतीय हैं और न विदेशी,कहीं के नहीं हैं!
अतः यह प्रस्ताव सुनने में तो अच्छा लगता है कि सरकार को भारतीय भाषाओं की एकता पर शोध कराना चाहिये, किन्तु कोई भी सरकार ऐसी नहीं करेगी। सत का युग नहीं,कलि वालों के वोट का युग है। राजधन से वैदिक विद्याओं का केवल विनाश होता है,विकास नहीं। मन्दिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त कराया जाय तो उनके धन से वैदिक विद्याओं का विकास सम्भव है। तबतक हमलोग अपने संसाधनों से जितना सम्भव हो उतना शोधकार्य करें यही एकमात्र उपाय है सत्य के उद्घाटन का।