कॉमरेडों का बस्तर प्रेम

बाहर से समाजसेवियों का चोला ओढ़े यह कॉमरेडों का झुंड भीतर से उसी उग्र कम्युनिस्ट विचार के प्रति समर्पित है

The Narrative World    03-Feb-2023
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छत्तीसगढ़ के माओवाद प्रभावित बस्तर अंचल में पिछले एक दशक से कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, शिक्षाविदों, एवं समानता की क्षद्म क्रांति की वैचारिक झंडेबरदारी करने वाले कथित बुद्धिजीवियों की सक्रियता कोई छुपी छुपाई बात नहीं और अमूमन यह देखने सुनने को मिलता रहता है कि मुख्यधारा से दूर किसी सुदूर क्षेत्र में कॉमरेडों की यह फौज माओवादियों की कथित क्रांति को अपनी वैचारिक परिपाटी से पोषित करने में लीन है।
 
इस क्रम में कथित शिक्षाविद नंदिनी सुंदर से लेकर अरुंधति रॉय, हिमांशु कुमार, मेधा पाटकर, सुधा भारद्वाज जैसे दसियों नाम हैं जो समय समय पर प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण इस जनजातीय बाहुल्य शांत क्षेत्र के प्रति अपना प्रेम दर्शाते मार्क्स के साहित्य जनित विषाक्त विचारों का भ्रमजाल फैलाकर स्थानीय जनजातीय समुदाय को कथित तौर पर जल जंगल जमीन के संरक्षण के नाम पर उकसाते रहते हैं।
 
इनमें से ही एक नाम बेला भाटिया का भी है जो वर्तमान में ऐसी ही एक मुहिम पर हैं, दरअसल जानकारी के अनुसार बेला भाटिया एवं उनके सहयोगी पिछले कई दिनों से सुकमा के मेटागुड़ा जाने की तैयारियों में जुटी है, सूत्रों की मानें तो बेला वहां अपनी टीम के साथ 11 जनवरी को सुरक्षाबलों के साथ हुई मुठभेड़ में मारी गई महिला माओवादी के गांव जाकर लोगों को उकसाने की कवायद में हैं।
 
ज्ञात हो कि इस मुठभेड़ को लेकर माओवादियों ने सुरक्षाबलों पर ग्रामीण क्षेत्रों में एयर स्ट्राइक्स का आरोप मढ़ा था जबकि सुरक्षाबल ऐसी किसी भी प्रकार की स्ट्राइक्स को माओवादियों द्वारा फैलाया जा रहा कोरा दुष्प्रचार बता चुके हैं अब ऐसे में बेला भाटिया एवं कंपनी का प्रयास मेटागुड़ा का दौरा कर माओवादियों के सुर में सुर मिलाकर सरकार को निर्दोष लोगों पर बमबारी के लिए जिम्मेदार ठहराने की है ताकि इसके आधार पर दशकों के दुष्प्रचारित एजेंडे को आगे बढ़ाया जा सके
 
अब इन प्रयासों को लेकर सुरक्षाबल भी पूरी चौकसी बरत रहे हैं, सूत्रों के अनुसार इसी क्रम में मेटागुड़ा जाने का प्रयास कर रही एक कथित मानवाधिकार टीम को बुधवार को सुकमा के दोरनापाल थाने अंतर्गत दुब्बाटोटा में सुरक्षाबलों आगे जाने से रोक दिया, जिसके बाद टीम को खाली हाथ लौटना पड़ा है, जबकि वहीं माओवादियों से सहानभूति रखने वाली बेला भाटिया एवं सहयोगियों को लेकर भी चौकसी बरती जा रही है।
 
 
क्या है मोडस ऑपेरांडी
 
 
इन धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में इन कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर वहां लोगों को शासन एवं सुरक्षाबलों के विरुद्ध उकसाने एवं इसके माध्यम से माओवादियों के पक्ष में वातावरण का निर्माण करने के प्रयास होते रहे हैं जिनमे इन कथित शिक्षाविदों, अधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा परोक्ष रूप से क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं के आभाव को प्रशासन से जोड़कर माओवादियों के सशस्त्र संघर्ष को वैचारिक कवर फायर दिया जाता रहा है।
 
दरअसल इन पिछड़े क्षेत्रों में माओवादियों के आतंक एवं उनके विकास विरोधी चरित्र के फलस्वरूप शासन के लिए मूलभूत सुविधाओं को ग्रामीणों तक पहुंचाना गंभीर चुनौती रही है जिसे सरकार की सोची समझी रणनीति बताकर यह कथित समाजसेवी लोगों को उन्ही माओवादियों के समर्थन में लामबंद करते आए हैं जो मूल रूप से इन क्षेत्रों के पिछड़ेपन के लिए उत्तरदायी हैं।
 
आश्चर्यजनक तो यह है कि अपने इस कुकृत्य को यह कथित समाजसेवी इतनी साफगोई से अंजाम देते हैं कि भोली भाली जनता इनके भ्रमजाल में फंसकर उसी सरकार एवं सुरक्षाबलों के विरुद्ध खड़ी हो जाती है जो उनकी बदहाली से उन्हें निकालकर उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने के लिए प्रयासरत हैं।
 
 
विडंबना तो यह है कि बहकावे में आकर किए जाने वाले छोटे मोटे विरोध प्रदर्शनों की तस्वीरों एवं विद्वेषित भावना से गढ़े गए विमर्शों को लेकर यह कथित समाजसेवी राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय मीडिया में अपने साथी कॉमरेडों के सहायता से छोटी से छोटी घटना को इतना बड़ा बनाकर प्रस्तुत करते हैं जैसे इन दुर्गम क्षेत्रों में सरकार अपने ही नागरिकों के साथ क्रूरता की पराकाष्ठा पार कर रही हो, सुरक्षाबल तो जैसे इस क्रूर सरकार की बर्बरता को प्रतिलिक्षित करते संवेदनहीन बलों का समूह हो।
 
 
“मूल रूप से यह वही समूह है जो सिलगेर में लोगों को इस बात के लिए भड़काता है कि यहां सुरक्षाबलों की उपस्थित उनकी स्वतंत्रता को छीनने वाली होगी, जो एडसमेटा एवं गोम्पाड़ जैसे प्रपंच गढ़ते हैं, जो वर्षों से विद्वेषित एजेंडे से लिखी गई किताबों, सेमिनारों एवं जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में अपने ही देश के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध को वंचितों के जल जंगल जमीन का संघर्ष बताकर सुरक्षाबलों के आचरण को ही कटघरे में खड़ा करने पर आमादा हैं”
 
 
जबकि वास्तविकता ठीक इसके विपरीत रही है जहां विकास की मुख्यधारा से जुड़ने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को माओवादी कायरों की तरह निर्ममता से मारते रहे हैं बावजूद इसके पिछले एक दशक से इन कथित समाजसेवियों की कोरी सहानभूति चुनिंदा रूप से केवल उन कैडरों एवं उनके परिवारों को ही समर्पित रहती है जिन्होंने माओवादियों की इस कथित क्रांति के लिए अपनी ही सरकार के विरुद्ध हथियार उठाया हो, जिसने देश के विरुद्ध छेड़े गए इस युद्ध में अपनी सहभागिता जताई हो।
 
 
वर्तमान परिस्थितियां
 
 
वर्तमान परिस्थितियों में भी जब धीरे धीरे धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षाबल अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में सफल हुए हैं तो उनके सहयोग से इन क्षेत्रों में समानांतर रूप से चलाए जा रहे विकास के कार्यों से क्रांति के सिमटने की जितनी बेचैनी माओवादियों को है उससे ज्यादा बेचैनी का भाव तो इन समाजसेवियों के चेहरे पर दिखाई देता है।
 
यही कारण है कि बेला भाटिया जैसे लोग मेटागुड़ा जाकर हाल ही में माओवादियों के विरुद्ध चलाए गए वृहद अभियान को ग्रामीणों पर किए गए एयरस्ट्राइक्स दिखा कर राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय मीडिया में सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचारित एजेंडे का ढोल पीटने को बेचैन हैं।
 
कुल मिलाकर यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि बाहर से समाजसेवियों का चोला ओढ़े यह कॉमरेडों का झुंड भीतर से उसी उग्र कम्युनिस्ट विचार के प्रति समर्पित है, जिसका प्रत्यक्ष रूप कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) जैसे हिंसक एवं क्रूर संगठन के रूप में अब तक सामने आता रहा है, ऐसे में इन बुद्धजीवी कॉमरेडों का यह बस्तर प्रेम कोई अचरज की बात नहीं।