माओवादियों की बौखलाहट से बस्तर की वर्तमान स्थिति बखूबी भाँपी जा सकती है।

दशकों तक देश के कई राज्यों को हिंसा की आग में झोंकने वाले इस कथित क्रांति की आंच अब सरकार द्वारा दूरस्थ क्षेत्रों में किये जा रहे विकास कार्यों के आगे धीमी पड़ती दिखाई दे रही है

The Narrative World    27-Feb-2023   
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छत्तीसगढ़ में माओवादियों (नक्सलियों/कम्युनिस्ट आतंकियों) के विरुद्ध सुरक्षाबलों द्वारा चलाये जा रहे अभियानों को लेकर अब माओवादियों की बौखलाहट सार्वजनिक रूप से सामने आ रही है, इस क्रम में देश मे अतिवादी कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) ने एक बार फिर प्रेस विज्ञप्ति जारी कर सुरक्षाबलों द्वारा क्षेत्र में स्थापित किये जा रहे कैंपो एवं अभियानों पर निशाना साधा है।
 
प्रेस विज्ञप्ति में माओवादियों की दक्षिणी बस्तर डिवीज़न कमेटी की प्रवक्ता गंगा के हवाले से दावा किया गया है कि बस्तर संभाग में सुरक्षाबलों द्वारा लगातार नए कैंप खोलकर ग्रामीणों के भीतर भय बिठाया जा रहा है, विज्ञप्ति में माओवादीयों की प्रवक्ता ने बताया है कि पिछले चार महीनों के भीतर ही माओवाद प्रभावित सुकमा जिले में कुल 9 नवीन कैंप खोले गए हैं जिसके माध्यम से सुरक्षाबल आस पास के ग्रामीणों को प्रताड़ित कर रहे हैं।
 
गंगा के हवाले से आगे दावा किया गया है कि बस्तर संभाग में कार्यरत सुरक्षाबलों की विशेष इकाई डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व गार्डस एवं आधुनिक ड्रोनों के माध्यम से ग्रामीणों की निगरानी कर के उनपर नक्सलियों के साथी होने का झूठा आरोप मढ़ा जा रहा है जबकि कुछेक कैंपो में तो संभावित हमले को लेकर तैयारियां भी जोर शोर से बढ़ाई जा रही है।
 
इस विज्ञप्ति में माओवादियों ने देश भर की इलेक्ट्रॉनिक एवं प्रिंट मीडिया, बुद्धिजीवियों, लेखकों, युवाओं एवं छात्रों से बस्तर आकर वास्तविक स्थिति समझने का आह्वान करते हुए कहा है कि 'केंद्र की हिंदुत्वादी सरकार के दिशा निर्देशों में बस्तर संभाग के ग्रामीण क्षेत्रों को युद्धभूमि बनाने का प्रयास किया जा रहा है।
 
माओवादियों की बौखलाहट का कारण
 
ज्ञात हो कि यह माओवादियों द्वारा जारी की गई कोई पहली विज्ञप्ति नहीं है जिसमें उन्होंने केंद्र सरकार पर इन क्षेत्रों में कैंपो की स्थापना एवं वृहद अभियानों को लेकर आरोप लगाए हैं और बीते महीनों में तो माओवादियों ने एक के बाद एक कई विज्ञप्तियां जारी कर हवाई हमले समेत कई अन्य गंभीर आरोप लगाए हैं।
 
दरअसल बीते कुछ महीनों में सुरक्षाबलों द्वारा सुकमा एवं सीमावर्ती क्षेत्रों में कुंदर, दुब्बमारका, बेदरे सहित कई फारवर्ड ऑपरेटिंग बेसेज (एफओबी) की स्थापना की गई है, जिससे माओवादियों में बौखलाहट अपने चरम पर है, ज्ञात हो कि यह ऑपरेटिंग बेसेज उन क्षेत्रों में खोले गए हैं जहां दशकों से नक्सलियों का दबदबा स्थापित रहा है और इन क्षेत्रों में वे अपनी समानांतर सरकारें चलाते आये हैं।
 
“अब ऐसे में आंशिक रूप से माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में पहले से कमजोर पड़े माओवादियों को अपने कोर क्षेत्रों में सुरक्षाबलों द्वारा निर्णायक कार्यवाई करने का स्वाभाविक भय सता रहा है, इसमें भी संदेह नहीं कि यह भय और निर्णायक युद्ध की आहट अब इसलिए भी प्रत्यक्ष हो चली है क्योंकि अभी हाल ही में गृहमंत्री ने कम्युनिस्ट अतिवादी आतंक के मोर्चे पर लकीर खींचते हुए वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों से पूर्व देश को माओवाद के दंश से मुक्त करा लेने का संकल्प दोहराया गया है।”
 
 
 
यही कारण है कि माओवादी विज्ञप्तियों के माध्यम से सरकार पर माओवाद आंदोलन को कठोरता से दबाने का आरोप मढ़ रहे हैं इस परिपाटी के माध्यम से माओवादियों का प्रयास उनके द्वारा की जा रही हिंसा को वंचित वर्गों के संघर्ष के रूप में दिखाकर देश के कम्युनिस्ट झुकाव वाले मीडिया तंत्र एवं कथित अधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों के माध्यम से सरकार के ऊपर शांतिकाल देने अथवा वर्तमान में चलाए जा रहे अभियानों में कमी लाने का दबाव बनाना ही है।
 
भविष्य की डगर
 
माओवादियों की दृष्टि से देखें तो उनका यह प्रयास इसलिए भी स्वाभाविक जान पड़ता है कि दशकों तक देश के कई राज्यों को हिंसा की आग में झोंकने वाले इस कथित क्रांति की आंच अब सरकार द्वारा दूरस्थ क्षेत्रों में किये जा रहे विकास कार्यों के आगे धीमी पड़ती दिखाई दे रही है, परिणामस्वरूप कभी इन क्षेत्रों में बेहद शक्तिशाली जान पड़ने वाले माओ तंत्र का सामर्थ्य बेहद तेजी से कम हुआ है इसलिए वर्तमान में शांतिकाल माओवादियों की बेहद बुनियादी आवश्यकता है।
 
हालांकि इन सब के बीच माओवाद के मोर्चे पर जो इच्छाशक्ति एवं दृढ़ संकल्प वर्तमान केंद्र सरकार ने दिखाया है उससे यह भी अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि माओवादियों की यह शांतिकाल की कवायद केवल उनका दुःस्वप्न ही प्रमाणित होगा और इसका वर्तमान सरकार के माओवाद मुक्त भारत के संकल्प पर कोई भी असर नहीं होगा, बीते वर्षो में माओवाद के मोर्चे पर झारखंड की स्थिति इसका ज्वलंत उदाहरण भी है।
 
जहां तक बात सुरक्षाबलों की है तो यह कोई छुपी छुपाई बात नहीं कि यह बीते दो दशकों में पहली बार है जब माओवादियों की सशस्त्र इकाई पीएलजीए समेत उनके शहरी कैडरों (अर्बन नक्सलियों ) पर इतना दबाव बनाया जा सका है, इसलिए झारखंड एवं बिहार जैसे माओवाद प्रभावित क्षेत्रों पर नकेल कसने के बाद सुरक्षाबलों का पूरा ध्यान अबूझमाड़ एवं सुकमा, बीजापुर के सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रिय माओवादियों के सबसे मजबूत गढ़ पर है।
 
रणनीतिक दृष्टि से देखें तो यही वो क्षेत्र है जहां माओवाद की जड़े आंशिक रूप से अब भी मजबूत हैं, सशस्त्र कैडरों की बात करें तो सीपीआई माओइस्ट की सबसे ताकतवर बटालियन माने जाने वाली बटालियन न 1 भी इन्ही क्षेत्रों में सक्रिय मानी जाती है, इसलिए सुरक्षाबलों के लिए भी इस क्षेत्र को माओवादियों से मुक्त कराना देश से माओवाद की जड़े को उखाड़ फेंकने के क्रम में मिल का पत्थर है।
 
यही कारण है कि ना केवल माओवादियों अपितु सुरक्षाबलों के लिए भी बस्तर संभाग का यह क्षेत्र लोकतांत्रिक मूल्यों एवं दीर्घकालिक तानाशाही व्यवस्था के बीच निर्णायक संघर्ष स्थली बनकर उभरा है जिसका परिणाम भारत गणराज्य के माओवाद के विरुद्ध चल रहे इस लंबे युद्ध की दशा दिशा निर्धारित करने वाला ही होगा।