शहरी माओवाद का खात्मा जरुरी है

The Narrative World    01-Nov-2023   
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अर्बन नक्सलवाद इस देश के लिए नक्सलवाद से कहीं अधिक घातक है। यदि यह कहा जाए कि इस शब्द के विषय में देश की आम जनता ने पहली बार तब सुना होगा जब भीमा कोरेगांव हिंसा में
'अर्बन नक्सलियों' की गिरफ्तारी की गई थी तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। इस बहुचर्चित शब्द को समझने से पहले यह समझना ज़रूरी है कि अर्बन नक्सल के 'नक्सल' की उतपत्ति कैसे हुई।


दरअसल साल 1967 में पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार थी। जगह-जगह किसानों द्वारा आंदोलन किए जा रहे थे। आंदोलन शांतिपूर्वक चल रहा था और इसमें कोई भी हताहत नहीं हुआ। लेकिन मई महीने की 25 तारीख को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में जमींदारों के खिलाफ गांव के ही कुछ लोगों ने हथियार उठा लिए।


यदि सिर्फ़ हथियार उठे होते तो ठीक भी था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, उस रोज हथियार चलाए भी गए। दोनों ओर से जन-धन की हानि हुई। इस हिंसक आंदोलन का नेतृत्व चारु मजूमदार, कानू सान्याल और जंगल संथाल ने किया। हिंसक आंदोलन से जुड़े हुए लोगों का मानना था कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने मूल उद्देश्य को भूल चुकी है, इसलिए उन्हें हिंसा का रास्ता अपनाना पड़ा।


नक्सलबाड़ी का यह हिंसक आंदोलन जल्द ही दबा दिया गया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कुछ लोगों ने इस तरह के हिंसक आंदोलन को एक बेहतर तरीका माना, और ऐसे ही लोगों ने छोटे-छोटे कम्युनिस्ट समूहों का गठन किया।


चूंकि ये लोग स्वयं को नक्सलबाड़ी की घटना से प्रेरित व उसकी धारा में ही काम करना चाहते थे इसलिए इनके संगठन को नक्सलवादी व इन्हें नक्सली कहा जाने लगा। यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि नक्सलियों की मूल विचारधारा माओवाद की ही है, जो आतंक के माध्यम से सत्ता हासिल करना चाहते हैं, इसीलिए इन्हें माओवादी भी कहा जाता है।


नक्सलवाद को अधिक गहराई से समझने के लिए हमें इसके पर्याय माओवाद को भी समझना होगा, जिसके लिए ज़रूरी है माओ को समझना। माओ यानी माओ-त्से-तुंग, यह कम्युनिस्ट नेता जो कि अपने दौर में चीन में तानाशाही का दूसरा नाम बन गया था।

माओ चीन में तानाशाही करने के लिए हिंसा को प्रमुख साधन मानता था, और अब यही हो रहा है भारत में। यहाँ रहने वाले माओवादी (नक्सली) चाहते हैं कि उनका हर जगह कब्ज़ा हो, यहाँ तक कि सत्ता में भी और इसके लिए वह हिंसा के लिए भी तैयार होते हैं।


माओवाद पर गहन अध्ययन करने वाले जानकर मानते हैं कि शहरी नक्सलवाद की असल शुरुआत 80 के दशक में हुई थी इसी दौर में नक्सलवाद ने शिक्षित लोगों शिक्षा के केन्द्रों पर अपनी जड़ें फैलाना शुरू कर दिया था। लेकिन 2004 आते-आते ये जड़ें इतनी फैल गईं थीं कि 'अर्बन नक्सलवाद' बड़े शहरों तक अपनी बात आसानी से पहुंचा सकता था।


माओवाद को बढ़ाने व उसकी शक्ति में इज़ाफ़ा करने के लिए वर्ष 2004 में ही सीपीआई (माओवादी) व सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) तथा माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर को मिलाकर सीपीआईएम नामक संगठन बनाया गया, जो कि तीन अलग-अलग रणनीतियों के माध्यम से भारत में निर्वाचित सरकार को हटाने के लिये हिंसक विचारधारा का समर्थन करती है। जिसमें अपने लोगों को संगठन से जोड़ना व उन्हें प्रशिक्षित करना, नक्सलवाद को हर क्षेत्र में आगे बढ़ाना, आंदोलन के लिए अन्य ज़रूरतें जैसे धन आदि की पूर्ति करना शामिल है।


बहरहाल, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) से प्राप्त दस्तावेज के बाद से ही जांच एजेंसियों की नज़र संदिग्धों पर थी। लेकिन आम जनता की नज़र में 2004 के बाद से यह मुद्दा दब गया था। वर्ष 2018 में भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में पुणे पुलिस द्वारा मुख्य रूप से पांच तथाकथित बुद्धिजीवियों सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वरनोन गोन्जाल्विस, पी वरवरा राव तथा अरुण फरेरा को गिरफ्तार किया गया।


इन सभी को महाराष्‍ट्र पुलिस ने यह कहते हुए गिरफ्तार किया था कि इनके माओवादियों से संबंध हैं। ये सभी आरोपी सरकार को अस्थिर करने के लिए माओवादियों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ये पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी, विचारक, कवि, पत्रकार और समाज के सोचने-समझने वाले वो लोग हैं, जिन पर आरोप है कि ये लोग ना सिर्फ भीमा कोरेगांव हिंसा व नक्सलियों से जुड़े हैं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मारने की साजिश का हिस्सा भी हैं, यानी ये वो लोग हैं।


दरअसल पुणे पुलिस का दावा है कि उसे इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के ठिकानों पर छापेमारी के दौरान ऐसे दस्तावेज प्राप्त हुए थे जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या की प्लानिंग के विषय में लिखा हुआ था।


अर्बन नक्सल मसले पर इसी शीर्षक अर्बन नक्सलपर पुस्तक लिखने वाले विवेक अग्निहोत्री ने अर्बन नक्सल शब्द के अर्थ और इसकी अवधारणा के बारे में गहराई से बताते हुए एक आर्टिकल में लिखा था कि ये देश के एक तरह से अदृश्य दुश्मन' हैं', इनमें से कई को पकड़ा जा चुका है, जबकि कुछ लोग विद्रोह फैलाने के आरोप में पुलिस के राडार पर हैं।


इन सभी में एक बात कॉमन है, जो बेहद खतरनाक है। इनमें देखा गया है कि ये सभी शहरी बुद्धिजीवी या फिर कार्यकर्ता हैं, इन शहरी नक्सलियों की उपलब्धियों से एक बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये सभी सामाजिक मुद्दों के प्रति चिंतित होने का सिर्फ़ और सिर्फ़ नाटक करते हैं, साथ ही ये युवाओं को भी प्रभावित करते हैं।


विवेक अग्निहोत्री ने अपने एक इंटरव्यू में यह भी कहा था कि मेरा मानना है ये कभी भी सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजने की कोशिश नहीं करते, ये सिर्फ जनता को इकट्ठा करके विरोध प्रदर्शन के जरिये अपने संगठन का फ़ायदा निकालने की कोशिश करते हैं। साथ ही ये छात्रों का ब्रेनवाश करके आंदोलन करने व विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं।'


दरअसल अर्बन नक्सली, नक्सलवाद (माओवाद) को आगे बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं, ये सभी शिक्षित वर्ग के होते हैं, तो ये समाज के किसी भी वर्ग को अपनी बातों से प्रभावित करके नक्सलवाद को बढ़ाते रहते हैं, ग्रामीण क्षेत्रों से शहर में रहने आए निम्न या मध्यम वर्ग के छात्र इनके प्रमुख टारगेट होते हैं, यदि ये छात्र दलित या जनजाति हैं तो फिर इनका काम और आसान हो जाता है।


चूंकि गाँव से शहर आने वाले अधिकांश लोग भोले-भाले होते हैं, जिसका ब्रेनवॉश आसानी से किया जा सकता है, तो इन्हें नक्सलवाद का पाठ पढ़ाया जाता है, और फिर हिंसक प्रदर्शन के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।


भीमा कोरेगांव घटना से एक बात तो साफ हो चुकी है कि अब माओवादियों ने शहर में अपनी इतनी पकड़ बना ली है कि हिंसा भड़काई जा सके। हालांकि इनकी सफलता के बारे में कहें तो शायद ही कोई उल्लेखनीय कामयाबी इतने सालों में उन्हें मिल पाई हो, लेकिन हाँ यह बात भी सच है कि नक्सलीयों ने (माओवादी) कुछ शहरों जैसे रायपुर, सूरत, दुर्ग, फरीदाद और बस्तर के कुछ इलाकों में अपने अड्डे बना लिए हैं।


साथ ही कुछ रिपोर्ट्स ऐसी भी आई थीं कि कई अर्ध शहरी इलाकों जहाँ मज़दूरों में थोड़ा सा भी असंतोष है वहां भी इन्हें मजबूती मिली है। लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावी और नजर आने वाला असर दिखता है विरोध प्रदर्शनों या आंदोलनों में जो कि शहरी इलाकों में सरकार के खिलाफ किये जाते हैं, इनकी साफ तौर पर मजबूत मौजूदगी पश्चिमी बंगाल के सिंगूर और नंदीग्राम इलाकों में नजर आयी जहां कहा जाता है कि उन्होंने आंदोलन और असंतोष को भड़काने का काम किया।


अब तक माओवादियों ने कभी भी शहरी क्षेत्रों में सीधे हमले नहीं किए हैं, लेकिन हिंसा भड़काने का प्रयास बखूबी निभाया है, उदाहरण के लिए देखें तो उड़ीसा के नयागढ़ और दासपल्ला में 15 फरवरी 2008 को हुए हमले और गजपति जिले के उदयगिरी में 24 मार्च 2006 को उड़ीसा राज्य पुलिस बल पर हुए हमले इसी बात की गवाही देते हैं।


हालांकि इस तरह के हमले काफी कम हैं, माओवादी सारा ध्यान शहरी क्षेत्रों में छिपकर गतिविधियां चलाने पर केन्द्रित किये हुए हैं। इसी तरह से बिहार के औरंगाबाद या जहानाबाद जेल में हुए हमले शहरी इलाकों में नक्सली खतरे की याद दिलाते हैं।

फ़िलहाल शहरी क्षेत्रों में नक्सलियों (माओवादीयों) की अधिकांश गतिविधि लिए खुद के लिए आत्मघाती साबित हुई है क्योंकि इसमें उन्हें अपने कई चोटी के नेताओं को खोना पड़ा है क्योंकि गौतम नवलखा जैसे अनेक लोगों को उनके शहरी ठिकानों से सुरक्षा बलों ने गिरफ्तार कर लिया है।


शहरी क्षेत्रों में ठीक से काम न कर पाने और अपने कब्जे वाले इलाकों में हुए भारी नुकसान की वजह से माओवादियों को पीछे हटना पड़ा है और उन्होंने इस मुश्किल हालात के बीच अपने शहरी विस्तार की योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।


कुल मिलाकर देखें तो सरकार ने 'ऑपरेशन ऑलआउट' की तर्ज पर नक्सलियों को ख़त्म करने के लिए प्लान तैयार किया है, इसके साथ ही कई अन्य कदम भी उठाये गये हैं जैसे कि भीतरी इलाकों में सड़कों का निर्माण, बेहतर चौकसी, लगातार चलने वाले कॉम्बिंग ऑपरेशन और प्रभावित इलाकों में ज्यादा सुरक्षा बलों की मौजूदगी।

इन सबसे माओवादियों को तगड़ा झटका लगा है, अकेले साल 2018 में ही सुरक्षाबलों ने 140 माओवादियों को मार गिराया था जबकि पिछले छः सालों में सैकड़ों माओवादियों ने सरेंडर किया है।


नक्सलियों के मारे जाने से अर्बन नक्सलियों में कहीं न कहीं खौफ़ तो बढ़ा ही होगा, अब ये काम तो कर रहे हैं लेकिन दबे पांव, हालांकि सुरक्षा एजेंसियों की नज़र प्रत्येक संदिग्ध लोगों पर होगी, लेकिन फिर भी जब समाज़सेवा का चोला ओढ़कर नक्सली संगठन को पोषित करने का प्रयास किया जा रहा हो तो बिना पुख़्ता सबूत व पूरे गैंग की जानकारी लिए बिना सुरक्षा बल भी कोई ठोस कदम उठाने से कतराते हैं।


बहरहाल मुद्दा यह है कि अर्बन नक्सलवाद की जड़ें आहिस्ते-आहिस्ते ही सही कमज़ोर हो रही हैं, इसे पुर्णतः समाप्त करने के लिए प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों को जागरूक करने का प्रयास करना होगा, क्योंकि आतंकवाद तो देश के बाहर से हम पर हमला करता है, लेकिन नक्सलवाद (माओवाद) हमारे या आपके घर के आसपास भी पनप सकता है जो कि पूरे समाज के लिए घातक साबित हो सकता है।


हालांकि एक बात तो स्पष्ट नज़र आ रही है कि देश में नक्सलवाद और वामपंथ के प्रति काफी जागरूकता आई है, लेकिन उस इकोसिस्टम का प्रयास अभी भी जारी है कि नक्सलियों और शहरी नक्सलियों को एक्टिविस्ट ही कहा जाए। नक्सलियों की मदद करने वालों को पुलिस और कानून से बचाने के लिए कैम्पेन चलाया जाए, लेकिन जिस गति वामपंथ और नक्सलवाद का शहरी रूप उजागर हो रहा है वह दिन दूर नहीं है कि देश में बैठे अर्बन नक्सलियों के चेहरे का नक़ाब उतर कर सबके सामने आ जाएगा, और अर्बन नक्सलवाद (माओवाद) का सफाया हो जाएगा।