औरंगज़ेब को धूल चटाने वाली महान वीरांगना 'तराबाई'

महान छत्रपति सम्भाजी को औरंगजेब ने छल पूर्वक पकड़ा था। औरंगजेब ने सम्भाजी को बलात इस्लाम धर्म कबूल करने हेतु भयानक यातनाएं दी, परंतु सफल नहीं हो सका इसलिए सम्भाजी की जघन्य हत्या कर दी गई। इस तरह स्व के लिए सम्भाजी की पूर्णाहुति हुई थी।

The Narrative World    10-Dec-2023   
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छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधू, छत्रपति राजाराम की धर्मपत्नी - न केवल भारत वरन् विश्व की अद्भुत एवं अद्वितीय वीरांगना हैं, जिन्होंने अपने पति छत्रपति राजाराम की असामयिक मृत्यु के उपरांत वर्ष 1700 से वर्ष 1707 तक मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बनकर अपनी रणनीति और कूटनीति से मुगलों के महापापी और महाक्रूर शासक औरंगजेब के साथ भयानक जंग लड़ीं और औरंगजेब के मराठा साम्राज्य को ध्वस्त करने के सपने को न केवल चकनाचूर किया वरन् वहीं दक्षिण में औरंगजेब को भी सशरीर गाड़ दिया।


महान छत्रपति सम्भाजी को औरंगजेब ने छल पूर्वक पकड़ा था। औरंगजेब ने सम्भाजी को बलात इस्लाम धर्म कबूल करने हेतु भयानक यातनाएं दी, परंतु सफल नहीं हो सका इसलिए सम्भाजी की जघन्य हत्या कर दी गई। इस तरह स्व के लिए सम्भाजी की पूर्णाहुति हुई थी।


सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को छत्रपति बनाया गया, इसके साथ ही मुगलों के विरुध्द वर्ष 1689 में स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष हुआ। परंतु दुर्भाग्यवश वर्ष 1700 में छत्रपति राजाराम का देहावसान हो गया। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को उत्तराधिकारी बनाकर वीरांगना ताराबाई ने एक संरक्षक परिषद् बनाई और स्वयं उसकी अध्यक्षता ग्रहण की।


अब महाराष्ट्र में सर्वोच्च सत्ता, अधिकार और निर्देश ताराबाई के हाथों में केंद्रीभूत हो गए। ताराबाई ने स्वयं अपना मंत्रिमंडल बनाया जिसमें रामचंद्र नीलकंठ को आमात्य, धन्नाजी जाधव को सेनापति, परशुराम त्रयंबक को सेनापति और शंकर जी नारायण को सचिव नियुक्त किया गया।


दूसरी ओर राजाराम की दुखद मृत्यु का संदेश सुनकर औरंगजेब अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने अपने शिविर में नौबतें बजवाकर आनंद उत्सव मनाया। उसके सैनिकों और सेनानायकों ने एक दूसरे को परस्पर बधाईयां दी, परंतु यह सब औरंगजेब का भ्रम था। ताराबाई ने सेना और प्रशासन का योग्यता दक्षता और दृढ़ता से संचालन किया और औरंगजेब की सेनाओं के आक्रमणों का कड़ा मुकाबला ही नहीं किया, अपितु मुगल इलाकों में प्रत्याक्रमण कर नेस्तनाबूद भी किया।


ताराबाई के नेतृत्व मुगलों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम और भी भयानक हो गया था। ताराबाई के संचालन संगठन और नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध मराठों के सैनिक अभियान और अधिक तीव्र हो गए। राजाराम की मृत्यु से मराठों के आक्रमणों में कोई कमी नहीं आई अपितु आक्रमण राजाराम के शासनकाल की अपेक्षा अधिक तीव्र आकस्मिक और व्यापक हो गए।


ताराबाई मुगलों के विरुद्ध सैनिक आक्रमणों को कैसे आयोजित करती थीं और इसके लिए अपने अधिकारियों को किस प्रकार प्रोत्साहित करती थीं, यह 17 नवंबर 1700 को कान्हो जी जुझारराव को लिखे हुए उसके पत्र से विदित होता है।


इसमें उसने कान्हो जी को लिखा है कि वह शीघ्र मल्हारराव से, जो सिद्धियों के विरुद्ध 7000 सैनिकों के साथ भेजा गया है, उनसे जाकर मिल लें। इसी प्रकार जनवरी 1702 में ऐसा ही एक पत्र प्रतापराव मोरे को लिखा गया था। उसमें उसने संताजी पांघरे की उसके द्वारा मलकापुर के समीप मुगलों की सैनिक चौकी पर अधिकार कर लेने के लिए प्रशंसा की है और उसे मुगलों को निरंतर परेशान करने के लिए प्रोत्साहित किया है, जिससे मुगल विशालगढ़ और अन्य मराठा दुर्गों के विरुद्ध सफलतापूर्वक कार्यवाही नहीं कर सकें। उसने औरंगजेब को विश्वासघाती, षड्यंत्री और कुचक्री बताया है, और प्रतापराव को हिदायत दी है कि वह औरंगजेब की विरुद्ध सदैव सतर्क रहे।


ताराबाई के नेतृत्व में मराठों के सेनानायक एवं सेना दक्षिण के सभी मुगल इलाकों में फैल गई और मुगल प्रदेशों में सर्वत्र तहलका मचाया तथा मुगल सैनिक टुकड़ियों को परास्त कर दिया। अगस्त वर्ष 1700 में हनुमंतराव निंबालकर ने खटाव जिला मुगलों से छीन लिया और राणो जी घोरपड़े ने बागेबाड़ी और इन्दी के समृद्ध प्रदेश मुगलों से जीतकर अपने अधिकार में कर लिए।


महाराष्ट्र में मुगल सैनिकों के दबाव को कम करने के लिए मराठों ने खानदेश व बरार में मालवा में उज्जैन, मंदसौर और सिरोंज तक तथा गुजरात में अहमदाबाद की सीमा तक हमले किए और धन हस्त गत किया। इसका कुप्रभाव मुगलों की सुरक्षात्मक कार्यवाही ऊपर पड़ा और सैनिक शक्ति क्षीर्ण हो गई। दुर्गों में नियुक्त मुगलों के सुरक्षा सैनिक दल भी दुर्बल और शक्तिहीन गए।


फलतः मराठों ने परशुराम त्रयंबक के नेतृत्व में बसंतगढ़, पन्हाला, पवन गढ़ और वर्ष 1704 में अन्नाजी पंत की वीरता और दुस्साहस से सतारा दुर्ग मुगलों से जीत लिए। सचिव शंकर जी नारायण के कठिन प्रयासों से मराठों ने सिंहगढ़, राजगढ़, रोहिड़ा और अन्य कुछ दुर्ग भी हस्तगत कर लिए।


वर्ष 1705 में मराठों ने जनवरी में लोहगढ़ और जून में राजमाची और जुलाई में कोण्डना दुर्ग भी मुगलों से जीतकर अपने अधिकार में ले लिया। अब ताराबाई ने पन्हाला में पुनः अपने राज्य का मुख्य कार्यालय स्थानांतरित कर दिया और वहीं से शासन करने लगीं। वर्ष 1707 में धन्नाजी जाधव ने पूना और चाकन को भी मुगलों से छीन लिया।


वर्ष 1706 में औरंगजेब सेना सहित लौटकर अहमदनगर में अपने शिविर में था तब धनाजी जाधव, नेमोजी शिंदे, दादू मल्हार व रंभा निंबालकर के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना उसके डेरे से 6 किलोमीटर दूरी तक आ पहुंची और बड़ी घमासान खूनी लड़ाई के बाद वहां से हटी।


इस प्रकार ताराबाई के नेतृत्व में उसके सेनापतियों ने 7 वर्ष की अवधि में साधन संपन्न शक्तिशाली मुगल साम्राज्य और उसकी सत्ता को लुंज पुंज ही नहीं किया अपितु शिवाजी के विध्वंस हुए राज्य की राख के ढेर में से एक नवीन राज्य निर्मित किया एवं एक नवीन महत्तर महाराष्ट्र को पुनर्जीवित किया।


7 वर्ष के इस स्वतंत्रता संग्राम में मराठों में साहसिक वीरता, उत्कृष्ट सहनशीलता, घोर निराशा में आशा की भावना, आत्मविश्वास, उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठा श्रेष्ठ सैनिक नैतिक बल, आत्म बलिदान, राष्ट्रीय और देशप्रेम की उत्कृष्ट भावना जैसे गुण विकसित किए और इससे वे इतने शक्तिशाली हो गए कि आगामी 3 पीढ़ियों में वे उत्तरी भारत में विजेता के रूप में पहुंच गए।


वीरांगना ताराबाई ने औरंगजेब की मानसिक और शारीरिक अवस्था पर भयानक आघात किया और इस स्वतंत्रता संग्राम ने ऐसा भीषण विकराल रूप धारण किया कि दक्षिण में उसने तथाकथित बादशाह औरंगजेब और उसके साम्राज्य दोनों को ही क्षत-विक्षत कर समाप्त कर दिया। दक्षिण में ही तथाकथित बादशाह और साम्राज्य दोनों की मज़ार बन गई।


लेख


डॉ. आनंद सिंह राणा

विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय

इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत