जनजातीय बच्चों को जबरदस्ती ले जाते हैं माओवादी, देते हैं माओवादी आतंकी बनने की ट्रेनिंग

बच्चों का अपहरण करके माओवादी उन्हें अपने साथ जंगलों में रहने को ना सिर्फ मजबूर करते हैं बल्कि इतनी छोटी उम्र में ही इनका मानसिक और शारीरिक शोषण भी किया जाता है। साथ ही इतनी कम उम्र से हीं इनके दिमाग को लाल आतंक के दिग्भ्रमित विचारधारा से पोषित किया जाता है

The Narrative World    23-Nov-2023   
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यूं तो कम्युनिस्ट आतंकियों के शहरी पैरोकार वामपंथियों के संगठन को जनजातीय इलाकों में जल जंगल और जमीन की रक्षा करने वाला समूह बताते नहीं थकते हैं। बड़े
-बड़े लेखों और आयोजित सेमिनारों के माध्यम से इस माओवादी हिंसा को जनजातीय समर्थन मिलने के लंबे चौड़े दावे किए जाते रहे हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि माओवादी संगठनों में अधिकांश माओवादी बंदूक के जोर पर बचपन में ही संगठन में शामिल कर लिए जाते हैं।


घने जंगलों के बीच सुदूर पिछड़े इलाकों के जनजातीय समूहों के इन बच्चों से कम्युनिस्ट आतंकियों द्वारा ना सिर्फ इनका बचपन छीन लिया जाता है बल्कि इतनी छोटी उम्र में हीं इन्हें अपने मां-बाप से दूर करके उनके हाथों में लाल आतंक के पर्चे और बंदूकें थमा दी जाती हैं। विडंबना तो यह है कि इन मासूम बच्चों से उनका बचपन छीनने वाले माओवादी मां-बाप की मृत्यु हो जाने पर भी इन लोगों को अंत्येष्टि में शामिल होने से भी वंचित रखते हैं।


यह सारी बातें वातानुकूलित कमरों के भीतर बैठकर स्वघोषित सामाजिक समानता के प्रणेता बने बुद्धिजीवियों द्वारा कागज पर बनाई गई एक विशेष विचारधारा को पोषित करने वाले रणनीति का हिस्सा नहीं, अपितु उन लोगों की आपबीती है जिनसे इस बर्बर संगठन के आतंकियों ने इनका बचपन छीन लिया है।


दरअसल यह सारा सच बस्तर पुलिस द्वारा किए गए एक सर्वे में 5-7 वर्षो में आत्मसमर्पण किए गए माओवादियों की जबानी निकल कर बाहर आया था, जिसे बस्तर पुलिस ने वर्ष २०२१ में पटल पर रखा था। माओवादी संगठनों के बर्बर चेहरे को बेनक़ाब करता यह सर्वे उन माओवादियों पर किया गया था, जिन पर सरकार ने 5 लाख या उससे ज्यादा का इनाम घोषित कर रखा था।


इस सर्वे में यह निकल कर आया था कि माओवादी अपनी संगठन की शक्ति को बढ़ाने के लिए भोले-भाले जनजातीय समूहों में से 15 वर्ष के बच्चों को भी जबरन बंदूक की नोक पर उठा लेते हैं। इन बच्चों में जनजातीय समूहों की लड़कियां भी शामिल होती हैं।


बच्चों का अपहरण करके माओवादी उन्हें अपने साथ जंगलों में रहने को ना सिर्फ मजबूर करते हैं बल्कि इतनी छोटी उम्र में ही इनका मानसिक और शारीरिक शोषण भी किया जाता है। साथ ही इतनी कम उम्र से हीं इनके दिमाग को लाल आतंक के दिग्भ्रमित विचारधारा से पोषित किया जाता है।


बंदूक के जोर पर संगठन में शामिल किए गए इन बच्चों को अपनी मर्जी से कहीं भी आने-जाने की अनुमति नहीं होती इन्हें रोजमर्रा के जीवन में स्वयं को जिंदा रखने की चुनौती के साथ-साथ शीर्ष माओवादी कैडरों की जरूरतों का भी ध्यान रखना पड़ता है। करीबन 2 वर्ष के जबरन कराए जाने वाले कड़े प्रशिक्षण के बाद इनके हाथों में बंदूके थमा दी जाती है और जब तक इनकी उम्र 20 वर्ष की होती है तब तक यह स्वचालित हथियारों को चलाने में भी माहिर हो चुके होते हैं।


अगर यह सब कुछ होने के बाद भी माओवादी आंदोलन के हितों की पूर्ति नहीं होती है तो युवावस्था में कदम रख चुके इन लोगों को नपुंसक बनाने के लिए दवाइयों का प्रयोग भी किया जाता है। इस संदर्भ में संगठन के नियम इतने कड़े हैं कि शायद ही कोई इससे बच सकता है।


जनजातीय क्षेत्रों के इन युवक युवतियों के साथ तथाकथित लाल क्रांति लाने के के नाम पर यह अमानवीय प्रयोग उस माओवादी नेतृत्व को बड़ा ही सहज लगता है जो अमूमन स्वयं को इससे अलग रखता है। दिलचस्प बात तो यह है कि सामाजिक समानता की दुहाई देने वाले इन कम्युनिस्ट आतंकियों के शीर्ष नेतृत्व ने लाल गलियारे के अंतर्गत सदैव ही तेलुगू वर्चस्व को बढ़ावा दिया है।


इस तथाकथित क्रांति का जबरन हिस्सा बनाए गए छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, बंगाल और महाराष्ट्र के जनजातीय समूहों के लोगों को संगठन स्तर पर हमेशा ही भेदभाव का सामना करना पड़ता है। झारखंड से लेकर छत्तीसगढ़ और उड़ीसा तक आत्मसमर्पण करने वाले न जाने कितने ही क्षेत्रीय माओवादी इस संदर्भ में मुखर होकर माओवादी शीर्ष नेतृत्व की आलोचना कर चुके हैं।


वास्तविकता में बंदूक के जोर पर लोकतंत्रीय व्यवस्था को बदल कर तानाशाही वामपंथी सत्ता व्यवस्था की स्थापना करने का ख्वाब बुननें वाला यह संगठन क्षेत्रवाद के वर्चस्व को स्थापित कर स्थानीय जनजातीय समूहों के ऊपर हिंसा और शोषण करने वाला नरपिशाचों का एक समूह भर ही रह गया है।


इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाए कि अपने विदेशी आकाओं से मिलने वाली वित्तीय सहायता और हथियारों के दम पर जबरन स्थानीय जनजातीय समूहों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में बंदूकें थमा कर इनके शहरी पैरोकार जिस लाल क्रांति का सपना वर्षो से देख रहे हैं वह कभी भी साकार होने नहीं जा रहा है। माओवादी नेतृत्व जितनी जल्दी इस बात को समझ ले उतना ही यह उनके हित में होगा।