कथित क्रांति के नाम पर नहीं थम रहा निर्दोषों की हत्याओं का दौर, ओड़िशा में माओवादियों ने की एक और ग्रामीण की बर्बरता से हत्या

जानकारी के अनुसार देर रात को चंदन को उसके घर से निकालने के बाद माओवादी उसे मारते-पीटते हुए खेतों में ले गए जहां रस्सियों से उसके हाथ पांव बांधकर उसे बेदम होने तक पीटते रहे, जिसके बाद अधमरे पड़े हुए चंदन को नक्सलियों ने उन्ही रस्सियों से गला घोंटकर मार डाला

The Narrative World    25-Feb-2023   
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ओड़िशा के नबरंगपुर जिले में माओवादियों (नक्सलियों / कम्युनिस्ट आतंकियों) की कायराना करतूत एक बार फिर सामने आई है, जानकारी के अनुसार ओड़िशा-छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती क्षेत्र अंतर्गत खालेपड़ा गांव में माओवादियों ने गुरुवार रात एक निर्दोष ग्रामीण को बर्बरता से मार दिया है। सूचना के अनुसार गुरुवार रात को प्रतिबंधित माओवादी संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) के लगभग 25 सशस्त्र नक्सली खालेपड़ा गांव में आ धमके और एक ग्रामीण को घर से निकाल कर उसे पास के खेतों में ले जाकर उसकी निर्ममता से हत्या कर दी।
 
मृतक ग्रामीण की पहचान चंदन मल्लिक (42) के रूप में की गई है, चंदन की हत्या के बाद माओवादियों ने एक बार फिर चिर परिचित रूप से उस पर भी पुलिस मुखबिर होने का आरोप मढ़ते हुए घटनास्थल पर छोड़े पर्चे में हत्या को माओवादी 'क्रांति' के लिए न्यायोचित ठहराया है
 
इस संदर्भ में मिली जानकारी के अनुसार देर रात को चंदन को उसके घर से निकालने के बाद माओवादी उसे मारते-पीटते हुए खेतों में ले गए जहां रस्सियों से उसके हाथ पांव बांधकर उसे बेदम होने तक पीटते रहे, जिसके बाद अधमरे पड़े हुए चंदन को नक्सलियों ने उन्ही रस्सियों से गला घोंटकर मार डाला, हत्या के बाद माओवादी पर्चे छोड़कर नारे लगाते वहां से चले गए, अब घटना के बाद जहां एक ओर पूरे क्षेत्र में भय का वातावरण व्याप्त है तो वहीं दूसरी ओर पुलिस ने चंदन का शव बरामद कर जांच प्रारंभ कर दी है।
 
घटनास्थल पर से बरामद किए गए पर्चे में माओवादियों की उदंती एरिया कमेटी ने हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए कहा है कि चंदन, पुलिस को क्षेत्र में माओवादियों की गतिविधियों की सूचनाएं दे रहा था जिसको लेकर उसे 'जन अदालत' ( माओवादियों की तानाशाही न्यायिक प्रक्रिया) में दोषी मानते हुए उसे सख्त चेतावनी भी दी गई थी, हालांकि बावजूद इसके उसने पुलिस को दलम की जानकारी देनी बंद नहीं कि इसलिए अंततः उसे मौत की सजा दी गई है।
 
आश्चर्यजनक रूप से पर्चे में माओवादियों ने चंदन की मृत्यु के लिए नबरंगपुर जिला पुलिस अधीक्षक, ओड़िशा पुलिस एवं छत्तीसगढ़ पुलिस को ही जिम्मेदार ठहराया है, दरअसल पुलिस पर ऐसे आरोप मढ़ने के पीछे माओवादियों द्वारा उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों में निर्दोष नागरिकों की लगातार की जा रही हत्याओं पर पर्दा डालने का प्रयास ही दिखाई पड़ता है जिसके माध्यम से माओ के ये सिपाही सत्ता पाने की अपनी लालसा की कवायद में निर्दोषों का रक्त बहाने जैसे कुकृत्यों को ढंकने का प्रयास करते दिखाई दे रहे।
 
जबकि वास्तविकता इस से बिल्कुल विपरीत दिखाई पड़ती है, पिछले वर्ष के ही आंकड़ो की बात करें तो माओवादियों ने क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित रखने के क्रम में केवल छत्तीसगढ़ में ही तीन दर्जन से अधिक निर्दोषों की हत्याएं की हैं यह आंकड़े मूल रूप से बस्तर संभाग के हैं जिसमें सीमावर्ती ओड़िशा के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में घटित हत्या की घटनाएं शामिल नहीं हैं, अकेले इस वर्ष के आंकड़ो की बात करें तो अब तक बीते डेढ़ महीने में ही माओवादी ऐसी दसियों हत्याओं को अंजाम दे चुके हैं।
पुलिस मुखबिर होने का प्रपंच
 
आश्चर्यजनक रूप से इन सभी हत्याओं के बाद माओवादियों ने मृतक को पुलिस मुखबिर बताते हुए उसे अपनी कथित क्रांति के लिए खतरा बताया है, माओवादियों के मत में ये हत्याएं केवल इसलिए कि गई क्योंकि यह सभी लोग पुलिस को माओवादियों से संबंधित सूचनाएं पहुंचाते रहे हैं, हालांकि वास्तविकता तो यह है कि कम्युनिस्ट कॉमरेडों के बंदूकों का शिकार बने ये ज्यादातर लोग या तो सामान्य पृष्टभूमि से आने वाले किसान हैं अथवा क्रांति की आग से अपना भविष्य बचाने की कवायद में जुटे युवा हैं।
 
बीते वर्ष की ही बात करें तो इस क्रम में माओवादियों ने अपनी कथित जन अदालत में बस्तर संभाग के दो युवकों को केवल इसलिए मार दिया कि क्योंकि उनके विरुद्ध रोजगार के अवसर ढूंढने के क्रम में बार बार शहर जाने का आरोप था जो माओवादियों की दृष्टि में उन्हें पुलिस के मुखबिर के रूप में स्थापित करती थी, दोनों युवकों को उनके परिवारों के समक्ष ही बेरहमी से मारा गया, यह हत्या कोई अपवाद नहीं इसी प्रकार की एक और घटना में तो 13 वर्षो बाद अपने गांव लौटे किसान की हत्या तो केवल इसलिए कर दी गई क्योंकि उसका बेटा डिस्ट्रिक रिज़र्व गार्ड (डीआरजी) की नौकरी कर रहा है।
 
“माओवादियों के निशाने पर तीसरा समूह उन जनप्रतिनिधियों का है जो इन क्षेत्रों को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं, इसमें संदेह नहीं कि बीते वर्षो में ऐसे ढ़ेरों जन प्रतिनिधि जिन्होंने विकास विरोधी रहे माओवादियों के विपरीत क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के लिए आवाज उठाई है उन्हें या तो मार दिया गया है अथवा वे माओवादियों की हिट-लिस्ट में शामिल हैं। बीते एक महीने की ही बात करें तो इस क्रम में माओवादियों ने कुल चार हत्याएं की है जबकि दो प्रतिनिधियों को अभी हाल फिलहाल ही जान से मारने की धमकी दी गई है।”
 
 
 
ऐसे में यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि देश भर के माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबलों के साथ प्रत्यक्ष संघर्ष में कमजोर पड़े माओवादी अपनी खीज उन मासूम निर्दोषों पर निकाल रहे हैं जिनकी रक्षा की कसमें खाते माओवादियों के शहरी आकाओं (अर्बन नक्सली) के होंठ नहीं सूखते, आश्चर्यजनक तो यह भी है कि यदि जंगल से समीप दूरस्थ क्षेत्रो में माओवादियों के आतंक से दशकों तक मुख्यधारा से वंचित रहा समाज यदि विकास का सहभागी बनना चाहे तो वो इस कथित संघर्ष के लिए खतरा कैसे ?
 
तीस पर भी यह स्थिति तब है जब दशकों से इन क्षेत्रों में रह रहे ग्रामीणों के अधिकारों के नाम पर ही तो इस क्रांति का महिमामंडन किया जाता रहा है, क्या इसमे विरोधाभास नहीं, जेएनयू के कॉमरेडों से लेकर मानवाधिकार का चोला ओढ़े मार्क्स एवं माओ का गुणगान करने वालो कॉमरेडों से इस पर चुप्पी तोड़े जाने की अपेक्षा स्वाभाविक ही दिखती है…..?