सांस्कृतिक मार्क्सवाद के छद्म रूप

महिलाओं को पितृसत्ता से मुक्त करना है, यह नारा अच्छा लगता है एवं कुछ महिलाओं को प्रभावित भी करता है, यह स्पष्ट रूप से भारतीय परिवार एवं समाज को विखंडित करने का षडयंत्र है।

The Narrative World    14-Dec-2023   
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अख़बार में एक समाचार पढ़ा, शीर्षक थाखुले आसमान के नीचे महिलाओं ने ली सुकून की नींद, कराया सुरक्षा का एहसास”, (Meet to Sleep)  महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर नींद लेने, रहने, एवं अन्य गतिविधियां करने के लिए प्रोत्साहित करना एवं उनमें सुरक्षा का एहसास कराना, इस उद्देश्य से भोपाल के मयूर पार्क में महिलाओं का कार्यक्रमएक्शन एड इंडियानामक अंतरराष्ट्रीय ग़ैर लाभकारी संस्था (NGO) द्वारा आयोजित किया गया था। एक्शन एड की कार्यक्रम प्रमुख ने अख़बार के संवाददाता को बताया कि इस अभ्यास के पीछे का विचार, “महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर रहने के अधिकार पर ज़ोर देना है।"


इस प्रकार के अंतरराष्ट्रीय NGO भारत में सांस्कृतिक मार्क्सवाद का विस्तार करते हैं, इनके द्वारा आयोजित कार्यक्रम के शीर्षक बड़े प्रभावी होते हैं जैसे पर्यावरण, नारी जागरूकता, मानवाधिकार, दलित उत्थान, ग़रीबी उन्मूलन इत्यादि।


अब इसी कार्यक्रम को देखें, क्या आवश्यकता है कि महिलाएँ सार्वजनिक स्थानों पर नींद लें ? क्या उन्हें घर में नींद लेने के लिए स्थान की कमी है ? घर से बाहर सोने से आख़िर महिलाओं को सुरक्षा का अहसास कैसे हो सकता है ? महिला ही नहीं पुरुषों को भी घर से बाहर सोने पर सुरक्षा का एहसास नहीं हो सकता। यह क्या तर्क है कि पुरुष पार्क में सोते दिख जाते हैं, तो महिलाएँ भी सार्वजनिक स्थानों पर सोएंगी।


अक्सर पार्कों में पुरूष विश्राम करते नज़र आते हैं, उसका एक कारण है, वे शारीरिक थकावट के कारण कभी कभी गर्मी के दिनों में, कहीं पेड़ के नीचे खुली जगह पर विश्राम करते हैं, अथवा कुछ बेघर लोग भी विश्राम करते पाए जाते हैं, यह उनकी मजबूरी होती है।


क्या भारत में घर की गृहणियों के साथ ऐसा है कि उन्हें घर में सोने के लिए स्थान नहीं मिलता ? ऐसा तो कदापि नहीं होता। घर के पुरूष जब कार्य से बाहर चले जाते हैं तो गृहणियों के पास पर्याप्त समय होता है, विश्राम करने का। फिर वे क्यों घर का कार्य छोड़कर, बच्चों को छोड़कर पार्कों में विश्राम करने लगेगी?


भारतीय समाज में नारी का योगदान पुरुषों से कहीं अधिक है। यदि उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों का आकलन मुद्रा से किया जाए, तो भी उनका योगदान पुरुषों से अधिक है, और इसे भारतीय समाज स्वीकार भी करता है।


परिवार के संचालन में पुरुष एवं स्त्री का बराबर योगदान होता है, बल्कि अधिकांश परिवारों में स्त्री ज़्यादा प्रभावी होती है। जिस मनुस्मृति को पानी पी पीकर, स्त्री विरोधी सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है एवं कोसा जाता है, उसी में लिखा हैयत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवताः


महिलाओं को पितृसत्ता से मुक्त करना है, यह नारा अच्छा लगता है एवं कुछ महिलाओं को प्रभावित भी करता है, यह स्पष्ट रूप से भारतीय परिवार एवं समाज को विखंडित करने का षडयंत्र है। भारतीय समाज में महिलाएँ आवश्यकतानुसार घर से बाहर जाती भी है, जब उन्हें कोई काम होता है, यह नहीं कि वे सोने के लिए घर से बाहर जाएं। अनावश्यक रूप से उन्हें घर से बाहर निकालकर, सार्वजनिक स्थानों में सोने के लिए प्रेरित करना, क्या परिवारों में कलह के बीज बोना नहीं है? यह NGO यही पारिवारिक कलह तो पैदा करना चाहते हैं।


पश्चिमी देशों में इस प्रकार के सांस्कृतिक मार्क्सवाद ने उस समाज में परिवारों को बुरी तरह भी विखंडित कर दिया है एवं अनेक वर्षों से यह षड्यंत्र भारत में भी चल रहा है कि भारतीय परिवार-परंपरा को तोड़ा जाए, महिलाओं में विद्रोह की भावना डाली जाए।


कुछ समय का क्षणिक परिवर्तनजन्य सुख स्थायी नहीं हो सकता, न ही इसे हम अपने स्वभाव में सम्मिलित कर सकते हैं। यह परिवार ही नहीं समाज एवं राष्ट्र के लिए भी घातक होगा और यही सांस्कृतिक मार्क्सवाद का लक्ष्य है।


पश्चिमी एवं अमरीकी समाज इसवोकिज्मसे त्रस्त हो चुका है। इस प्रकार के अंतरराष्ट्रीय NGO विभिन्न नामों से भारत में यही कार्य कर रहे हैं। इन NGO की गतिविधियों से हमें जागरूक रहने की आवश्यकता है एवं अपने आस पास के लोगों को भी इनके षड़यंत्र से अवगत कराया जाना चाहिए।


लेख


विक्रमादित्य सिंह