6 दिसंबर की वह रात!

अंधेरा गहराते ही रामलला की मूर्तियाँ लाई गई। और इस एक बात पर मैं आज भी आश्चर्यचकित हूँ कि जब ढाँचा बगैर किसी योजना के ढहाया जा रहा था, तो मूर्तियाँ सही सलामत कैसे बचा ली गईं। और उन्हें मलबे में से कैसे निकाल लिया गया।

The Narrative World    06-Dec-2023   
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वह 1992 के 6 दिसम्बर की रात थी। अयोध्या में श्रीरामजन्भूमि पर विवादित ढाँचे के आसपास तूफान के बाद की खामोशी का मंजर था। कार सेवक, पत्रकार, नेता और तमाशाई सब जा चुके थे। मगर कुछ शक्तियाँ अब भी अपने काम में चुपचाप लगी थीं। और इन शक्तियों के पीछे मैं भी चुपचाप एक गँवार देहाती की तरह लगा हुआ था। मेरे मन में उस समय यही विचार घूम रहा था कि अगर किसी को तनिक भी मेरी मौजूदगी और मेरे पत्रकार होने का भान हो गया, तो फिर मेरे लिए जान बचाना भी मुश्किल है। क्योंकि उस ढाँचे के गिरने के बाद भी सबसे रहस्यमयी, रोमांचक और नया इतिहास रचने वाली एक घटना वहाँ अब भी होने को थी। मैं चुपचाप रहकर उस रात के घुप्प अंधेरे और दाँतो को किटकिटा देने वाली ठंड में कुछ टिमटिमाते दीयों, लालटेन और टॉर्च की रोशनी में हिलती-डुलती मानवीय आकृतियों को किसी भुतहा हिंदी फिल्म के दृश्यों की तरह को डरते-सहमते देख रहा था। रामसे ब्रदर्स की भुतहा फिल्मों से लेकर हॉलीवुड की खतरनाक भुतहा फिल्मों को तीन घंटे देखना एकबारगी रोमांच का काम हो सकता है, मगर उससे भी ज्यादा खौफनाक दृश्य को एक बिन-बुलाए मेहमान की तरह देखना कतई भी साहस का काम नहीं था।


ढाँचे का मलबा कुछ साफ हो जाने पर मुझे दिखा कि वहाँ कुछ ही लोग बचे थे। तभी एक व्यक्ति को यह कहता सुनाई दिया, "अब रामलला की प्राणप्रतिष्ठा कर उनका विग्रह इस जगह पर स्थापित करना है और उसके आसपास ईंटों का या कपड़ों का घेरा बना देना है। नहीं तो, कल कोई अदालत जाकर स्टे लेकर आ सकता है, फिर हम रामलला को कहाँ बिठाएँगे?" ये सुनते ही मुझे भी अहसास हुआ कि मैं यह भूल ही गया था कि असली मुद्दा ढाँचा तोड़ना नहीं, बल्कि राम मंदिर बनाना है। मुझे लगा था कि अगले दिन यानि 7 दिसंबर की सुबह से राम मंदिर का काम शुरु होगा। पर यह तो अभी ही, रात के घुप्प अंधेरे में हो रहा था। लेकिन क्यों? यह जिज्ञासा पैदा होते ही कड़कड़ाती ठंड में भी मेरे शरीर में मानों गर्मी का संचार हो गया। मानों मेरे शरीर ने यह भान ही खो दिया कि मैं यहाँ सुनसान-सी जगह में, तीखी ठंडी हवा के बीच, बगैर गरम कपड़ों के ठिठुर रहा हूँ। पेशे का रोमांच और लक्ष्य पर टिके रहना क्या होता है; मैं पहली बार इसका अनुभव कर रहा था।


अब मैं भी पक्का कारसेवक बनकर इन परछाइयों का पीछा करता रहा। अंधेरा गहराते ही रामलला की मूर्तियाँ लाई गई। और इस एक बात पर मैं आज भी आश्चर्यचकित हूँ कि जब ढाँचा बगैर किसी योजना के ढहाया जा रहा था, तो मूर्तियाँ सही सलामत कैसे बचा ली गईं। और उन्हें मलबे में से कैसे निकाल लिया गया।


खैर, इधर कुछ साधुओं, पंडितों और कुछ कारसेवकों ने मिलकर रामलला के विग्रह की विधि-विधान से प्राण प्रतिष्ठा कर दी और तत्काल इसके चारों ओर ईंटो की एक छोटी-सी चारदीवारी बनाकर उसपर कपड़ा या कहें कि कनात बांध दी। वही कनात और कपड़ा आज तक राम लला की रक्षा करता रहा है। अजीब संयोग देखिये कि इधर तो रामलला की प्राणप्रतिष्ठा हो रही थी, और उधर फैजाबाद व अयोध्या की मस्जिदों से अजान की आवाजें आ रही थी। प्राणप्रतिष्ठा के मंत्रों, घंटियों और शंख आदि की ध्वनियों में अजान की आवाज़ भी घुल चुकी थी। ऐसा लग रहा था मानो रामलला की प्राणप्रतिष्ठा पर मस्जिदों से भी स्वस्ति वाचन हो रहा है।


इस बीच मेरे मन से उन हिलती-डुलती मानवीय आकृतियों का खौफ़ जाता रहा। वे मेरे पास प्रसाद लेकर आए और कहने लगे, "पक्के और सच्चे राम भक्त लगते हो, तभी तो इतनी ठंड में भी रामलला के दर्शन करने आए हो। तुम पहले दर्शनार्थी हो।" उनमें से एक के कहने पर वहाँ रामलला की आरती हुई। मैने भी आरती और प्रसाद ग्रहण किया।


थोड़ी ही देर में कुछ साधु-संत और शायद विश्व हिंदू परिषद या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता वहाँ और भी कुछ लोगों को लेकर आए और उनसे कहा कि अभी हममें से कोई भी यहाँ से नहीं हटेगा। अगर हम हट गए, तो पुलिस या सीआरपीएफ वाले मूर्तियाँ हटा देंगे। इसलिए सुबह तक हम यहाँ रामायण पाठ करेंगे। मैं भी रामायण पाठ करने वाले उन भक्तों में घुल-मिल गया। अब मेरी हिम्मत ही नहीं हो रही थी कि मैं वहाँ से होटल की तरफ जाऊँ या तिरुपति और अयोध्या होटल में ठहरे पत्रकारों को बताऊँ कि यहाँ क्या हो रहा है।


धीरे धीरे वहाँ भक्तों की संख्या बढ़ने लगी और लगभग तीन-सौ से चार-सौ कारसेवक तथा स्थानीय भक्त वहाँ रामायण पाठ में जुड़ गए। ठंड से बचाने के लिए वहाँ अलाव भी जला दिए गए थे। इससे मुझे लगा कि अब रात भर यहीं रहना ठीक है। थोड़ी देर में प्रसाद के रूप में भोजन भी आ गया। शुध्द घी का खाना खाकर मुझे भी तृप्त हुई।


दिसंबर की ठंडी काली रात और आसमान में टिमटिमाते तारों के नीचे वहाँ खुले में रामायण का पाठ मेरे लिए एक अजीब और सिहरन पैदा करने वाला अनुभव था। बार बार मुझे लग रहा था कि यहाँ कभी भी कुछ हो सकता है। आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था। आधी रात होते ही एक आदमी ने मेरे पास आकर कहा, "तुम कहाँ से आए हो?" मैंने कहा, "उज्जैन से।" उसने पूछा, "तुम्हारे बाकी साथी कहाँ है?" "होटल में हैं", मैंने जवाब दिया। मैंने समझा कि वह मेरे पत्रकार साथियों की बात कर रहा होगा। लेकिन मेरा जवाब सुनकर उसने कहा, "हमने सब होटलें खाली करवा दी है और सबको स्टेशन भेज दिया है।" ये सुनकर मैं डर गया। पर उसने आगे पूछा, "तुम कितने लोग साथ आए थे?" मैंने कहा, "मैं तो अकेला आया था।" तो उसने कहा, "झूठ मत बोलो, पीछे देखो, हमने सब लोगों को स्टेशन भेज दिया है।" मैंने पीछे देखा तो आधे से ज्यादा लोग गायब थे। फिर उसने अपना परिचय देते हुए कहा, "हम सीआरपीएफ वाले हैं। तुम अपने साथियों को स्टेशन के साथ स्टेशन जाओ। हमने अपनी सीआरपीएफ की ट्रकों में भर-भर कर रातभर में सभी कारसेवकों को स्टेशन भेज दिया है, और उन्हें कहा है कि जिसे जो गाड़ी मिले, उसीसे चले जाओ, नहीं तो सुबह गोली चल सकती है।"


फिर मुझमें अचानक कहीं से हिम्मत आई, और मैंने उससे कहा, "मैं कार सेवक नहीं हूँ, पत्रकार हूँ। मैं तो शाम से यहाँ फँसा हूँ। मेरे साथी ढाँचा टूटते ही बिछुड़ गए और मैं यहीं रह गया।" इस पर वो मुझे पास के ही सीआरपीएक के कैंप में अपने वरिष्ठ अधिकारी के पास ले गया। उस अधिकारी ने मुझसे पूछा कि रात भर में यहाँ क्या हुआ, कौन कौन आया था। तो मैने कहा कि मैं तो खुद उज्जैन से आया हूँ, मैं यहाँ किसी को नहीं जानता। मेरी बातों से वो अधिकारी संतुष्ट नजर आया। उसने मेरे लिए चाय मंगवाई और कहा कि तुम हमारा एक काम करना। कोई कारसेवक कहीं छिपे हुए हों, तो हमें बताना, क्योंकि हम पूरे अयोध्या और फैजाबाद को बाहर के लोगों से खाली करवाना चाहते हैं।


चाय पीकर मैं वापस भजन गाने वालों के बीच बैठ गया। जैसे तैसे सुबह हुई। फिर भी मुझे लग रहा था कि यहाँ कुछ अनहोनी होने वाली है। मन में एक अजीब सा डर और रोमांच पैदा हो गया था। लेकिन अब जरा दिल थामकर बैठिये, इस जगह पर जहाँ रात भर कीर्तन भजन और रामायण का पाठ चला, वहाँ इतिहास अब एक नयी करवट लेने वाला था। इसका अंदाजा वहाँ मौजूद गिने चुने लोगों सहित मुझे और चारों ओर गिद्ध दृष्टि से हर एक को घूरते हुए पुलिस व सीआरपीएफ के जवानों को भी नहीं था।


अगली सुबह सात बजे के लगभग रामलला का पुजारी हाथों में पूजा की थाल, पूजा-सामग्री, घंटी-घड़ियाल और चिमटा आदि लेकर आया। उसने जैसे ही रामलला की ओर कदम बढ़ाए, वहाँ मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उसे रोक दिया। उन्होंने उससे कहा कि वह मूर्तियों के पास नहीं जा सकता। वहीं जहाँ रातो-रात राम लला की मूर्तियों को कनात और कपड़े में ढंकने के साथ ही वहाँ दो-तीन फीट ऊंची दीवार भी बना दी गई थी। पुजारी ने उससे पूछते हुए कहा, "क्यों नहीं जा सकते? मैं तो रोज ठाकुरजी की पूजा और आरती करता हूँ।" तो इसपरसुरक्षा कर्मी ने कहा, "रोज करते होगे, पर आज तो वो हमारी निगरानी में हैं।" इस पर पुजारी ने कहा, "आप निगरानी करो, मैं तो पूजा करुंगा।" यह बहस बहुत तीखी हो रही थी। इस पर पुजारी ने चिल्लाकर कहा, "अगर मुझे पूजा नहीं करने दी, तो मैं शंख और चिमटे बजाकर अखाड़े वालों, साधु-संतों सबको बुला लाउंगा, फिर तुम जानना।" ये सुनकर वो सुरक्षाकर्मी घबरा गया। उसने कहा, "रुको! मैं अपने वरिष्ठ अधिकारियों से बात करता हूँ।" पुजारी ने कहा, "जल्दी करो, मेरी पूजा और आरती का समय हो रहा है।" उस अधिकारी ने वरिष्ठ अधिकारियों को वायरलैस सैट पर पूरे घटनाक्रम की जानकारी दी। इस घटना ने ने मेरी उत्सुकता बढ़ा दी। थोड़ी ही देर में वरिष्ठ अधिकारी ने वायरलैस पर सूचना दी, जो कि मैने भी अपने कानों से सुनी। अधिकारी ने कहा, "दिल्ली बात हो गई है। वहाँ से कहा गया है कि पूजा और आरती में कोई विघ्न न डाला जाए।" यह सुनते ही पुजारी सहित सभी सुरक्षाकर्मी और दूसरे लोग खुशी से उछल पड़े। सबने इतनी जोर से जयश्री राम का नारा लगाया कि आसपास के पंछी तक पेड़ों से उड़ गए।


अगला दृश्य तो और भी रोमांचक था। पुजारी आरती कर रहा था, और जो सुरक्षा सैनिक पूजा करने से रोक रहे थे, वो अपने जूते और चमड़े के बेल्ट उतारकर आरती गा रहे थे। अंदर पूजा चल रही थी और बाहर सुरक्षा में लगे सैनिक गा रहे थे


"भये प्रकट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी।

हरषित महतारी, मुनिमन हारी, अद्भुत रूप बिचारी॥

लोचन अभिरामा, तनु घनस्यामा, निज आयुध भुजचारी।

भूषन बनमाला, नयन बिसाला, सोभासिंधु खरारी॥


ऐसा लग रहा था मानो तुलसी दासजी ने ये आरती और छंद इसी दिन के लिए ही लिखे थे। इस आरती के बाद सबने "श्री रामचंद्र कृपालु भजमन हरण भव भय दारुणम" गाकर पूजा का समापन किया।


लेकिन एक दृश्य देखकर मैं भी चौंक गया। जो सुरक्षा कर्मी पुजारी को आरती करने से रोक रहा था, उसकी आँखोँ से अविरल आँसू बह रहे थे, वह अपने साथी से कह रहा था, "आज मैं बहुत बड़े पाप से बच गया। अगर आज मेरी वजह से यहाँ आरती और पूजा नहीं होती, तो मैं किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रहता।" उसका दूसरा साथी भी भीगी आँखों से उसे समझाने की कोशिश कर रहा था। मैने देखा कि सभी सुरक्षा सैनिकों की आँखें भीगी हुई थी और वे बार बार अपने आँसू रोकने का प्रयास कर रहे थे।


इधर आरती का समापन हुआ और थोड़ी ही देर में फैजाबाद के निलंबित जिलाधीश आर. एन श्रीवास्तव और एसएसपी डीबी रॉय भी वहाँ आ पहुँचे, दोनों ने प्रसन्न मन से राम लला के दर्शन किए।


अब आपको दो रहस्य और बता देना चाहता हूँ। पहला तो ये कि ढाँचे मलबे में से राम लला की मूर्तियाँ सुरक्षित कैसे निकाल ली गई। इसकी मैने खोजबीन की तो पता चला कि ढाँचे के टूटने का अंदेशा होते ही राम लला की मूर्तियों की सुरक्षा की व्यवस्था कर ली गई थी।


और आखिर में एक और चौंकाने वाली बात। सर्वोच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश सरकार और राम जन्म भूमि आंदोलन के नेताओं ने आश्वासन दिया था कि बाबरी मस्जिद परिसर में कोई निर्माण कार्य नहीं किया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय की ओर से तत्कालीन गृह सचिव श्री वनोद ढाल को पर्यवेक्षक बनाया गया था। श्री विनोद ढाल सुबह से लेकर ढाँचा टूटने तक एक वीडियो कैमरा और दूरबीन लिए ढाँचे के बायीं ओर बनी सीतारसोई (ये भी एक महल जैसा भवन है।) की छत पर बैठे थे। श्री विनोद ढाल 1985 में उज्जैन के संभागायुक्त रह चुके थे और उनसे मेरी अच्छी दोस्ती थी। उनसे मैने पूछा की आपके सामने ही ढाँचा टूटता रहा और आप कुछ नहीं कर सके। तो उन्होंने चौंकाने वाला उत्तार दिया- मेरा काम ये देखना था कि यहाँ कोई निर्माण कार्य ना हो, टूटने के संबंध में मेरे पास कोई निर्देश नहीं थे।


तो ये है 1992 की रामकथा, जिसकी पटकथा श्री लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, साध्वी ऋतुंभरा, उमा भारती और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं ने लिखी थी। आज एक नई रामकथा शुरु हो रही है। और इसबार इसकी पटकथा लिखने की शुरुआत भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के हाथों हो रही है।


लेख


चंद्रकांत जोशी