राम : मनुज या ईश

एक देवता उच्छऋंखल भी हो सकता है, पर मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता। और अगर वह उच्छऋंखलता करता करता है, तो वह पदच्युत होकर दानव या राक्षस की श्रेणी में शामिल हो जाता है । मर्यादा मनुष्य की शक्ति है और उसकी सीमा भी वही है।

The Narrative World    28-Dec-2023   
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राम तुम मानव हो
, ईश्वर नहीं हो क्या?

तब मैं निरीश्वर हूं, ईश्वर क्षमा करे।।

- मैथिलीशरण गुप्त


राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं और कृष्ण लीला पुरुषोत्तम। जाहिर है यह भूमिका राम का अपना चुनाव था। हालांकि यह चुनाव करते हुए उन्हें मर्यादा शब्द की सीमाओं का भी एहसास था। मर्यादा आपको सुरक्षा देती है लेकिन कुछ अप्रत्याशित करने या असीमित हो पाने का अवसर भी छीन लेती है।


कृष्ण ने अपनी लीलाओं से बार-बार हमें चौंकाया है। अनेक बार या तो सीमाओं का अतिक्रमण किया है या फिर स्वयं मर्यादा का ही। पर राम को यह सुविधा हासिल नहीं। उन्हें अपना एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रखना था। मर्यादा और संयम की प्रतिमूर्ति बनकर।


राम ने निरंतर अपने जीवन व कार्यों से अपने को मनुष्य साबित करने की चेष्टा की है। और यह कहना चाहा है कि देवता होने से बहुत बहुत मुश्किल है इंसान होना आखिर इंसान को बुढ़ापा, मृत्यु जैसी सीमाओं से बंध कर अपनी भूमिका निबाहनी होती है। रिश्तों नातों की मर्यादा का भी पालन करना होता है।


एक देवता उच्छऋंखल भी हो सकता है, पर मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता। और अगर वह उच्छऋंखलता करता करता है, तो वह पदच्युत होकर दानव या राक्षस की श्रेणी में शामिल हो जाता है मर्यादा मनुष्य की शक्ति है और उसकी सीमा भी वही है।


मनुष्यत्व को देवत्व के पतन की परिणति के रूप में देखा जाता रहा है। पर राम ने अपने जीवन के उदाहरण से इस मान्यता को नकारा है। जो गुण देवत्व से अलग मनुष्यत्व को अनूठी भूमिका और अवस्थिति प्रदान करते हैं, वे हैं--उसका प्रेम भाव और सामाजिक सहकार की भावना। विवाह नामक संस्था की स्थापना मानव जाति की महानतम खोजों में से एक है। राम ने यहां भी तत्कालीन समय में पनप आई विकृति को सुधारा है।


राजा-महाराजाओं के लिए प्रचलित बहुपत्नित्व के स्थान पर उन्होंने एकपत्नीधर्म को निबाहा। यही नहीं अपहरण हो जाने पर किसी साधारण प्रेमी की तरह पत्नी के लिए भटके भी और उसे वापस प्राप्त करने के लिए युद्ध भी लड़ा। परिवार की धूरि के रूप में नारी की केंद्रीय स्थिति की यह प्रत्यक्ष स्वीकृति थी। और विकृत हो चुकी परंपराओं के प्रति यह राम का मर्यादित विद्रोह था।


राम रावण युद्ध के प्रसंग में यह तथ्य ध्यातव्य है कि रावण से लड़ने के लिए अयोध्या से सेना बुला लेना राम के लिए बहुत आसान विकल्प था। परंतु उन्होंने दूसरा और कठिनतर मार्ग चुना। (रीक्ष या बंदर का आज प्रचलित शाब्दिक अर्थ नहीं लेना ही उचित होगा।


संभव है यह जंगली जीवन जीने वाली मनुष्य की प्रजाति हों। पर) यह अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है कि इन जनजातियों को रावण की शस्त्र सज्जित, युद्ध कुशल सेना का सामना करने के लिए प्रशिक्षण राम ने ही दिया होगा। उनमें एकजुटता, तालमेल और संगठन का विकास किया होगा। उत्कृष्ट वह अतुलनीय नेतृत्व क्षमता का यह एक अनूठा उदाहरण है।


मृत्यु मनुष्य की अपरिहार्य नियति है। पर यही नियति उसे सजग भी तो करती है एक समय सीमा के अंदर अपने पुरुषार्थ का परिचय देने की प्रेरणा भरती है। मानवता के इतिहास में अमर कहलाने का अवसर प्रदान करती है। आखिर यह क्यों भुलाया जाए कि बड़े-बड़े देवता भी मनुष्य योनि प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि इंसान मृत्यु से आक्रांत नहीं रहता। पर इस भय के कारण के रूप में उसकी मरणधर्मिता को नहीं वरन उसकी क्षुद्रता को समझा जाना चाहिए, जो उसकी आत्मकेंद्रित जीवन शैली की उपज है।


रावण जैसा ज्ञानी व पराक्रमी भी मृत्यु से भयभीत था। उसका सारा जीवन अपने अंदर के इस भय से लड़ने का अनथक प्रयास प्रतीत होता है। पर आज जरा राम और रावण की उपलब्धियों पर अलग अलग दृष्टि डालिए। अंततः जीवन की वह वह संचित निधि क्या है जो आप को अमरत्व की दिशा में ले जाती है? निश्चय ही वह ज्ञान, बल, ऐश्वर्य या अधिकार में से कुछ भी नहीं है। क्योंकि इन गुणों का कोश रावण से ज्यादा उस समय किसी के पास नहीं था। पर बावजूद इन गुणों के वह मनुष्यत्व के पतन का प्रतीक पुरुष साबित हुआ।


आख़िरकार मायने यह बात रखती है कि आपने अपने इन गुणों का इस्तेमाल मानवता के स्तर को ऊंचा उठाने में कैसा और कितना किया। आपके द्वारा तय किया गया जीवन लक्ष्य निजी महत्वाकांक्षाओं के बेलगाम होने की परिणति है या मानव जाति के व्यापक हित की प्रेरणा से परिचालित। रावण का जीवन यदि ज्ञान व क्रिया के असामंजस्य का उदाहरण है तो राम का जीवन वृत्त इस बात की सबसे शानदार मिसाल है कि ज्ञान व क्रिया की अभिन्नता से जीवन कितना सुंदर व अनुकरणीय हो जाता है।


राम मानवता के विकास की सबसे उन्नत संभावना के प्रतीक पुरुष हैं। उनका मानवता के लिए सबसे बड़ा योगदान शायद यही है कि उन्होंने मानव होने को वह ऊंचाई उपलब्ध कराई कि देवता भी उसके लिए तरसें। उन्होंने अपने जीवन के उदाहरण से यह संदेश दिया कि मर्यादा तभी स्वाभाविक होती है अगर वह अंतस की प्रेरणा से परिचालित हो। जब मर्यादा पालन के केंद्र में मानव मात्र के प्रति असीम प्रेम व करुणा का समावेश रहे, तभी वह आपके जीवन को उच्चतर आयाम में प्रतिष्ठित करती है।


लेख


संतोष पंडा

परास्नातक शिक्षक

जवाहर नवोदय विद्यालय