कॉमरेड बृंदा करात को एक बस्तरिया का खुला खत: ईसाइयों को पीड़ित बताकर जनजातियों को दोषी दिखाना बंद करो!

जय जोहार! हाल ही में मैंने आपका एक लेख पढ़ा, जिसका शीर्षक था "छत्तीसगढ़ में ईसाई समुदाय पर हमला : एक संघी एजेंडा, जिसका जनजाति संस्कृति की रक्षा से कोई लेना-देना नहीं है", जिसमें आपने छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके लोगों से जुड़ी कुछ घटनाओं की बात की है।

The Narrative World    15-Feb-2023   
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brinda karat
बृंदा करात जी
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जय जोहार! हाल ही में मैंने आपका एक लेख पढ़ा, जिसका शीर्षक था 'छत्तीसगढ़ में ईसाई समुदाय पर हमला : एक संघी एजेंडा, जिसका जनजाति संस्कृति की रक्षा से कोई लेना-देना नहीं है', जिसमें आपने छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके लोगों से जुड़ी कुछ घटनाओं की बात की है।


मेरी समझ के अनुसार इस लेख में आपने ईसाइयों को पीड़ित, शोषित और वंचित दिखाने का प्रयास किया है, साथ ही बस्तर की जनजातियों को ही परोक्ष रूप से शोषक और प्रताड़ित करने वाला बताया है।


अपने लेख की शुरुआत को मार्मिक स्वरूप देते हुए आपने एक ईसाई महिला की बात की, जिसके साथ कथित रूप से स्थानीय ग्रामीणों ने मारपीट की और इसमें गांव के नेता और उसके परिजन भी शामिल थे।


आपने महिला के हवाले से बताया कि स्थानीय ग्रामीणों ने उसके पति के साथ भी मारपीट की और उस पर जबरदस्ती ईसाई धर्म छोड़कर पुनः हिन्दु बनने के लिए दबाव डाला गया।


खैर, इस बात की तो पुष्टि भी नहीं हुई है, लेकिन क्या अपने नारायणपुर जिले के गोर्रा गांव की उस महिला से मुलाकात की, जिसे ईसाइयों ने दौड़ा-दौड़ाकर पीटा था ?

क्या आपने उस महिला का दर्द समझने का प्रयास किया, जिसे सिर्फ इसलिए मारा गया क्योंकि वह अपने पुरखों की संस्कृति को छोड़कर ईसाई नहीं बनना चाहती ?


क्या आपने उस महिला से भेंट की जिसकी 3 वर्षीय छोटी बच्ची घर में अपनी मां की प्रतीक्षा कर रही थी, और बाहर ईसाई उस मासूम बच्ची की मां पर जानलेवा हमला कर रहे थे ?

क्या अपने उस महिला से बात करना उचित नहीं समझा जो प्रेस वार्ता कर अपने जख्म दिखा रही है और जो राज्यपाल से जाकर न्याय की मांग कर रही है ?


दरअसल आपका यही दोहरा मापदंड दिखाता है कि आपकी नियत न्याय की नहीं, बल्कि जनजातियों को दोषी दिखाने और ईसाइयों को प्रताड़ित दिखाने की है।


“आपने अपने लेख में इस बात का जिक्र किया कि एक महिला को कथित रूप से केवल इसलिए मारा गया क्योंकि उसने यीशु की प्रार्थना की, लेकिन आपने इस बात का उल्लेख क्यों नहीं किया कि एक नहीं, कई महिलाओं को 1 जनवरी, 2023 की सुबह ईसाइयों ने इसलिए मारा क्योंकि उन्होंने यीशु की प्रार्थना करने से मना कर दिया था ?”


क्या इन महिलाओं का कोई मानवाधिकार नहीं है ? क्या इन महिलाओं की अपनी धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है ? दरअसल सच्चाई यह है कि इन महिलाओं के साथ जो हुआ वो आपके एजेंडे को सूट नहीं करता है।


कथित रूप से उन पीड़ित महिलाओं को लेकर आपने आगे लिखा कि उनके द्वारा दर्ज की गई एफआईआर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।


और इस घटना को सामान्यीकृत करते हुए आपने लिखा है कि कांकेर
, कोंडागांव और नारायणपुर में 500 जनजाति परिवार ऐसी घटनाओं से आतंकित हैं।


दरअसल सच्चाई यह है कि ईसाइयों के द्वारा जिस तरह से जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में षड्यंत्रकारी नीतियां अपनाई जा रही हैं, साथ ही जनजातीय संस्कृति को निशाना बनाया जा रहा हैउससे जनजाति समाज का अस्तित्व खतरे में है।


आप जमीन पर आकर देखिए बृंदा जी, यहां जब हम जनजाति समाज के लोग देवगुड़ी का निर्माण करने की बात करते हैं तो कौन इसका विरोध करता है ?


हम जब ग्रामदेवी की उपासना के लिए पूरे गांव को एकत्रित करते हैं, तो कौन इसका बहिष्कार कर विरोध करता है ?


हम जब ईसाई बनने से इंकार करते हैं, तो कौन हमपर दबाव डालता है ? आखिर कौन हैं ये लोग ?

क्या आपने कहीं पर भी इस समस्या का उल्लेख किया ? आपने बस्तर की बात की, लेकिन क्या बस्तर की मूल संस्कृति को मानने वालों की राय पूछी ?


बृंदा जी, आपने अपने लेख में चर्चों में तोड़फोड़, प्रार्थना कक्ष में तोड़फोड़ और कथित हिंसा की बात की। नारायणपुर में चर्च हमले में हुई गिरफ्तारियों की बात की, लेकिन क्या अपने इस घटना के एक दिन पहले हुई हिंसा का जिक्र किया ?


आपने जिन घटनाओं का उल्लेख किया वह 2 जनवरी, 2023 को हुई, लेकिन उससे एक दिन पहले क्या हुआ था, क्या आपने यह जानने का प्रयास नहीं किया ?


खैर, आपने तो अपना एजेंडा परोसने का ही कार्य किया है, आपको मैं बताता हूँ कि 1 जनवरी, 2023 को क्या हुआ था।


दरअसल 1 जनवरी, 2023 की सुबह जब नारायणपुर के गोर्रा गांव (एड़का थानाक्षेत्र) में स्थानीय जनजाति ग्रामीण बैठक कर रहे थे, तब एक ईसाई पादरी के नेतृत्व में सैकड़ों ईसाइयों की भीड़ ने उनपर जानलेवा हमला किया था।


इस दौरान कई जनजाति ग्रामीणों को जान बचाने के लिए घटनास्थल से भागना पड़ा। कुछ जनजातीय पुजारियों को भी इस दौरान निशाना बनाया गया।


क्या आपने अपने लेख में कहीं भी इस घटना का जिक्र किया ? क्या आपने यह पता करने का प्रयास किया कि कैसे ईसाइयों ने इस तरह के हिंसक हमले को अंजाम दिया ?


बृंदा करात जी, आपने अपने लेख में यह भी आरोप लगाया है कि जनजातियों और ईसाइयों के बीच शव दफनाने को लेकर जबरन विवाद पैदा किया गया है।


एक बात बताइए, क्या कोई मुस्लिम अपने कब्रिस्तान में किसी सनातनी को अंतिम संस्कार करने की अनुमति देगा क्याक्या कोई ईसाई, अपने कब्रिस्तान में किसी सनातनी को अंतिम संस्कार की अनुमति देगा क्या ?


तो फिर ऐसी अपेक्षा जनजाति समाज से क्यों की जा रही है कि वह अपने पूर्वजों की, देवताओं की, अपने प्राकृतिक आराध्यों की भूमि पर ईसाइयों को अंतिम संस्कार करने की अनुमति दें ?


आप यह क्यों नहीं कहती हैं कि यदि इस क्षेत्र में सच में कानूनी तौर पर मतांतरण हुआ है, तो सभी ईसाई एकत्रित होकर ईसाई कब्रिस्तान की मांग करें ?


इससे उन्हें अपने लिए एक स्वतंत्र कब्रिस्तान भी मिल जाएगा और ईसाइयों की वास्तविक संख्या भी पता चल जाएगी।


इन सब के अलावा आपका कहना है कि जनजातीय क्षेत्रों में मंदिर बन रहे हैं, कीर्तन और भजन मंडलियां आयोजित की जा रही है, और इन सभी चीजों को अपने जनजाति संस्कृति से अलग दिखाने का प्रयास किया है।


बृंदा जी, दरअसल आपने बस्तर के बारे में केवल अपने कॉमरेडों से सुना है, उसे करीब से देखा नहीं है।


बस्तर का जनजाति समाज माँ दंतेश्वरी का उपासक है, कंकालिन देवी का आराधक है, आंगा देव पर भजन गाता है और गोंडी बोली में रामायण पर कीर्तन करता है, बस हमारा तरीका थोड़ा अलग है, लेकिन भाव और आस्था वही है।


अब देवी-देवताओं की उपासना स्थली का निर्माण देवी उपासकों की भूमि पर नहीं होगा तो कहां होगा ?


आपको तो यह पूछना चाहिए कि जब इस क्षेत्र में ज्यादा ईसाई ही नहीं हैं तो इतने अधिक चर्च और प्रार्थना स्थल किसके लिए बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं ?


आपने धर्मान्तरण कर चुके लोगों की घर वापसी का उल्लेख करते पूछा कि आखिर 'किस घर' की ओर इशारा किया जा रहा है।


तो इसका उत्तर यह है कि जब कोई भटक कर अपने घर से निकल जाता है, तो ऐसा प्रयास किया जाता है कि उसे उसके मूल घर तक पहुंचाया जाए। बस यही तो है घर वापसी। अपने मूल घरों से भटक कर बाहर चले गए लोगों को पुनः मूल में लेकर आना।


आपने अपने लेख में अलग सरना धर्मकोड की मांग की बात कही, लेकिन क्या आपने यह देखा कि देश में मौजूद जनजाति समाज का मात्र एक छोटा सा तबका ही इसकी मांग कर रहा है, जिसमें भी अधिकांश ईसाई समूह के लोग शामिल हैं ?


बृंदा जी, आपने अपने लेख में ग्राम सभा के अधिकार, परियोजनाओं का विरोध, चुनावी संदर्भ से लेकर दलीय राजनीति करने वालों का नाम लिया है।


चूंकि मैं किसी राजनीतिक दल से संबंधित नहीं हूँ, इसीलिए मैं इसे राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक और मुख्य रूप से एक बस्तरिया होने के नजरिये से देख रहा हूँ।


आप तो ठहरीं एक राजनीतिक चेहरा, ऊपर से कम्युनिस्ट पार्टी की नेता, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि ईसाइयों के बहाने आप खुद राजनीति कर रहीं हैं ?


हालांकि यह मैं केवल संदेह जता रहा हूँ, आप राजनीतिज्ञ हैं, आपका काम राजनीति करना ही है, लेकिन आपसे एक अनुरोध है कि आप बस्तर के विषय में जब अपनी बात रखें तो पहले बस्तर की मूल संस्कृति मानने वालों से मिल लें, उनकी राय ले लें, उनसे जमीनी सच्चाई को समझ लें।

क्योंकि आपने अपने एजेंडे के लिए आधी-अधूरी जानकारी को जिस तरह से सामने रखा है, उससे मूल जनजाति संस्कृति को मानने वाला समाज आहत हुआ है।


और एक अंतिम बात, बस्तर माँ दंतेश्वरी को मानने वालों, देव गुड़ी जाने वालों, जात्रा निकालने वालों, आंगा देव को पूजने वालों और ढोलकल गणेश से लेकर ग्राम देवता को पूजने वालों की भूमि है, यहां सभी धर्मों के लोगों को रहने का बराबर अधिकार है, लेकिन यह कहना अनुचित है कि बस्तर में मंदिर, देवी उपासना और आराधना क्यों हो रही है ?


धन्यवाद


एक बस्तरिया