भारत-चीन युद्ध: नेहरू एवं उनके कम्युनिस्ट दोस्त की सबसे बड़ी विफलता

नेहरू अपने मित्र मेनन को रक्षा मंत्री के पद से हटाना नहीं चाहते थे। जबकि कम्युनिस्टों को छोड़कर सारा विपक्ष, खुद कांग्रेस का बड़ा हिस्सा और सेनाध्यक्ष मेनन के विरोध में था। नेहरू के पास विदेश मंत्रालय भी था। जाहिर है कि विदेश मंत्री के तौर पर नेहरू बुरी तरह असफल रहे।

The Narrative World    27-Nov-2023   
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एक अक्टूबर
-नवंबर का माह ऐसा था जिसकी टीस हम भारतीय तीन पीढ़ियों से भुगत रहे हैं। 20 अक्टूबर को भारत-चीन युद्ध आरंभ हुआ था।


भारत-चीन के बीच सीमा-विवाद दो स्थानों पर है। एक लद्दाख से लगा अक्साई चीन, और दूसरा असम से लगी आउटर लाइन से लेकर तिब्बत से लगी मैकमोहन लाइन के बीच का एरिया जिसे नेफा (नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) कहते हैं। अक्साई-चीन और नेफा पर चीन शुरू से ही दावा करता आया है।


जुलाई 1962 में लद्दाख के गलवान घाटी में भारतीय और चीनी सैनिकों में झड़प हुई। फिर सितंबर की शरुआत में तवांग से 60 मील पश्चिम में धोला/थाग-ला पहाड़ियों के पास नामका-छू नदी घाटी में भी झपड़ें हुईं।


दरअसल जून में असम राइफल्स ने धोला में एक चौकी बनाई जिसके जवाब में 8 सितंबर को चीनियों ने भारतीय चौकी से 2000 फिट ऊपर थाग-ला में अपनी चौकी बना दी। ये भारत के हिसाब से (कागजों के आधार पर भारत का दावा अधिक मजबूत था) भारतीय भूमि थी।


इसका सरकार ने विरोध किया और भारत-चीन के बीच पत्राचार बहुत बढ़ गया। सेना भ्रमित थी, नेता बात कर रहे थे और 3 सप्ताह तक दोनों तरफ के फौजी एक दूसरे पर बंदूक ताने खड़े रहे। इस बीच सड़क की बेहतर सुविधा होने से चीनी चौकी पर और अधिक सैनिक तथा हथियार पहुंचते रहे।


अंततः 3 अक्टूबर को लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह को हटा कर लेफ्टिनेंट जनरल बी. एम. कौल को कोर कमांडर का पद दे दिया गया। उमराव सिंह ने अभी तक सतर्कता बरती थी। कौल ने आते ही चीनियों को हटाने के लिए मैदानी इलाकों से 2 बटालियन बुला ली। इन सैनिकों के पास हल्के हथियार थे और केवल तीन दिन का रसद था। इनसे कहा गया कि तुम पहुँचों, सामान पीछे पीछे आ जायेगा।


बारिश, कीचड़ से होते हुए पहाड़ों की अनभ्यस्त सेना जैसे तैसे 9 सितंबर को नामका-छू पहुंची और 10 को चीनियों ने इस थकी हुई सेना पर हमला कर दिया। भारतीय सेना लड़ी, हारी और पीछे हट गई।


19 और 20 अक्टूबर को चीनियों ने बड़े स्तर पर हमला किया। इस बार किसी एक चौकी की लड़ाई नहीं थी, बल्कि पूर्वी सीमा (नेफा) और पश्चिमी सीमा (लद्दाख) पर एक साथ हमला हुआ। भारतीय भौचक रह गए। केवल 4 दिनों में लद्दाख की आठ और नेफा की 20 भारतीय चौकियां ढहा दी गईं जिनमें तवांग भी शामिल था।


गौर करने वाली बात है कि लेफ्टिनेंट जनरल कौल को 18 अक्टूबर को ही सीने में तेज दर्द हुआ। उन्हें दिल्ली लाया गया और वे 5 दिन भर्ती रहे। तब तक हम तवांग हार चुके थे। 24 अक्टूबर को चीन ने अपना अभियान खत्म किया।


इस हार पर अंततः रक्षा मंत्री (और नेहरू के परम मित्र) वी. के. कृष्ण मेनन को उनके पद से हटा दिया गया। पश्चिमी देशों से हथियारों की मदद मांगी गई। अमेरिकी राजदूत से थके और पूरी तरह टूट चुके नेहरू ने कहा कि हमें किसी भी कीमत पर हथियार चाहिए। अमेरिका और ब्रिटेन ने जहाजों में भर भर कर हथियार और गोला-बारूद भेजा। कनाडा और फ्रांस से भी मदद मिलनी शुरू हुई।


15 नवंबर को चीन ने युद्ध विराम फिर से तोड़ा और दूसरा हमला किया। नेफा के वालोम में तगड़ी लड़ाई हुई जहाँ कुमाऊँ और डोगरा रेजिमेंट ने मोर्चा लिया। ये रेजिमेंट पहाड़ी युवाओं से बनी थी। उधर लद्दाख में भी कुछ हठी कमांडरों ने दिल्ली के आदेश नहीं माने और जम कर लड़े। पर फिर भी दोनों मोर्चो पर कुछ जगहों को छोड़कर बुरी तरह हारे।


22 नवम्बर को चीनियों ने एकतरफा युद्धविराम कर दिया और नेफा में मैकमोहन रेखा के उत्तर में चले गए। लद्दाख में भी वे पहली झड़प से पहले वाली जगह पर लौट गए।


लौट क्यों गए? चीनियों की तरफ से कुछ बताया नहीं गया पर अनुमान यह है कि चूंकि भारत के पास अब पश्चिमी हथियार पहुंचने लगे थे, और ठंड बढ़ने लगी थी। कुछ ही दिनों में बर्फ गिरने लगती और अगर चीनी भारत में बहुत गहरे धंसे रहते तो उनकी आपूर्ति लाइन बाधित होती।


हार के कारण


1957 में वाम विचारधारा के प्रबल समर्थक वी. के. कृष्ण मेनन को रक्षा मंत्री बनाया गया। (ये सुरक्षा परिषद में भारतीय दूत की हैसियत से भारत की भद्द पिटवा चुके थे।) उस समय जनरल के.एस.थिम्मैया भारतीय थल सेना के सेनाध्यक्ष थे। जनरल चाहते थे कि चीन को प्रमुख शत्रु माना जाए और उसके लिए सैनिकों को उसके हिसाब से प्रशिक्षित किया जाए। पर मेनन का कहना था कि असली दुश्मन पाकिस्तान है। उसी पर ध्यान केंद्रित रखा जाए। जनरल थिम्मैया प्रथम विश्व युद्ध के समय की 303 इन्फिल्ड की जगह बेल्जियम की बनी आधुनिक ऑटोमैटिक एफएन-4 चाहते थे। जिस पर मेनन ने गुस्से में कहा कि वे किसी "नाटो देश" का हथियार इस देश में नहीं आने देंगे।


केवल थिम्मैया ही नहीं, कम्युनिस्ट के अलावा सारा विपक्ष अमेरिका-यूरोप से हथियार लेने के लिए जोर डाल रहा था। इस विपक्ष में राजगोपालाचारी (एक समय के टॉप 4 कांग्रेसी नेताओं में से एक, पूर्व गवर्नर जनरल, पूर्व मुख्यमंत्री मद्रास, 80 वर्ष की उम्र में ये कांग्रेस से अलग हो गए थे), कृपलानी, जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता थे।


यहां तक कि कांग्रेस के कुछ नेता भी यही चाहते थे। नेहरू के इस बयान पर कि अक्साई-चीन में तो घास का एक तिनका तक नहीं उगता, एक कांग्रेसी सांसद ने तीखा जवाब दिया कि अगर मेरे सर पर एक भी बाल ना उगता हो तो क्या उसे किसी और को दिया जा सकता है? (उन सांसद के सर पर बाल थे, जबकि नेहरू के सर में नहीं थे।)


पर वाम विचारधारा के प्रबल समर्थक रक्षा मंत्री को पूंजीवादी पश्चिम से नफरत थी। उन्होंने हथियार खरीदने का कोई प्रयास ही नहीं किया।


अगस्त 1959 में जनरल थिम्मैया और रक्षा मंत्री मेनन के बीच रिश्ते बहुत खराब हो गए। वजह बनी एक पदोन्नति। 12 वरिष्ठ अधिकारियों को नजरअंदाज कर बी. एम. कौल को पदोन्नत कर दिया गया। जनरल का कहना था कि कौल को किसी युद्ध का अनुभव नहीं था और इन्होंने अपनी सर्विस का अधिकांश भाग 'आर्मी सर्विस कोर' में बिताया था। ये ऐसी योग्यताएं नहीं थी कि उन्हें आर्मी हेडक्वार्टर में कोई महत्वपूर्ण पद दिया जाए।


मेनन कौल को पसन्द करते थे। उन्होंने कौल को किसी आवासी कॉलोनी के निर्माण की देखरेख करते देखा था और इससे बहुत प्रभावित हुए कि आर्मी अफसर होते हुए भी वे जन-कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे।


इस मुद्दे पर जनरल थिम्मैया ने अपने दो कनिष्ठ साथियों के साथ इस्तीफा दे दिया। नेहरू ने उन्हें समझाने के लिए बुलाया। समझा बुझा कर इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी कर लिया। पर पूरा देश जो यह चाहता था कि अब मेनन को हटा लिटा जाए, नेहरू ने ऐसा कुछ नहीं किया। एक पूर्व आर्मी अफसर ने थिम्मैया को लिखा कि उन्हें अपने स्टैंड पर कायम रहना था। मेनन के बने रहने से देश को आगे अधिक नुकसान होगा।


मेनन को अमेरिकी हथियार सिर्फ इसलिए नहीं चाहिए थे क्योंकि वह एक पूंजीवादी देश था। (जबकि वामपंथी देश चीन मेनन की वाम-विचारधारा के बाद भी उनके देश पर हमला करने की तैयारी कर रहा था।)


नेहरू अपने मित्र मेनन को रक्षा मंत्री के पद से हटाना नहीं चाहते थे। जबकि कम्युनिस्टों को छोड़कर सारा विपक्ष, खुद कांग्रेस का बड़ा हिस्सा और सेनाध्यक्ष मेनन के विरोध में था। नेहरू के पास विदेश मंत्रालय भी था। जाहिर है कि विदेश मंत्री के तौर पर नेहरू बुरी तरह असफल रहे।