हर घर "अयोध्या" बने तभी सार्थक होगा रामराज्य का संकल्प

अयोध्या केवल एक नगर का नाम नहीं अपितु जीवन की संपन्नता, सुरक्षा स्नेह और सद्भाव का एक संदेश है। आने वाली पीढ़ी के लिये क्या आवश्यक है इसका मार्ग वर्तमान पीढ़ी को ही बनाना होगा। तभी रामराज्य की परिकल्पना सार्थक हो सकेगी।

The Narrative World    23-Dec-2023   
Total Views |

Representative Image

पाँच सौ वर्षों के निरंतर संघर्ष के बाद रामलला अपने जन्मस्थान अयोध्या में पुनः प्रतिष्ठित होने जा रहे हैं। यह अवसर केवल एक महातीर्थ की प्रतिष्ठापना का नहीं है अपितु यह संकल्प लेने का भी है कि हर घर अयोध्या बने। तभी भारतीय समाज जीवन और राष्ट्र पुनर्प्रतिष्ठित हो सकेगा।


अपने जन्मस्थान अयोध्या में रामलला की प्रतिष्ठापना हर भारतीय के लिये गौरव का क्षण हैं। पाँच सौ वर्षों में कितनी पीढ़ियाँ संघर्ष करते और यह सपना संजोये संसार से विदा हो गई कि वे यह आनंददायी दृश्य देख सकें। आज की पीढ़ी सौभाग्यशाली है कि वह अमरत्व के इन मनोहारी क्षणों की साक्षी बन रही है।


यह आनंद और उत्सव के क्षण तो हैं ही पर साथ में यह संकल्प लेने का समय भी है कि उन परिस्थितियों की पुनरावृत्ति न हो जिनके चलते पाँच सौ वर्षों के इस संघर्ष की स्थिति बनी और रामराज्य जैसी एक आदर्श राज्य व्यवस्था पराधीनता के घोर अंधकार में बदल गई। लेकिन अब रामराज्य स्थायी बने उसके लिये अयोध्या की संपूर्णता आवश्यक है।


अयोध्या केवल एक नगर का नाम नहीं अपितु जीवन की संपन्नता, सुरक्षा स्नेह और सद्भाव का एक संदेश है। आने वाली पीढ़ी के लिये क्या आवश्यक है इसका मार्ग वर्तमान पीढ़ी को ही बनाना होगा तभी रामराज्य की परिकल्पना सार्थक हो सकेगी।


रामराज्य की संकल्पना


रामराज्य विश्व की एक आदर्श शासन और समाज व्यवस्था है। इतिहास के पन्नों में इसका उल्लेख अपने अर्थशास्त्र में चाणक्य ने भी किया है और शुंग साम्राज्य के संस्थापक पुष्यमित्र शुंग ने भी। यदि हम इतिहास के विवरण की चर्चा न करके केवल आधुनिक संदर्भों की चर्चा करें तो स्वाधीन और आत्मनिर्भर भारत केलिये रामराज्य को प्रतीक मानकर एक आदर्श राज्य व्यवस्था की कल्पना की थी।


रामराज्य व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र जीवन केलिये एक आदर्श संकल्पना है। जिसमें सब सुखी हों, सभी जन निरामय हों। किसी को न कोई दैहिक संताप हो, न भौतिक और न कोई दैविक कष्ट हो। दैहिक संताप में केवल शरीर को रोग भर नहीं है। वे सभी संताप, तनाव और दर्द दैहिक माने गये हैं जिनका शरीर के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।


शरीर को केवल बीमारियों से ही कष्ट नहीं होता, आर्थिक संकट और मानसिक व्याधियों से भी शरीर को कष्ट होता है। यदि मतिभ्रम या नकारात्मक सोच से कोई विपरीत निर्णय लिया और समस्या आईं, परिवार ही नहीं सामाजिक जीवन भी प्रभावित हुआ तो यह भौतिक संताप में माना जाता है।


दैविक संताप का संबंध धरती, जल, अग्नि, आकाश और वायु पंचतत्वों से होता है। प्रकृति के प्रत्येक प्राणी का जीवन ही नहीं फल, फूल, पेड़, पर्वत नदी, सरोवर इन सभी का जीवन इन पाँचों तत्वों के संतुलन से चलता है इनके असंतुलन से आँधी, तूफान, बाढ़, भूकंप, और प्रलय आती है। यह संताप दैविक माने गये हैं।


रामराज्य का समाज जीवन इन संतापों से परे होता है। सभी संतापों से परे समाज जीवन कोई कल्पना भर नहीं है। संकल्प शक्ति के साथ ऐसा जीवन जिया जा सकता है। यह बात हम सब जानते हैं कि संतुलित जीवन, उचित आहार, उचित शिक्षा, संस्कारित दिनचर्या, सकारात्मक विचार और जीवन शैली से मनुष्य की मानसिक और बौध्दिक क्षमता श्रेष्ठ श्रेष्ठ बनती है, स्वास्थ्य उत्तम रहता है। ऐसा मनुष्य पुरुषार्थी और प्रतिभा संपन्न होता है। विसंगतियाँ उसके पास फटकती तक नहीं। उसकी जीवन शैली से आंतरिक समस्याएँ उत्पन्न ही नहीं होतीं। यह एक ऐसे समाज जीवन की कल्पना है जिसमें व्यक्ति, परिवार और समाज के सामने आंतरिक समस्याएँ तो उत्पन्न होतीं हीं नहीं यदि कोई वाह्य समस्या आई तो वह उसके समाधान में सक्षम होता है। ऐसे सक्षम और संकल्पवान समाज रचना को रामराज्य और उनके निवास को "अयोध्या" कहा गया है।


अयोध्या केवल नाम नहीं आदर्श जीवन शैली का सिद्धांत है


अयोध्या किसी नगर या परिक्षेत्र का केवल नाम नहीं अपितु यह एक संपूर्ण समाज जीवन की शैली का सिद्धांत है। एक ऐसी शैली जिसमें परंपराओं का पालन, संस्कार, स्नेह, सद्भाव, समृद्धि की संपूर्णता के साथ सुरक्षा के भी सभी प्रबंध हों। उसे "अयोध्या" कहा गया है। व्याकरण की दृष्टि से देखें तो अयोध्या "संज्ञा विशेषण" शब्द है अर्थात ऐसा शब्द जो किसी स्थान या परिसर के नाम का संबोधन तो है और कुछ विशेषताएँ भी हैं। इसकी शब्द रचना दो प्रकार की है और दो अर्थ भी। लेकिन दोनों अर्थ का आशय एक है। पहला अर्थ अयोध्या वह जो युद्ध से परे है।


दूसरा आयुध की विशिष्टता का। युद्ध के उपकरणों को आयुध कहा जाता है। तब प्रश्न उठता है कि यदि कोई स्थल युद्ध से परे है तो वहाँ आयुध श्रेष्ठता की आवश्यकता क्यों होगी। पर यह अर्धसत्य है। कोई समाज या राष्ट्र शाँति का पुजारी हो सकता है। उसके सभी निवासी परस्पर स्नेह सद्भाव से रहते हैं पर वाह्य संकट आने पर उनका सामना कैसै होगा। जब भी कोई समाज या क्षेत्र की समृद्ध होता है तब बहुत से तत्वों का ध्यान आकृषित होता है। चोर लुटेरे घर में घुसकर संपत्ति हरण का प्रयत्न करते हैं। दुनियाँ ऐसे समाज समूहों से भरी पड़ी है जो न स्वयं चैन से जीते हैं और न दूसरों को जीने देते हैं।


ऐसे तत्व सदैव शांत और समृद्ध क्षेत्रों में अतिक्रमण करते हैं या आक्रमण करते हैं। इसे भारत के इतिहास से आसानी से समझा जा सकता है। भारत इतना शिक्षित था कि विश्व गुरु कहा जाता है, इतना संपन्न था कि सोने की चिड़िया कहा जाता था। शाँति का पूजारी ऐसा कि शाँति और अहिंसा का संदेश पूरी दुनियाँ में पहुँचा। वस यहीं चूक हुई। सत्य, धर्म और शाँति की रक्षा के लिये शस्त्र सामर्थ्य भी जरूरी होता है। रामजी इस सत्य को समझते थे। इसीलिए रामजी सदैव अपने कंधे पर धनुष बाण रखते थे।


तापस वेष में वनयात्रा पर गये तो भी काँधे पर धनुष बाण लेकर। वनवास से लौटकर राज्याभिषेक पूजन पर बैठे तब भी धनुषबाण काँधे पर था। समागम में आये संतों के चरण पखारते समय पर धनुष बाण काँधे पर। राम चक्रवर्ती सम्राट थे। आसुरी शक्तियों का दमन हो चुका था। वे मानसिक और बौध्दिक दृष्टि से भी बहुत समृद्ध थे।


शस्त्र और शास्त्र शिक्षा की सम्पूर्णता के साथ कुल की रीति नीति और परंपराओं के प्रति समर्पित। उनके पालन में उन्हे प्राणों की परवाह भी नहीं थी। वे एक ऐसी आचार संहिता के पालन के प्रति संकल्पवान थे। जो आन्तरिक और वाह्य दोनों प्रकार की सामर्थ्य से युक्त थी। यही रामराज्य है और जहाँ रामराज्य है उस परिक्षेत्र का नाम अयोध्या है। एक ऐसे समाज से युक्त जो आंतरिक और वाह्य समस्याओं का समाधान करने में सक्षम हो वह भी अपनी परंपराओं और रीति नीति के अनुपालन के साथ।


राम के आदर्श और अयोध्या की संरचना हर घर में आवश्यक


राम हमारे आदर्श हैं और अयोध्या हमारा तीर्थ है लेकिन इसकी सार्थकता तब होगी जब राम के आदर्श हमारे जीवन में होगी और अयोध्या की विशेषता हमारे घर में हो। कुल की परंपराओं का पालन, मर्यादित जीवन लेकिन श्रम, साधना और संकल्प के साथ। वे शस्त्र संचालन में भी उतने ही निपुण थे जितने शास्त्र ज्ञान में। उचित व्यक्ति से उचित व्यवहार और किसे गले लगाना किसे नहीं यह विवेक भी रामजी में था। और अयोध्या नगर को देखिये। वह ऋषियों के आवागमन का केन्द्र था अर्थात ज्ञान से संपन्न, समृद्धि इतनी कि किसी को अभाव नहीं कोई भिक्षुक नहीं और सामरिक शक्ति इतनी कि शत्रु स्वप्न में अतिक्रमण करने का विचार न कर सकें।


राम का जीवन और अयोध्या नगर की रचना या शैली का स्वरूप आज के जीवन के लिये भी कितना आवश्यक है यह अब किसी से छिपा नहीं रह गया है। भारत की समृद्धि बढ़ने जीडीपी बढ़ने से कितनी घुसपैठ बढ़ने लगी है इसके आकड़े अक्सर समाचारपत्रों में आते हैं। सनातनी परिवार अपनी श्रम साधना से प्रगति कर रहे है। बेटे बेटियाँ टाॅपर हो रहे हैं तब घरों में अतिक्रमण हैं। सनातनी परिवारों की व्यसतता का लाभ उठाकर अवांछित तत्व बेटियों को भ्रमित कर रहे हैं। उनके मन मानस को ही नहीं कुल परंपराओं से भी विमुख कर रहे हैं।


इसी प्रकार बेटों को पथभ्रष्ट करने के षड्यंत्र भी चल रहे हैं। यदि हम राम को अपन आराध्य मानते हैं। राम हमारे आदर्श हैं तो हमें अपने बच्चों को, आने वाली पीढ़ी को संस्कारो और कुल परंपराओं से जोड़ना होगा। प्रगति करने का अर्थ कुल मर्यादा को त्यागना नहीं होता। उनका पालन करके आगे बढ़ना यही राम के जीवन का संदेश है। इसलिये आवश्यक है कि हम संकल्पवान बनें और अपने घर को संस्कार केन्द्र बनाये।


हमारे घर शिक्षा की दृष्टि से, आर्थिक संपन्नता की दृष्टि से, प्रगति की दृष्टि से तो समृद्ध हों ही साथ ही सुरक्षा की दृष्टि से समृद्ध हों। ताकि किसी का साहस हमारे घरों में अतिक्रमण करने या संक्रमण करने का साहस न हो सके। और यदि कोई दुस्साहस करता है तो उसे उसी शैली में प्रति उत्तर दिया जा सके। ऐसे बौद्धिक, सामरिक, और संपन्नता से सुरक्षित स्थान का नाम ही अयोध्या होता है। हमारा पूरा देश अयोध्या बने, हमारा प्रत्येक घर अयोध्या बने आज ऐसा ही संकल्प लेने की आवश्यकता है।

लेख

रमेश शर्मा

वरिष्ठ पत्रकार