एक तरफ जहां छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार आने से बौखलाए माओवादी आतंकी लगातार हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर प्रदेश सरकार ने सुरक्षाकर्मियों को माओवादियों के विरुद्ध सख्त अभियान चलाने के निर्देश दे दिए हैं।
इसी का परिणाम है कि एक के बाद एक मुठभेड़ की खबर सामने आ रही है, जिसमें माओवादियों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। दिसंबर माह के इन शुरुआती 15 दिनों में ही माओवादियों ने 15 से अधिक गतिविधियों को अंजाम दिया है।
हालांकि अब इस मामले से जुड़े लोगों द्वारा यह कहा जा रहा है कि प्रदेश में भाजपा सरकार आने के बाद माओवाद अब अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है। गौरतलब है कि पिछले 5 वर्षों तक सत्ता में रही कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व कर रहे भूपेश बघेल के कार्यकाल में माओवादी मजबूत हुए हैं, और बड़ी-बड़ी बैठकों का आयोजन माओवादियों ने बस्तर में किया है।
वहीं दिसंबर 2020 की बात करें जब भूपेश बघेल राज्य के मुख्यमंत्री थे, तब भी यह आरोप लगा था कि श्रेय लेने की होड़ में भूपेश सरकार ने 30 दिनों के भीतर दो सीआरपीएफ कमांडरों की जान ले ली थी।
दरअसल वर्ष 2020 के 13 दिसंबर को माओवादियों द्वारा लगाए गए आईईडी विस्फोटक की चपेट में आकर सीआरपीएफ कोबरा के एक डिप्टी कमांडेंट समेत 3 जवान गंभीर रूप से घायल हुए थे। इनमें से बटालियन के डिप्टी कमांडेंट विकास सिंघल उपचार के दौरान बलिदान हो गए थे।
उस दौरान 30 दिनों के भीतर सीआरपीएफ के किसी अधिकारी स्तर के जवान के बलिदान होने की यह दूसरी घटना थी। इस घटना ने छत्तीसगढ़ प्रदेश में सत्ताधारी भूपेश बघेल सरकार द्वारा चलाई जा रही राजनीति को पूरी तरह उजागर किया था।
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक उस रात जिस घटना में विकास सिंघल घायल हुए थे, फिर उपचार के दौरान उनकी मृत्यु हुई, उस ऑपरेशन से जुड़े सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बाद में खुलासा किया था कि छत्तीसगढ़ सरकार लगातार श्रेय लेने की होड़ में जवानों के सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही थी। छत्तीसगढ़ प्रदेश की भूपेश सरकार के श्रेय लेने की होड़ की वजह से सीआरपीएफ के जवानों की जान जा रही थी।
उनका कहना था कि छत्तीसगढ़ की सरकार माओवादियों के गढ़ में लगने वाले कैंप की जानकारियां विज्ञापन के जरिए दे रही थी, जबकि बहुत काम बाकी था, लेकिन कांग्रेस सरकार ने पहले से ही जानकारियां लीक कर दी थी।
जिन दो जवानों ने उन 30 दिनों में बलिदान दिया था, उन दोनों की घटनाएं उस वक्त हुई थी जब सीआरपीएफ का कोबरा बटालियन माओवादियों के गढ़ में नए कैंप स्थापित करने वाले मार्ग की तरफ बढ़ रहा था। इसके अलावा दोनों घटनाएं माओवादियों के गढ़ सुकमा जिले में हुई थी।
प्रदेश सरकार के अलावा वरिष्ठ केंद्रीय सुरक्षाबल के अधिकारियों में स्थानीय पुलिस की भूमिका को लेकर भी निराशा और क्रोध था। दरअसल स्थितियाँ ऐसी निर्मित की जा रही थी, कि कोबरा के एक्सपर्ट जहां पर कैंप को स्थापित करने की योजना बनाते थे उसे जिला पुलिस कप्तान द्वारा बदल दिया जाता था। इसकी वजह से सीआरपीएफ के जवानों को खामियाजा भुगतना पड़ रहा था।
इस पूरे मामले को लेकर एक सीआरपीएफ अधिकारी का कहना था कि यदि माओवादी क्षेत्र की पूरी जिम्मेदारी सीआरपीएफ को दे दी जाए तो बहुत ही कम समय में माओवादियों को खत्म किया जा सकता है।
उनका मानना था कि स्थिति ऐसी है कि स्थानीय पुलिस को जो भी इनपुट मिलता था, वह थाना स्तर तक पहुंचते-पहुंचते लोगों के व्हाट्सएप पर भी पहुंच जाता था। कई बड़ी योजनाएं लीक हो जाते थी और स्थितियां और बुरी हो जाती थी।
सीआरपीएफ अधिकारी खुलकर कह रहे थे कि छत्तीसगढ़ सरकार को यह बखूबी मालूम है कि माओवादी क्षेत्रों में नए कैंप स्थापित करने के बाद से माओवादी परेशान हैं और उसके बावजूद कांग्रेस सरकार ने सभी कैंपों के ठिकाने सार्वजनिक कर दिए थे। इसके बाद माओवादियों द्वारा इन क्षेत्रों में विस्फोटक बिछाया गया, जिसकी चपेट में आकर 30 दिनों में 2 कमांडर बलिदान हो गए थे।
दरअसल इन सभी गतिविधियों को उन संकेतों के आधार पर देखा और समझा जा सकता है जब कांग्रेस के नेता माओवादी आतंकियों को क्रांतिकारी कहते हैं। कांग्रेस के नेता, उनके शीर्ष नेतृत्वकर्ता और उनके वकील शहरी माओवादियों (अर्बन नकल्स) के समर्थन में बयान देते हैं, और तो और खूंखार माओवादी मुख्यधारा में लौटने के बाद कांग्रेस के ना सिर्फ नेता बनते हैं बल्कि उन्हें तेलंगाना जैसे राज्यों में मंत्री भी बनाया जाता है।
अब यह कहीं ना कहीं इस ओर संकेत करता है कि कांग्रेस पार्टी परोक्ष रूप से कम्युनिस्ट विचार के समर्थन के साथ-साथ उसके अतिवादी समूहों से भी सहानुभूति रखती है, तभी छत्तीसगढ़ में सरकार रहने के दौरान माओवादियों के हौसले पूरी तरह से बुलंद नजर आए, जो अब भाजपा की सरकार आने के बाद तिलमिलाए हुए दिख रहे हैं।