दशहरे से दीवाली के बीच बीस दिन : समाज के प्रत्येक व्यक्ति को जोड़ा था भगवान राम ने

पुष्पक विमान में बैठकर भगवान श्रीराम ने सीधे अयोध्या का मार्ग नहीं अपनाया था। अपितु वे विभिन्न वन्य ग्राम्य क्षेत्रों और ऋषि आश्रमों में गए। ये सभी क्षेत्र वे थे जहाँ भगवान श्रीराम अपनी वनवास यात्रा में सीताहरण से पहले भी गए थे।

The Narrative World    07-Nov-2023   
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भारतीय उत्सव परंपरा में एक महत्वपूर्ण अवधि विजयदशमी से दीपावली के बीच के बीस दिनों की हैं। यह अवधि भगवान श्रीराम द्वारा सभी वर्गों और समाज के सभी जनों को एक सूत्र में पिरोने से जुड़ी है। इसका अनुपालन आज भी भारतीय सनातन समाज कर रहा है। लेकिन संदेश कुछ विस्मृत हो गया है और स्वरूप थोड़ा बदल गया है।


भगवान श्रीराम ने रावण का वध दशहरे पर किया था। वे लंका विजय करके कार्तिक मास की अमावस को अयोध्या लौटे। उन्हें अयोध्या लौटने में बीस दिन लगे। दशहरे के दिन रावण का वध हुआ था। लंका में रावण सहित उसके सभी परिजनों के अंतिम संस्कार में एक दिन लगा। दूसरे दिन विभीषण का राज्याभिषेक हुआ और उसी दिन सीता माता को ससम्मान भगवान श्रीराम के पास भेजने की व्यवस्था विभीषण ने कर दी थी। एक मतानुसार- यदि ससम्मान विदाई में एक दिन और मान लें, तो भी कुल मिलाकर ये तीन दिन होते हैं।


विभीषण ने भगवान श्रीराम को पुष्षक विमान भेंट किया था। भगवान श्रीराम उसी पुष्पक विमान से अयोध्या लौटे थे। पुष्पक विमान की गति पवन से भी तेज थी। इसका अर्थ हुआ कि भगवान श्रीराम कुछ घंटों में ही लंका से अयोध्या आ सकते थे। तब भगवान श्रीराम को मार्ग में सत्रह दिन क्यों लगे? और फिर यदि भगवान श्रीराम के लौटने पर दीप जलाये गए तो आगे चलकर यह उत्सव केवल दीपोत्सव तक ही सीमित क्यों नहीं रहा? यदि यह मात्र दीपोत्सव होता, तो इन बीस दिनों में दीपावली की जो तैयारी होती है, वह अकेले एक व्यक्ति या परिवार की होती। लेकिन इसमें तो समाज के विभिन्न समूहों का सहयोग लगता है।


धनवंतरि उत्सव से लेकर भाई दूज तक पांच दिनों तक तो उत्सव ही चलता है। इन पांच दिनों में ऐसी कौन सी वस्तु है, जो क्रय नहीं की जाती? ऐसा कौन सा वर्ग है, जिससे संपर्क करके सहयोग नहीं लिया जाता? घर की झाड़ू से लेकर स्वर्णाभूषण तक सभी वस्तुएं क्रय की जातीं हैं। समाज का ऐसा कौनसा वर्ग या व्यक्ति है जिसे भेंट नहीं दी जाती? इन प्रश्नों का उत्तर भगवान श्रीराम के अयोध्या लौटने के यात्रा वृतांत में मिलता है।


पुष्पक विमान में बैठकर भगवान श्रीराम ने सीधे अयोध्या का मार्ग नहीं अपनाया था। अपितु वे विभिन्न वन्य ग्राम्य क्षेत्रों और ऋषि आश्रमों में गए। ये सभी क्षेत्र वे थे जहाँ भगवान श्रीराम अपनी वनवास यात्रा में सीताहरण से पहले भी गए थे। भगवान श्रीराम सभी समाजों से मिले और समाज प्रमुखों को अयोध्या आने का आमंत्रण दिया। वास्तव में इस कार्य में ही उन्हें सत्रह दिन लगे। लंका से विदा होने से पहले भगवान श्रीराम से समस्त लंकावासी मिले उनको भी भगवान श्रीराम ने अयोध्या आमंत्रित किया। इस प्रकार ये बीस दिन सभी वर्गों और समाज के व्यक्तियों को परस्पर समरूप होने और एक दूसरे का पूरक बनने की बनने और बनाने की अवधि है।


भगवान श्रीराम पूरे समाज स्वयं जुड़े और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूँकि दानवी शक्तियां सदैव समाज के विखराव का लाभ उठातीं हैं। भगवान श्रीराम ने श्रीलंका से लौटते समय संपूर्ण समाज को एकत्व का यही संदेश दिया कि यदि समाज संगठित रहेगा, सशक्त रहेगा तो आसुरी शक्तियां सभ्य सुसंस्कृत समाज को कभी कष्ट न दे सकेंगी। आज यद्धपि मूल उद्देश्य भूल गये पर इन बीस दिनों में समाज को जोड़ने और जुड़ने की प्रक्रिया यथावत है। इन बीस दिनों में हम साफ सफाई, लिपाई पुताई से लेकर नये वस्त्र, बर्तन, आभूषण, घर या भवन को सजाने की वस्तुएं क्रय करते हैं, जिससे हर हाथ को काम मिले। सबको एक दूसरे की आवश्यकता अनुभव हो, सब एक दूसरे का महत्व समझें।


भारत विविधता से भरा देश है। यह विविधता इतनी व्यापक है कि भाव भाषा और रीति-रिवाज ही नहीं रहन सहन में भी अलग दिखते हैं। यह विविधता केवल बाह्य रूप में है। आंतरिक स्वरूप में सब एक हैं। इसी सिद्धांत को जीवन में उतारने का काम प्रभु श्रीराम ने इन बीस दिनों में किया था। यह परस्पर अनुपूरकता हमें आज भी दीपावली की तैयारी में दिखाई देती है। इन बीस दिनों में भारतीय संस्कृति के एकत्व और परस्पर अनुपूरकता के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति एक मात्र ऐसी मानवीय संस्कृति है जिसमें समूची वसुन्धरा के निवासियों को कुटुम्ब माना जाता है।


संसार का एक-एक प्राणी उसके कुटुम्ब का अंग हैं। यही संदेश दशहरा और दीपावली के बीच के इन बीस दिनों का है कि सभी समाज और वर्ग परस्पर एक दूसरे से जुड़ें, एक दूसरे का पूरक बनें। कोई भेद न हो, न नगर वासी का, न ग्रामवासी का और न कोई वन में निवासी का। भगवान श्रीराम ने एक एक वनवासी को राजमहल से जोड़ा और वनवासियों को तंग करने वाले अथवा उनका शोषण करने वाले संगठित समूहों का अंत किया।


समय के साथ शब्द बदलते हैं और संबोधन भी बदले। किन्तु सबकी परस्पर पूरकता का भाव आज भी यथावत है। और यह संदेश आज भी स्पष्ट है कि सब परस्पर अटूट संबंध बनाएं। इसी की स्मृति के दिन हैं विजयदशमी पर्व से दीपावली के बीच के बीस दिन।


इसे ऐतिहासिक दृष्टि से देखें। श्रीलंका से प्रस्थान करते समय विभीषण ने श्रीलंका के अक्षय खजाने से विनतीपूर्वक कुछ भेंट अर्पित की थी। वह संपदा भी विमान में थी। भगवान श्रीराम ने लौटते समय वह समस्त संपत्ति वनवासियों को सक्षम और समृद्ध बनाने के लिये बाँट दी थी। हम देख लें कि दीपावली की तैयारी में प्रत्येक परिवार की बचत प्रत्येक समाज को जाती है। प्रभु श्रीराम ने लौटते समय उनके मुखियाओं को अपने साथ लिया था। उन सबको साथ लेकर ही भगवान श्रीराम अयोध्या लौटे थे।


भगवान श्रीराम जानते थे कि जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुये फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर पनप जाता है, नया वृक्ष बन जाता है और उसी से समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केन्द्रीभूत बिन्दु एक ही है। इसी भाव से उनका आचरण था और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया। उनके विमान में निषाद, किरात, केवट आदि सभी वनवासी समूहों के प्रतिनिधि अयोध्या आये थे। विजयदशमी से दीपावली के मध्य के ये बीस दिन समाज के समरस स्वरुप स्थापना और समृद्ध बनाने के दिन हैं। हजार वर्ष के अंधकार के बाद भी भारतीय जीवन में यह परंपरा बनी हुई इसीलिए दीपावली पर केवल दीप भर नहीं जलाते बल्कि सभी समाजों का मानों कायाकल्प होता है धन से भी और श्रम से भी। इसीलिये परस्पर भेंट और आदान प्रदान से भी।


तलाईमन्नार, श्रीलंका रामायण का युद्ध स्थल, यहीं पर राम ने रावण का वध किया था और सीता को बचाया था। इसके बाद, राम के आदेश पर, लक्ष्मण ने रावण के भाई विभीषण को लंका का राजा नियुक्त किया। इसके तुरंत बाद, सीता, राम और लक्ष्मण अपने परिवार से मिलने के लिए अयोध्या के लिए रवाना हुए। आख़िरकार, पुनर्मिलन ने उन उत्सवों को जन्म दिया जिन्हें अब हम दिवाली के रूप में जानते हैं।


राम की अयोध्या से लंका तक की प्रसिद्ध यात्रा का रेखांकन रामायण में वर्णित है, लेकिन उनकी वापसी यात्रा के मामले में ऐसा नहीं है।


रामायण में प्रभु राम की वापसी यात्रा के संबंध में कुछ बिंदु, जो बहुत स्पष्ट हैं-


1) रावण पर विजय के बाद प्रभु राम ने और उनके दल ने अयोध्या जाने से पहले किष्किंधा प्रवास किया।


2) अयोध्या में प्रवेश करने से पहले वह भारद्वाज आश्रम में रुके थे।


अब अगर हम दक्षिण भारत में रामायण से जुड़ी मौखिक परंपराओं/किंवदंतियों का संदर्भ लें, जो प्रभु राम की वापसी यात्रा के संबंध में हैं, तो चुंचनकट्टे और मुथाथी में सीता और हनुमान से जुड़ी दो लोककथाएँ आज भी प्रचलित हैं। चूंकि रावण द्वारा सीता का अपहरण पंचवटी (नासिक) में किया गया था, इसलिए नासिक के दक्षिण में राम के साथ सीता की कोई भी कहानी रावण वध के बाद यानी राम की वापसी यात्रा के दौरान से संबंधित होती हैं। दूसररी बात यह कि सीताजी के साथ हनुमानजी की यात्रा प्रभु राम की लंका से अयोध्या की यात्रा के दौरान ही होती है, सीताजी से तो उनकी पहली भेंट ही लंका में हुई थी।


अब चुंचनकट्टे का उदाहरण लें। चुंचनकट्टे श्री कोदंड राम मंदिर मैसूर के निकट है, और चुंचनकट्टे जलप्रपात का वर्णन यह है कि जब सीताजी स्नान करना चाहती थीं, तो राम ने लक्ष्मण को सीताजी के स्नान के लिए प्रबंध करने का निर्देश दिया। लक्ष्मण ने चट्टानों पर तीर मारा और पानी प्रचुर मात्रा में बहने लगा और सीता देवी स्नान कर सकीं। दूसरी पौराणिक कहानी मुथाथी से जुड़ती है, जो कर्नाटक का मांड्या जिले में घोर वन क्षेत्र का एक छोटा सा गांव है। मान्यता यह है कि जब सीतामाता इस स्थान पर स्नान कर रही थीं, तो उनकी नाक की नथ नदी में गिर गई थी। तब आंजनेय (हनुमान जी) गहरे पानी में तैरते हुए चले गए और उसे उठाकर वापस लौटा दिया। इसलिए इस स्थान को मुथाथी कहा जाता है। (मुथु का अर्थ है मोती) इस प्रकार आंजनेय का एक नाम मुथेथरया (मोती की माला का पता लगाने वाला) भी पड़ा। अगर किष्किंधा और चुंचनकट्टे को जोड़ते हुए एक सीधी रेखा खींची जाए, आगे बढ़ाने पर वह रावण की लंका तक पहुंचती है।


त्रिंकोमाली - डॉ. राम अवतार ने 48 वर्षों तक लगातार भगवान राम से संबद्ध तीर्थों पर शोध की है। उनकी पुस्तकवनवासी राम और लोक संस्कृतिमें प्रभु राम के विभिन्न प्रयाणों से संबंधित 290 स्थानों को चिन्हित किया गया है। उनकी शोध के अनुसार जब भगवान राम सीताजी के साथ वापस अयोध्या जा रहे थे, तो भगवान राम ने रावण वध में निहित ब्रह्म हत्या के संदर्भ में लंका में उस स्थान पर रुककर तपस्या की थी, जिसे अब त्रिंकोमाली कहा जाता है। वैसे भारत में कुछ अन्य स्थानों पर भी यह दावा किया जाता है कि भगवान राम ने यहीं रुककर ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित किया था।


इस प्रकार के स्थानों में से एक है - गंधमाधन पर्वत। श्रीराम अगस्त्य ऋषि का बहुत सम्मान करते थे और यह उन दोनों के बीच एक विशेष बंधन था। इसलिए, रावण वध के कारण ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए ऋषि अगस्त्य की सलाह पर श्रीराम गंधमाधन पर्वत पर रुके थे। श्रीराम ने यहां भगवान शिव की पूजा की थी। आज भी, इस मंदिर में उसी बात का उल्लेख करने वाले शिलालेख हैं और इसे एक पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है।


धनुषकोटि - भगवान राम धनुषकोटि होते हुए ही लंका गए थे। लेकिन, जब भगवान राम वापस आ रहे थे तब भी वे धनुषकोटि के रास्ते ही वापस गए थे। कहा जाता है कि जब भगवान राम अयोध्या जा रहे थे तो विभीषण के अनुरोध पर उन्होंने धनुष की नोंक से पुल तोड़ दिया था. वह स्थान आज भी धनुषकोटि के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि विभीषण ने ऐसा इसलिए किया ताकि कोई लंका पर आक्रमण न कर सके। इसके अलावा समुद्र ने भी पुल तोड़ने को भी कहा था, ताकि कोई समुद्र पार न कर सके।


चक्रतीर्थ अनागुंडी (हम्पी)- इसके बाद भगवान राम और माता सीता तुंगभद्रा नदी पर रुके थे। जहां यह नदी धनुषाकार मोड़ लेती है, उसे चक्रतीर्थ कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जब श्री राम पुष्पक विमान से अयोध्या जा रहे थे तो माता सीता के अनुरोध पर विमान यहां उतरा था। बाद में सुग्रीव ने यहां कोदंड राम मंदिर का निर्माण करवाया।


कुछ लोक कथाओं में कहा जाता है कि भगवान राम की प्रयाग में ऋषि भारद्वाज से भेंट हुई थी।


भदर्शा (अयोध्या) - जब भगवान विमान से अयोध्या पहुंचे तो भदर्शा नामक बाजार में लोगों को पहली बार विमान में भगवान के दर्शन हुए। है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है-

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥

सुनु कपीस अंगद लंकेसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥1


अर्थात- यहां (विमान से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्रीराम वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं-) हे सुग्रीव! हे अंगद! हे लंकापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुंदर है।


रामकुंड पुहपी- यहां भगवान राम का विमान उतरा था, जिसके बाद इस स्थान का नाम पुष्पकपुरी पड़ा। अब वह स्थान पुहपी के नाम से जाना जाता है। इसके निकट ही नंदीग्राम में भरत जी तपस्या करते हुए श्री राम के अयोध्या वापस आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसी समय भगवान राम ने हनुमानजी को भरतजी का समाचार देकर उनसे मिलने भेजा। इसी स्थान पर हनुमानजी और भरतजी का भावपूर्ण मिलन हुआ था।


भरत कुंड (नंदीग्राम) - इस स्थान के लिए कहा जाता है कि यहीं श्रीराम और भरत का भावपूर्ण मिलन हुआ था। यह स्थान अयोध्या से लगभग 10 किमी दूर है। इसके पास ही एक जटा कुंड है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां भगवान राम ने सबसे पहले भरत और लक्ष्मण के केश साफ कराए थे और उसके बाद अपने केश साफ कराए थे और जुलूस के साथ मंदिर में प्रवेश किया था। इसके अलावा इसके आसपास कई स्थान हैं, जिनके अलग-अलग प्रसंग जोड़े जाते हैं। उनमें से एक है सुग्रीव कुंड, जिसमें सुग्रीव ने स्नान किया था। यहां हनुमान, सीता, राम कुंड है, जहां हनुमान, सीता, राम ने क्रमश: स्नान किया था।


अयोध्या पहुंचने पर अयोध्यावासियों ने भगवान राम का स्वागत किया और उस दिन पूरी अयोध्या में घी के दिये जलाये, जिस दिन को हम दिवाली के रूप में मनाते हैं।


किष्किंधा-हम्पी - श्रीराम ने माता सीता को वे सभी स्थान दिखाए हैं जहां वे उनकी खोज के दौरान रुके थे। जब श्रीराम उन्हें किष्किंधा दिखाते हैं तो माता सीता बहुत प्रसन्न होती हैं और श्रीराम से अपने राज्याभिषेक के लिए तारा, रुमा और किष्किंधा की सभी शाही महिलाओं को अपने साथ अयोध्या वापस ले जाने का अनुरोध करती हैं। श्रीराम पुष्पक को वहीं रोकने के लिए कहते हैं और वे किष्किंधा की सभी राजमहिलाओं को अपने साथ अयोध्या ले जाते हैं।


कछानगिरीजब हनुमानजी श्रीराम को अपना जन्म स्थान दिखाते हैं, तो श्रीराम माता अंजना के प्रति सम्मान प्रकट करने की इच्छा व्यक्त करते हैं और काचनगिरि में रुकते हैं जहां माता अंजना निवास करती थीं। श्रीराम, माता सीता, लक्ष्मण सहित हनुमानजी ने माता अंजना का आतिथ्य स्वीकार किया और अयोध्या जाने से पहले उनका आशीर्वाद लिया।


पंचवटी - जन आस्था यह है कि है कि श्रीराम और माता सीता ऋषि अगस्त्य का सम्मान व्यक्त करने के लिए ऋषि अगस्त्य के आश्रम के पास पंचवटी में रुके थे। हालांकि, महर्षि वाल्मिकी के अनुसार, चूंकि श्रीराम भरत के लिए चिंतित थे, इसलिए उन्होंने पुष्पक को हवा में केवल धीमा करने का अनुरोध किया और ऋषि ने उन्हें आश्रम से ही आशीर्वाद दिया था।


चित्रकूट - पंचवटी से श्रीराम सीधे चित्रकूट के लिए रवाना हुए। वह उन सभी ऋषियों का आशीर्वाद लेना चाहते थे जिनकी उन्होंने चित्रकूट प्रवास के दौरान सेवा की थी। ऐसा कहा जाता है कि अयोध्या जाने से पहले उन्होंने कुछ देर चित्रकूट में विश्राम किया था। जिन पेड़ों के नीचे श्रीराम और माता सीता ने विश्राम किया था, उनकी स्मृतियों और उनके प्रवास से उत्पन्न दिव्य आभा के रूप में आज भी उनकी पूजा की जाती है।


प्रयाग - ऋषि भारद्वाज आश्रम - जिस तरह श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण ने अपना वनवास शुरू करने से पहले ऋषि भारद्वाज का आशीर्वाद लिया था, उसी तरह वे अपने वनवास के सफल समापन पर फिर से पवित्र ऋषि के पास जाते हैं। श्रीराम भरत को अपनी वापसी की सूचना देने के लिए यहीं से हनुमान को नंदीग्राम भेजते हैं। श्री राम ऋषि भारद्वाज के साथ कुछ समय बिताते हैं और पवित्र प्रयागराज में प्रार्थना भी करते हैं।


श्रृंगवेरपुर - ऋषि भारद्वाज का आशीर्वाद लेने के बाद, श्रीराम अपने बचपन के मित्र निषाद राज गुह को दिए गए वचन को पूरा करने के लिए आगे बढ़ते हैं और उनके स्थान श्रृंगवेरपुर जाते हैं। माता सीता पवित्र स्थान पर गंगा नदी की पूजा करती हैं और उनका आशीर्वाद मांगती हैं। वहां से सभी अनुचर चलकर नंदीग्राम पहुंचते हैं और भरत उनका हार्दिक स्वागत करते हैं।


इस प्रकार के अनेक संदर्भ देश भर में उपस्थित हैं। और त्रेतायुग से आज तक तीर्थों जैसा महत्व उन्हें प्राप्त है।

लेख 

रमेश शर्मा