हिन्दू समाज, जातियाँ और अस्पृश्यता

भारतीय समाज की कई विशेषताएँ हैं. जातियाँ उनमें से एक विशेषता है. आज जातियाँ हिन्दू समाज के विघटन और बिखराव का मुख्य कारण मानी जाती हैं. मन में प्रश्न उठता है कि ये जातियाँ अस्तित्व में कैसे आईं? इनका स्वरुप क्या सदा से ऐसा ही था? इस लेख में हम इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का प्रयास करेंगे.

The Narrative World    07-Feb-2023   
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भारतीय समाज की कई विशेषताएँ हैं. जातियाँ उनमें से एक विशेषता है. आज जातियाँ हिन्दू समाज के विघटन और बिखराव का मुख्य कारण मानी जाती हैं. मन में प्रश्न उठता है कि ये जातियाँ अस्तित्व में कैसे आईं? इनका स्वरुप क्या सदा से ऐसा ही था? इस लेख में हम इन प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करने का प्रयास करेंगे.


वर्गीकरण और वर्ण व्यवस्था

किसी भी समाज में सदस्यों का वर्गीकरण एक स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया है
. यह वर्गीकरण भी किसी एक प्रकार का नहीं होता वरन एक ही समय में कई प्रकार का होता है जैसेव्यवसाय के आधार पर, वैभव के आधार पर, ज्ञान के आधार पर, प्रभाव के आधार पर इत्यादि. आधुनिक समाज में हम इनको प्रत्यक्ष अनुभव कर पाते हैं. आज के समाज में हम धनवान और निर्धन ऐसे दो भिन्न भिन्न वर्ग पाते हैं. इसी प्रकार हम नगरीय और ग्रामीणों को भिन्न भिन्न परिस्थितियों में पाते हैं. शिक्षित और अशिक्षित को भी हम भिन्न भिन्न वर्ग में पाते हैं. व्यवसाय के आधार पर देखें तो कृषक, नौकरीपेशा, प्रोफेशनल जैसे डॉक्टर, इंजिनियर आदि भिन्न भिन्न वर्ग समाज में बने हुए हैं. इनमें से कुछ वर्गीकरण अनौपचारिक हैं तो कुछ औपचारिक. औपचारिक वर्गीकरण में स्पष्टता होती है और स्पष्टता के अपने लाभ हैं.


प्राचीन काल में ऐसे ही व्यवसाय या वृत्ति के आधार पर औपचारिक वर्गीकरण का प्रथम उल्लेख हिन्दू ग्रंथों में पाया जाता है. ऐसे वर्गीकरण में समाज को मुख्य रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया गया था और इनका नाम वर्ण दिया गया जो क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य होते थे. नागरी समाज में एक छोटा सा वर्ग जो इनमें से कहीं भी नहीं आता था, उस क्षुद्र से वर्ग को शुद्र वर्ण कहा गया .


भारतीय वर्ण व्यवस्था अद्भुत थी. वर्ण व्यवस्था ने समाज को आश्चर्यजनक रूप से सुगठित और संतुलित किया.


ब्राह्मण वर्ग

 

ब्राह्मण वर्ग का मुख्य कार्य विद्यादान था. विद्यादान की पद्धति भी गुरुकुल आधारित थी. कुल का अर्थ परिवार होता है. गुरु अपने शिष्यों को अपने परिवार का अंग मानता था और उसी प्रकार उसका लालन पालन करता था. शिष्य गुरु के साथ गुरु के घर पर ही रहते थे. ऐसे में गुरु का शिष्यों पर विशेष प्रभाव होना स्वाभाविक ही है. गुरु इस प्रभाव का दुरूपयोग न कर पाए, इसके लिए गुरु हेतु कुछ वर्जनाएँ (अर्थात क्या नहीं करना है) निर्धारित थीं. ब्राह्मण के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय करने का निषेध था. यहाँ तक कि ब्राह्मण को कृषि भी करने की मनाही थी. ब्राह्मण का भरण पोषण कैसे हो, तो इसके लिए भिक्षाटन की व्यवस्था बनाई गई.
 
गुरुकुल के शिष्य नगर ग्राम में भिक्षा मांगने जाते थे. अधिकांश छात्र मात्र एक घर से भिक्षा लेकर आते ताकि अनावश्यक संचय की प्रवृत्ति न बढे. इस प्रकार भिक्षाटन से संचित अन्न आदि से गुरुकुल के सभी सदस्यों का भोजन हो जाता था. इसके अतिरिक्त शिक्षा पूरी होने पर शिष्य गुरु को दक्षिणा समर्पित करते थे. इस दक्षिणा से गुरु के अन्य व्ययों की पूर्ति हो जाती थी. कभी कभी राजकुल से अथवा श्रेष्टि (वैश्य) वर्ग से दक्षिणा में गुरु को भूमि आदि की प्राप्ति हो जाती थी. इस प्रकार ब्राह्मण वर्ग का जीवन समीचीन भाव से चल जाता था. इन्हें भविष्य की व्यवस्था के लिए धन एकत्रित करने की भी आवश्यकता नहीं होती थी. इससे ब्राह्मण निःस्वार्थ, निश्चिन्त और निर्भीक रहते थे.


क्षत्रीय वर्ग

 

क्षत्रीय वर्ग का कार्य राज्य की व्यवस्था और रक्षा का होता था. राजकुल, अर्थात वे सभी व्यक्ति जो राज्य की व्यवस्था से सम्बद्ध थे, व्यवसायी वर्ग पर करारोपण कर राजकोष जमा करते थे. राजकोष राजा की व्यक्तिगत संपत्ति नहीं हुआ करती थी. राजकुल की आर्थिक व्यवस्था इन्हें दिए जाने वाले वेतन से होती थी. प्राचीन काल में राजा और उसके परिवार को भी निर्धारित वेतन ही दिया जाता था. मंत्री परिषद् के सदस्यों और अन्य कार्मिकों को भी इसी प्रकार वेतन मिलता था.


वैश्य वर्ग

 
समाज का आर्थिक भार वैश्य वर्ग वहन करता था. इस वर्ग में कृषक, स्वरोजगारी, उद्योगपति और व्यापारी आते थे. इसी वर्ग पर सारा करारोपण होता था. यह वर्ग समाज का सबसे बड़ा वर्ग होता था. ब्राह्मण वर्ग का भरण पोषण भी मुख्यतः इसी वर्ग के द्वारा होता था. गुरुकुल में रहने वाले बच्चों में से वैश्य वर्ग के बच्चे भी स्वाभाविक रूप से संख्या में सर्वाधिक होते थे. ऐसे में गुरुकुलों में इस वर्ग की उपस्थिति भी पर्याप्त रहती थी. इससे इस वर्ग के हितों और परिस्थिति का ज्ञान ब्राह्मण वर्ग को स्वाभाविक रूप से होता रहता था. वैश्य वर्ग पर अपनी अधिक निर्भरता के कारण ब्राह्मण वर्ग राजकुल के लोभ से वैश्य वर्ग की रक्षा करता रहता था. इस कारण राजकुल वैश्य वर्ग पर सीमा से अधिक करारोपण नहीं कर पाता था.


शूद्र वर्ग

 
शूद्र शब्द क्षुद्र शब्द से उत्पन्न हुआ है. क्षुद्र का अर्थ होता है छोटा या आकार में नगण्य. यह वर्ग वास्तव में संख्या में अपेक्षाकृत कम होता था इसी से इस वर्ग को क्षुद्र कहा गया. किन्ही कारणों से अपनी धन संपत्ति से विपन्न हो जाने वाले लोग इस वर्ग में आते थे. ये लोग शारीरिक श्रम के माध्यम से जीवन यापन करने वाले होते थे. यद्यपि ये साधन विहीन व्यक्ति होते थे, इनके श्रम का बड़ा महत्त्व था और इनके हित मुख्यतः वैश्य वर्ग के हितों से जुड़े होते थे. शूद्रों का कोई भी अहित वैश्यों के व्यवसाय को सीधे प्रभावित करता था. इस कारण से शूद्रों के हितों की रक्षा होती रहे, इसका ध्यान वैश्य वर्ग रखता था.


वर्ग संतुलन

 
सभी वर्ग एक दूसरे पर आश्रित रहने के कारण सबके हितों का तानाबाना इस प्रकार बन जाता था कि वे एक दूसरे के हितों की रक्षा करते रहते थे. उपरोक्त व्यवस्था की विशेषता यह थी कि कोई भी वर्ग दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं कर सकता था और सभी वर्गों का आपसी शक्ति संतुलन अद्भुत रूप से बना रहता था.


राजव्यवस्था

 
राज्य की व्यवस्था को अद्भुत रूप से निर्धारित किया गया था. राजा वंशानुगत होता था. राजा की वृत्ति सुनिश्चित होने से (जिसे आज की भाषा में जॉब सिक्यूरिटी कहते हैं), वह पद के लिए किये जाने वाले समझौतों से बचा रह पाता था और निर्भीक न्याय कर पाता था.


राज कार्य को सुचारू चलाने के लिए अमात्य वर्ग होता था, जिसे आज की भाषा में ब्यूरोक्रेसी कह सकते हैं. एक मंत्री परिषद होती थी जो निर्वाचित लोगों का समूह होता था. राज्य का सेनापति भी राजपरिषद का सदस्य होता था. राज परिषद् के निर्णय नैतिकता की सीमा में रहें इस हेतु एक धर्म प्रतिनिधि भी राज परिषद में होता था. ऐसे धर्म प्रतिनिधि को राज पुरोहित कहा जाता था.


राजकुल पर अंकुश

 
किन्तु प्राप्त अधिकारों के कारण राजकुल के निरंकुश हो जाने का भय होता है. इसे निश्चिन्त और निर्भीक ब्राह्मण वर्ग का समाज में जो प्रभाव होता था, वह संतुलित करता था. राजकुल को ब्राह्मण वर्ग के प्रभाव का ज्ञान रहने से, राजकुल इस वर्ग के रोष से बचता था और इसलिए ब्राहमण वर्ग से हर कार्य में विचार विमर्श करता रहता था और उनसे दिशा निर्देश लेता रहता था. ब्राह्मणों के हितों की रक्षा की जो व्यवस्था बनी हुयी थी, इससे ब्राह्मण निःस्वार्थ रूप से जनहित की बात कर पाते थे और राजकुल अगर भूल करे तो उसे बताने का साहस उनका होता था. इस बात को इंगित करने वाली एक प्रथा का उल्लेख यहाँ करना समुचित होगा. जब राजा का राज्याभिषेक होता था, राजा कहता थाको दण्डसि? को दण्डसि? को दण्डसि? (अर्थात मुझे कौन दण्ड दे सकता है?) तब सिंहासन के पीछे खड़ा राजपुरोहित हाथ में पकडे धर्म-दण्ड को राजा के सर पर छुआ कर कहता थाधर्म दण्डसि, धर्म दण्डसि, धर्म दण्डसि (अर्थात धर्म तुम्हें दण्ड दे सकता है).



वर्ण व्यवस्था में दोष और इस की समाप्ति

 
कोई भी व्यवस्था लम्बे काल तक चलती है तो उसमें दोष आ जाते हैं. उस व्यवस्था को समय समय पर अद्यतन करते रहना होता है. निर्दोष व्यवस्थाओं का भी एक दोष होता हैअत्यंत संतुष्टि का भाव. भारत के परिपेक्ष्य में उपरोक्त व्यवस्था में संभवतः समय समय पर ये दोनों दोष उत्पन्न हुए. कुछ वर्गों ने अपने प्रभाव का उपयोग कर शक्ति संतुलन को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया. इससे व्यवस्था दूषित हुई. दूषित व्यवस्था के प्रति रोष उत्पन्न हुआ और प्रतिक्रिया में नए वर्ग उत्पन्न हुए.


दूसरी ओर देखें तो वैदिक काल में कुछ जीवन दर्शन अस्तित्व में आये. ये मुख्यतः छः हैसांख्य, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा, योग एवं अद्वैत या वेदांत. वेदों की भाषा क्लिष्ट होने के कारण वैदिक भाषा जनभाषा नहीं थी. अतः इन दर्शनों को समझाने के लिए विभिन्न भाष्य लिखे गए. भाष्य भी सबकी समझ में नहीं आ पाते थे. उपनिषदों के द्वारा भी वेदों को जनसामान्य को समझाने का प्रयास हुआ. इसी क्रम में पुराण अस्तित्व में आये.

 
पुराण वैदिक और उपनिषदों के ज्ञान का सरलीकरण होने पर भी पूरी तरह उस ज्ञान के प्रतिनिधि नहीं थे. साथ ही रोचक बनाने के लिए पुराणों में विभिन्न कथाओं का समावेश किया गया. इन कथाओं में सत्य तो छिपा होता है किन्तु तथ्यों के स्तर पर इनमें से बहुत सी विसंगतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं. एक और समस्या उत्पन्न हुई. पुराणों को पढने वालों में से कुछ ने पुराणों के ज्ञान को ही अंतिम सत्य मान लिया जबकि पुराण वास्तव में वैदिक ज्ञान के सत्यों को सरल रूप में बताने का माध्यम मात्र हैं.


पुराण कथावाचकों के माध्यम से ही समाज तक पहुँचे. इस क्रम में दो बड़े दोष उत्पन्न हुएएक तो कथावाचक की स्वयं की समझ पर निर्भर हुआ कि उसने वास्तविक वैदिक ज्ञान को किस प्रकार समाज तक पहुँचाया. दूसरे कथावाचकों ने पुराणों में क्षेपक डालना प्रारंभ किया. क्षेपक अर्थात अपने मन से उन्होने कथाएँ जोड़ना प्रारंभ किया. इससे कर्मकांडों का उदय हुआ.


कर्मकांडों के उदय से कर्मकांडी पंडितों का उदय हुआ. इन पंडितों में से बहुत से जन्मना तो ब्राह्मण होते थे किन्तु कर्मणा ब्राह्मण कर्म के योग्य नहीं होते थे. कुछ रटे रटाये श्लोकों के भरोसे ये अपना कार्य चलाते थे. इनकी आजीविका कर्मकांड पर निर्भर होने के कारण इनमें से अधिकांश ने नैतिकता के स्थापित मापदंडों को भंग करना प्रारंभ किया. कर्मकांडों की अधिकता होने लगी और इन्हें समाज में अनिवार्य माना जाने लगा.

 
कुछ कर्मकांडी पंडितों के लोभ के कारण कर्मकांड व्ययसाध्य होने लगे. समाज का निर्धन वर्ग विशेष रूप से इससे प्रभावित हुआ. ब्राह्मणों द्वारा धनसंचय न करने की परम्परा का उल्लंघन प्रारंभ हुआ. परिणामस्वरूप अन्य वर्ण भी अपने स्थापित कर्मों से विमुख होने लगे. वर्णों का आपसी संतुलन बिगड़ने लगा और इस प्रक्रिया में स्थापित वर्ण व्यवस्था दूषित होने लगी.


इसी बीच बौद्ध और जैन जैसे अवैदिक दर्शन अस्तित्व में आये. ये दोनों दर्शन सांख्य दर्शन के बहुत ही निकट हैं. ये दोनों दर्शन ईश्वर के विषय में मौन हैं. दोनों ही दर्शन सत्य के अन्वेषक हैं और इनमें कर्मकांड नहीं अथवा नगण्य हैं. इस कारण कर्मकाण्ड से दुखी लोग भी इन दर्शनों की ओर आकर्षित हुए और ये दोनों दर्शन लोकप्रिय होने लगे.


यद्यपि वर्ण व्यवस्था एक सामाजिक व्यवस्था थी और इसका बौद्ध और जैन दर्शनों से कोई द्वंद्व नहीं था. किन्तु वर्ण व्यवस्था का पालन करने वाले क्योंकि वैदिक दर्शन को मानते थे, बौद्ध और जैन जैसे अवैदिक दर्शन को मानने वालों ने वर्ण व्यवस्था को नकारना प्रारंभ किया. परिणामस्वरूप इन दोनों जीवन दर्शनों के आगमन ने भी वर्ण व्यवस्था को छिन्न भिन्न किया. फिर भी वर्ण व्यवस्था किसी न किसी रूप में भारत में चलती रही.


भारत पर विदेशी आक्रमण

 
भारत की सामाजिक व्यवस्था ने निःसंदेह भारतीय समाज को समृद्ध किया और संसार में सबसे सुखी समाज बनाया. भारत के वैभव की ख्याति संसार में फैलने से शेष संसार के लोग भारत के प्रति आकृष्ट होने लगे. यह आकर्षण दो प्रकार का थापहला भारत में बसने या भारतीय समाज जैसे समाज की रचना का आकर्षण, और दूसरा भारत के वैभव को लूटने का आकर्षण. इस दूसरे कारण से भारत पर विदेशी आक्रमण प्रारंभ हुए.


भारत पर पहला बड़ा आक्रमण सिकंदर द्वारा हुआ. उसके बाद बहुत दिनों तक यूनानी ही भारत पर आक्रमण करते रहे. किन्तु भारतीय राजा समय समय पर उनका सामना करते रहे और उन्हें पराजित भी करते रहे. जो यूनानी भारत में रह गए, उन्हें भारतीय समाज ने प्रयत्नपूर्वक अपने में सम्मिलित और समरस कर लिया और उन्हें अपनी तरह हिन्दू बना लिया. इससे भारतीय समाज व्यवस्था पर यूनानी प्रभाव अधिक मात्रा में नहीं पड़ा और भारतीय समाज व्यवस्था मूल भारतीय चरित्र के साथ बनी रही.


अरब देशों में इस्लाम के उदय के बाद स्थिति बदली. पहले राजा मुख्यतः कोष और राजस्व के लिए लड़ते थे. इस्लाम ने पहली बार धर्म के लिए राजाओं को लड़ना सिखाया. मुस्लिम राजा धन के लिए तो लड़ते ही थे, उनके युद्धों का एक बड़ा प्रयोजन इस्लाम का प्रसार भी था. वे पराजित राज्य के सैनिकों को और नागरिकों को इस्लाम स्वीकार करने को विवश करते थे. इसका उन्हें दोहरा लाभ होता थापहला तो इस्लाम के प्रसार के उनके उद्देश्य की धर्मान्तरण से पूर्ति होती थी और दूसरा, पराजित राज्य में एक ऐसा वर्ग खड़ा हो जाता था जो अपने मूल समाज से कट जाता था और विजेता के समर्थन में रहने को विवश होता था.


भारत में पहला सफल इस्लामी आक्रमण इमामुद्दीन मुहम्मद (बिन कासिम) का था. 20 जून 712 . के दिन मुहम्मद ने राजा दाहिर को हराया. इसके बाद मुहम्मद ने लोगों को मुस्लिम बनाया. जिन्होंने मुस्लिम बनने से मना किया, उन पर घोर अत्याचार किया और उनकी हत्याएँ कीं. भय से बहुत से लोग इस्लाम स्वीकार करने को विवश हुए. इसके बाद सिंध में इस्लामी शासन की स्थापना हुई. बाद में महमूद गज़नवी ने सन 1000 के आस पास भारत पर आक्रमण किया. वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान के घोर प्रान्त के निवासी मुहम्मद, जिसे भारत में मुहम्मद घोरी के नाम से जाना जाता है, ने 1175 में मुल्तान पर अधिपत्य किया और 1192 में दिल्ली पर अधिपत्य किया. इससे भारत के कई भागों पर प्रमुखता से इस्लामी शासन प्रारंभ हो गया.


भारत पर इस्लामी शासन का प्रभाव

 
इस्लामी शासन में भय के कारण बहुत से हिन्दू मुस्लिम बनने को विवश हुए. इसके अतिरिक्त राजाश्रय प्राप्त करने के लिए भी बहुत से हिन्दू धर्मान्तरण कर मुस्लिम बनने को प्रेरित हुए. औरगंजेब ने तो जजिया जैसे कर लगा कर और अन्य प्रकार के दबाव के साथ धन दे देकर भी हिन्दुओं को मुस्लमान बनाया.


इस्लाम और हिन्दू मान्यताओं में मौलिक अंतर था. हिन्दुत्व जहाँ सहनशीलता और सर्वधर्म समभाव पर आधारित है, इस्लाम अपने सेमेटिक चरित्र के कारण असहनशील और केवल स्वयं को सही ठहराने वाला पंथ है. हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग मूर्तिपूजा करता है जबकि इस्लाम में मूर्तिपूजा को वर्जित (हराम) माना गया है. अरब में इस्लाम का उदय मूलतः बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के विरोध में ही हुआ था.

 
भारत में बहुदेववाद और मूर्तिपूजा दोनों प्रचालन में है. इसके अतिरिक्त भारत में मन्दिर सामाजिक चेतना के केंद्र भी थे. इससे भी आगे दान और सामाजिक निधियों का संग्रह करके समाज उस निधि को, जो दुर्भिक्ष इत्यादि आपदाओं के समय समाज के काम आती थी, मन्दिरों में ही रखता था. इस कारण मन्दिर बहुत वैभवशाली हुआ करते थे. थिरुअनन्त्पुरम के पद्मनाभन स्वामी मन्दिर के विषय में हम सब जानते ही है. वहाँ आज भी लाखों करोड़ों का सोना और अन्य वस्तुएँ संग्रहित हैं.


मन्दिरों के वैभव को लूटने हेतु और साथ ही पराजित हिन्दू राजाओं को अपमानित करने के उद्देश्य से विजय के मद में मदोन्मत्त विदेशी मुस्लिमों ने मन्दिर तोड़ने प्रारंभ किये. नव धर्मान्तरित मुस्लिम भी इस कार्य में लोभ वश उनका साथ देने लगे. इससे भारतीय समाज के सम्मुख एक नयी चुनौती खड़ी हो गई. समाज की सदियों से चली आ रही मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध समाज का एक ही वर्ग खड़ा होने लगा. सामाजिक सुरक्षा की जो व्यवस्था मन्दिरों के माध्यम से समाज ने खड़ी की थी, वह छिन्न भिन्न होने लगी. समाज में असुरक्षा का भाव उत्पन्न होने लगा.


ऐसे में हम देख पाते हैं कि हिन्दुओं के मुस्लिम बनने के दो प्रारंभिक कारण रहेपहला भय और दूसरा लोभ. भय से मुस्लिम बनने वाले अधिकांश लोग सैनिक थे. सैनिकों का शेष समाज से सीधे दैनंदिन संपर्क कम होने के कारण इससे हिन्दू समाज दैनंदिन व्यवहार में सीधे प्रभावित नहीं हो रहा था. किन्तु लोभ से मुस्लिम बनने वाले तो सामान्य नागरिक थे, इसका प्रत्यक्ष प्रभाव हिन्दू समाज के दैनंदिन जीवन पर पड़ने लगा था. ऐसे लोगों को मुस्लिम बनने से रोकना समाज के समक्ष एक चुनौती थी.


जाति व्यवस्था का उद्भव

 
हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था यद्यपि पुरातन रूप में शेष नहीं रह गई थी, वर्ण व्यवस्था के अंश शेष थे. हमने देखा है कि वर्ण व्यवस्था का मूल में भाव कर्मानुसार वर्गीकरण का था. व्यक्ति अपने पिता के वर्ण में रहने को बाध्य नहीं था. इसलिए लोग अपनी वृत्ति (पेशा) बदलते रहते थे. अब सामाजिक असुरक्षा के नए वातावरण में वृत्ति (पेशा) बदलने और कुछ नया प्रयास करने की प्रवृत्ति समाप्त होने लगी. जिसके पास जो था, वह उसी को बचाने में लग गया. इससे वंशानुगत वृत्ति अपनाने की प्रवृत्ति को बल मिला.
 
यद्यपि श्रम विभाजन और वैशष्टिकरण (Division of Labour and Specialization) के अपने अन्तर्निहित लाभों के कारण पहले भी अधिकांश लोग अपने पूर्वजों के ही व्यवसाय को अपनाते थे, अब विवशता और असुरक्षा के कारण ऐसा अधिक होने लगा. धीरे धीरे वर्ण व्यवस्था कर्मानुगत न रहकर जन्मानुगत हो चली थी. जन्मानुगत व्यवस्था में भी भ्रांतियाँ थी और कौन किस वर्ण में है, यह स्पष्ट नहीं रह गया था. वृत्ति (पेशे) के अनुसार समाज छोटे छोटे समूहों में बंटा हुआ था. वृत्ति स्वाभाविक रूप से समाज वर्ग की पहचान बनी. वृत्ति अर्थात एक कर्म विशेष ही हर वर्ग विशेष कोज्ञातरहा और वही उसकीज्ञातिहुई. साथ ही वृत्ति से व्यक्ति का वर्गज्ञातहोने लगा और वृत्ति ही मनुष्य कीज्ञातिअर्थात पहचान हो गयी. इसलिए प्रत्येक ऐसे सामाजिक समूह कोज्ञातिसंबोधन प्राप्त हुआ.


ज्ञवस्तुतः एक संयुक्ताक्षर है और यह ज् और ञ से मिल कर बना है अर्थात (ज् + = ज्ञ) होता है. प्रकारांतर में ज्ञ के दो उच्चारण लोकप्रिय हुएएक ग्य और दूसरा ज. ज्ञान को लोगग्यानबोलने लगे तो ज्ञान से जान शब्द भी निकला. इसी से आगे जानना, जान पहचान आदि शब्द प्रचलित हुए. इसी क्रम में ज्ञाति शब्द जिसका अर्थ अभिज्ञान या पहचान से था, धीरे धीरेजातिशब्द में परिवर्तित हो गया. क्योंकि व्यक्तियों की पहचान उनके पेशे से होती थी, समाज के छोटे छोटे समूह जो एक ही पेशे में थे, एक एक जाति कहलाने लगे. इस प्रकार हम देखते हैं कि नाई, सुनार, कुम्हार, लोहार, अहीर, धोबी, बनिए आदि जातियाँ अस्तित्व में आईं.


जाति पंचायत और जातिगत कठोरता

 
हिन्दू समाज को भय होने लगा कि लोग राजाश्रय के लोभ में मुस्लिम न बनने लग जाएँ. इस्लाम का विस्तारवादी स्वभाव हिन्दू धर्म के अंतर्गत आने वाले किसी भी पंथ के स्वभाव से मेल नहीं खाता था. ऐसे में लोगों के मुस्लिम बनने से सामाजिक संघर्ष के बढ़ने की सम्भावना थी. हिन्दू राजा पराजित होकर मुस्लिम विजेताओं की अधीनता स्वीकार करने लगे थे. ऐसे में राजाओं से इस विषय में अधिक अपेक्षाएँ और आशाएँ नहीं रह गई थीं. अतः धर्मांतरण को रोकने के सामाजिक उपाय खोजे जाने लगे. यह अनुभव किया गया किसामाजिक बहिष्कारअन्य किसी भी उपाय से अधिक प्रभावी था. किसी व्यक्ति का समाज से रोटी-बेटी का सम्बन्ध समाप्त हो जाये तो उसके सम्मान की हानि तो होती ही है, उसका जीवन भी कठिन या कहें दूभर हो जाता है. सामाजिक बहिष्कार को प्रभावी बनाने के लिए समाज का संगठित होना आवश्यक था. इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भिन्न भिन्न जातियों की जाति पंचायतें अस्तित्व में आईं.


इन जाति पंचायतों के अस्तित्व में आने के कारण बड़े स्तर पर धर्मान्तरण पर रोक लगी. लोग जाति पंचायतों के आदेशों का उल्लंघन करने से डरने लगे.


जाति के अन्दर ही विवाह करने की प्रथा (endogamy) का उद्भव

 
इस बीच एक और समस्या ने समाज को आ घेरा. राजाश्रय प्राप्त मुस्लिम अब हिन्दू लड़कियों पर दृष्टिपात करने लगे. एक आयु के बाद की लडकियाँ असुरक्षित हो गईं. परिणामस्वरूप कम आयु में ही लड़कियों का विवाह करना माता पिता की विवशता होने लगी. ऐसे में लड़कियों के लिए वर ढूंढना एक समस्या के रूप में उभर कर आई. वर वधु जोड़ी मिलन की सम्भावना को बलवती करने हेतु जातियों ने तय किया कि जाति के लोग अपनी ही जाति में विवाह करेंगे. जाति के अन्दर ही विवाह करने के कारण कुछ अन्य सुविधाएँ भी होने लगीं. जाति के अन्दर की बहू को परिवार की आवश्यकताओं और परम्पराओं की समझ अधिक होती है. इससे बहू का परिवार में सामंजस्य सहज होता है. इस कारण जाति के अन्दर ही विवाह की प्रथा रूढ़ होती चली गई. धीरे धीरे अंतर्जातीय विवाह बहुत ही कम होने लगे और कालांतर में निषिद्ध हो गए. इसका एक प्रभाव यह हुआ कि अंतर्धार्मिक विवाह स्वयं ही रुद्ध हो गए और हिन्दुओं के धर्मान्तरण पर बड़े स्तर पर रोक लगी.


अस्पृश्यता का उद्भव

 
मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू राजाओं पर विजय प्राप्त करने उपरांत उनके सम्मुख जो सबसे बड़ी चुनौती थी वह थी अपने आधिपत्य तो सबल करना. अतीत में हिन्दुओं ने विदेशी सत्ता को जिस प्रकार उखाड़ फेंका था, उसने इन मुस्लिम आक्रान्ताओं को विशेष रूप से सतर्क कर दिया था. इसके अतिरित्क्त मुस्लिम स्वभाव अन्य समाजों के स्वभाव से पृथक था ही. मुस्लिम आक्रान्ता मात्र राज्य विस्तार के लिए नहीं आये थे. वे साथ ही साथ इस्लाम का भी विस्तार करने आये थे.


मुस्लिम आक्रान्ताओं ने पराजित हिन्दू राज्यों के सैनिकों को इस्लाम स्वीकार करने का प्रलोभन दिया. बहुत से हिन्दू सैनिक पद और नौकरी के प्रलोभन में आकर मुस्लिम बन गए. शेष सैनिकों पर दबाव का प्रयोग किया गया. कुछ सैनिक दबाव में आकर मुस्लिम बन गए. ये सैनिक मुस्लिम आक्रान्ताओं के लिए उनके शासन को सुदृढ़ करने के साधन बने.


किन्तु जो सैनिक मुस्लिम बनने को प्रस्तुत नहीं हुए, उनका क्या करना है, यह आक्रान्ताओं के सम्मुख एक चुनौती थी. युद्ध के पश्चात् इन सैनिकों की बड़ी संख्या में हत्या करने के बड़े दुष्प्रभाव हो सकते थे. ऐसा करना इन सैनिकों को विरोध करने के लिए उकसाने वाला कृत्य होता, जिससे बचना ही आक्रान्ताओं के लिए सर्वथा उचित था. कारण कि इन सैनिकों का बल या साहस या सामर्थ्य अब भी कम नहीं हुआ था. या तो इनके राजा की युद्ध में मृत्यु हो जाने के कारण या फिर इनके राजा द्वारा पराजय स्वीकार कर लेने के कारण इन्होनें युद्ध बन्द किया था. अगर आक्रान्ता इनकी हत्या का विचार भी करते तो अताम्रक्षा में ये सैनिक विरोध पर उतरे आते. ऐसे सैनिक मुस्लिम विजय को पराजय में परिवर्तित कर सकते थे. अतः पराजित सैनिकों को अपने पक्ष में करना ही आक्रान्ताओं के लिए सर्वश्रेष्ठ विकल्प था. इसी उद्देश्य से आक्रान्ताओं ने ऐसे सैनिकों को अपने यहाँ भृत्तक सैनिक के रूप में रखने की परम्परा प्रारंभ की.


अधिकांश सैनिकों को प्रेरणा उनके राजा या सेनानायक होते थे. तथापि बहुत से सैनिक मातृभूमि की सेवा भावना से प्रेरित होने से स्वप्रेरित (self motivated) भी होते हैं. यद्यपि अन्य सैनिकों के साथ इन्हें भी राजा अथवा सेनानायक की मृत्यु होने या उनके द्वारा पराजय स्वीकार कर लेने के कारण युद्ध से विमुख होना पड़ा हो, ऐसे स्वप्रेरित सैनिक विजेता शत्रु की चाकरी करने को प्रस्तुत न थे. इस प्रकार पराजित सैनिकों के तीन वर्ग बन गएपहला वह जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, दूसरा वह जिन्होंने मुस्लिम राजाओं की आधीनता स्वीकार कर ली और उनकी चाकरी करने लगे और तीसरे वे स्वाभिमानी देशभक्त सैनिक जिन्होंने न तो इस्लाम स्वीकार किया और न ही मुस्लिमों के चाकरी स्वीकार की.


ऐसे तीसरे वर्ग के सैनिकों का क्या किया जाए, यह विजेता राजाओं के लिए सबसे बड़ी समस्या होती है. यदि इनको छोड़ दिया जाता है तो ये समाज में जाकर विद्रोह का सूत्रपात करेंगे और यदि इन्हें मारा जाता है तो ये मृत्यु तक युद्ध करेंगे जिससे युद्ध की विभीषिका और भी भयावह हो जाएगी. इसके अतिरिक्त अन्य सैनिकों को भी यह सन्देश जायेगा कि पराजित सैनिकों के प्राण संकट में हैं और हो सकता है कि ऐसे में वे भी युद्ध को व्यक्तिगत भाव से लेकर भीषण विद्रोह करने लगें. ऐसे में इस उलझन का एक ही उपाय है. किसी प्रकार से ऐसे सैनिकों को समाज से पृथक किया जाए. कुछ ऐसा किया जाए कि जिस समाज के लिए ये लड़ने को प्रस्तुत हैं वही समाज इन्हें अस्वीकार कर दे.


विजेता मुस्लिम राजाओं ने देखा कि भारतीय समाज पवित्रता, शुद्धता और स्वच्छता को विशेष महत्त्व देता है. उन्होंने सोचा कि यदि तीसरे वर्ग के स्वाभिमानी और विशेष साहसी एवं देशभक्त ऐसे सैनिकों को यदि अपवित्र अशुद्ध और अस्वच्छ कार्य में लगा दिया जाए तो भारतीय समाज इनको अस्वीकार कर देगा. मुस्लिमों ने देखा कि स्वच्छता की परंपरा के पालन में हिन्दू गाँव से बाहर खेतों में शौच के लिए जाता है. उन्हें समझ आया कि यदि इन सैनिकों से शौच उठवाने का कार्य करवाया जाये तो हिन्दू समाज उनका सहज ही त्याग (रिजेक्शन) कर देगा. इसी से मुस्लिमों ने घरों में शौच जाना और उसे इन सैनिकों से उठवाना प्रारम्भ किया. इन देशभक्त सैनिकों से दासों जैसा व्यवहार किया गया. इनके सारे मानवीय अधिकार छीन लिए गए ताकि इनको देख कर अन्य लोग भी भयभीत हो जाएँ और कोई विद्रोह करने का साहस न जुटा पाए.


कुछ मुस्लिम आक्रान्ताओं के भय से, और कुछ इनके मल उठाने के कार्य के कारण, जैसा मुस्लिम आक्रान्ताओं ने चाहा था वैसा ही हुआ और शेष हिन्दू समाज ने अपने इन वीर योद्धाओं का त्याग कर दिया. धीरे धीरे ऐसे सैनिकों का एक वर्ग खड़ा होने लगा और ये समाज में निकृष्ट समझे जाने वाले कार्यों के लिए ही रह गए. इस वर्ग को समाज ने अस्पृश्य घोषित कर दिया और ये समाज से बहिष्कृत जीवन के लिए विवश हुए. इनकी बस्तियां गांवों से बाहर बसने लगी. इनमें से बहुत से लोग मरे हुए पशुओं का चमड़ा छीलने जैसे कार्यों में भी लगे और दरिद्रता के कारण ऐसे मरे हुए पशुओं का मांस तक खाने को विवश हुए. इतने पर भी मुस्लिम इनसे भयभीत रहते थे और इन पर अत्याचार करते रहते थे. ऐसे में मुस्लिमों से बचने के लिए इन्होंने सूअर पालने भी प्रारम्भ कर दिए क्योंकि मुस्लिम सूअर को वर्जित मानते हैं.


किन्तु मल ढोने के अतिरिक्त मरे हुए पशुओं के चमड़े छीलने और उनका मांस खाने और सूअर पालने के कार्यों से शेष हिन्दू समाज से इनकी दूरी बढती चली गयी और प्रकारांतर में शेष हिन्दू समाज से ये कट से गए. परिणाम स्वरुप इनका विकास बाधित हुआ, इनकी शिक्षा दीक्षा नहीं हो पाई और ये शेष समाज से पिछड़ गए. किन्तु मूलरूप से धर्म परायण यह वर्ग, इतनी भयवाह उपेक्षा सहकर भी मुस्लिम नहीं बना, वरन हिन्दुत्व की रक्षा में खड़ा रहा.


क्या इस बात का कोई आधार हैं?

 
देश भर में जो भी अछूत या अस्पृश्य समुदाय माने जाते हैं, उन सबमें गोत्र परम्परा प्रचलित है. इनके गोत्र वही हैं जो शेष समुदाय के गोत्र हैं. यह एक ठोस साक्ष्य है कि कभी ये भी मुख्य समाज का ही भाग थे. इसके अतिरिक्त इनकी कुलनाम (सरनेम) वही हैं जो क्षत्रियों में पाए जाते हैं जैसे चौहान, सिंह, बाघ, सारथी, नायक इत्यादि.


इतना अपमान और बहिष्कार सहने के पश्चात् भी इस समुदाय में हिन्दुत्व के प्रति जो ललक, श्रद्धा, स्नेह और ममत्व है, वह श्रेष्ठ जीवट का प्रतीक है और ऐसा जीवट केवल उच्च दर्जे के क्षत्रीय में ही देखने को मिल सकता है.


क्या ऐसा विश्व में किसी अन्य स्थान पर भी हुआ?

 
प्रश्न है कि क्या स्वाभिमानी पराजित सैनिकों को शेष समाज से काट कर अस्पृश्य बना देना कार्य पहली बार और मात्र भारत में ही हुआ. देखने पर पाएँगे कि ऐसा अन्य स्थानों पर भी हुआ है. कोरिया में बैक्जेओंग (baekjeong) समुदाय, जो आजकल चमड़े सम्बंधित कार्य करता है, अपृश्यता का दंश झेल रहा है. यह समुदाय ग्यारहवीं शताब्दी में खितान आक्रमण के पश्चात् पराजित सैनिकों से ही अस्तित्व में आया. जापान में एटा या बुरुकुमिनी समुदाय और फ्रांस और स्पेन में बास्क क्षेत्र में गेज़ीटियन्स (gezitians)/ गाहेट्स/ गाफेट्स भी ऐसे ही समुदाय हैं.


अस्पृश्यता का प्रभाव

 
अस्पृश्यता ने हिन्दू समाज की गौरवशाली परम्परा को कलंकित किया. हिन्दू समाज की जो व्यवस्था सामाजिक समानता और सबको उचित अवसर प्रदान करने वाली थी, वह समाप्त हुई. समाज के एक वर्ग को अत्याचारों का सामना करना पड़ा. इससे समाज का सर्वांगीण और समुचित विकास अवरुद्ध हुआ.


अस्पृश्यता ने हिन्दू समाज के सबसे साहसी और वीर वर्ग को समाज से काट दिया और समाज की संघर्ष क्षमता को सीमित किया. परिणामस्वरुप हिन्दू राष्ट्र का बड़ा भाग लम्बे समय तक दासत्व से पीड़ित रहा.


अस्पृश्यता ने सामाजिक न्याय को नष्ट किया. इसके परिणामस्वरूप समाज के कुछ सबल घटक दुर्बल घटकों को नीची दृष्टि से देखने को अपना अधिकार समझने लगे. यह रोग धीरे धीरे बढ़ने लगा. यहाँ तक कि तथाकथित अस्पृश्य वर्ग में भी अंतर वर्ग बन गए और उनमें भी आपस में अस्पृश्यता अभ्यास में आ गई.


अस्पृश्य समाज धीरे धीरे अपना धैर्य खोने लगा और वांछित सम्मान की लालसा में अपने पूर्वजों के महान त्याग के मूल कारण धर्म रक्षण के विपरीत स्वयं ही धर्मान्तरण की ओर आकृष्ट होने लगा. इनमें से थोड़े से तो मुस्लिम भी बने जबकि बड़ी संख्या में ईसाइयत के षड्यंत्रों के शिकार हुए और ईसाई बने. इसके लिए चर्च ने मुख्य रूप से शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बन्धित अपने तानेबाने को माध्यम बनाया. इसके अतिरिक्त चर्च ने धन को भी शस्त्र बनाया.


इसके अतिरिक्त अस्पृश्य समाज वामपंथियों के षड्यंत्रों के भी शिकार हुए. वामपंथियों ने अपने एजेंडा के अन्तर्गत इस वर्ग को शेष हिन्दू समाज से पृथक करने का भरसक प्रयास किया और इनके मन में हिन्दू मान्यताओं, परम्पराओं और शास्त्रों के प्रति घृणा भरी. वामपन्थी भारत की शिक्षण व्यवस्था को प्रभावित करने में पर्याप्त सफल रहे हैं और उन्होंने अपने इस प्रभाव का उपयोग भी हिन्दू समाज के आत्मविश्वास में कमी लाने के लिए बहुत किया.


क्या अस्पृश्यता का कारण जाति व्यवस्था है?

 
वस्तुतः देखें तो किसी भी बड़े समाज को व्यवस्था के दृष्टि से छोटे छोटे घटकों ने बांटना ही होगा. यदि ऐसा न किया गया तो समाज स्वयं अव्यवस्थित घटकों में बंट जायेगा और वर्ग संघर्ष का जन्म होगा. ऐसी अव्यवस्था विश्व के कई क्षेत्रों में होती रही है.


भारत में जाति व्यवस्था समाज के ऐसे छोटे छोटे समूहों की पहचान ही है और इसके कई लाभ भी हुए हैं. इसी जाति व्यवस्था के कारण भारत ने एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था खड़ी की थी, जिसमें समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए आजीविका की तो अद्भुत व्यवस्था थी ही, आजीविका की निश्चितता (job security) भी थी. इसी निश्चितता के कारण प्रत्येक कला और कौशल के क्षेत्र में, जिनका विस्तार धातु विज्ञान से लेकर वस्त्र निर्माण तक था, भारत ने नए और ऊँचे आयाम स्थापित किये थे.


यह एक भ्रम हम भारतीयों के मन में बैठा दिया गया है कि हमारी जाति व्यवस्था भेदभाव मूलक है. वस्तुतः हमारी समाज व्यवस्था समतामूलक है. एकमात्र अपवाद अस्पृश्यता है जो जाति व्यवस्था की देन नहीं है. हम पाते हैं कि हमारे पूर्वज आपस में जातियों की तुलना करते थे तो किसी जाति को छोटी जाति और किसी जाति को बड़ी जाति कहते थे. वे कभी भी किसी जाति को ऊँची जाति और किसी जाति को नीची जाति नहीं कहते थे. इसका कारण यही है कि हिन्दू समाज में ऊँच नीच का भेदभाव नहीं था.


अब प्रश्न है कि किसी जाति को छोटी जाति क्यों कहा जाता था? देखने पर हम पाएँगे किछोटी जातिका संबोधन सेवा प्रदाता व्यवसाय में लगे लोगों के लिए प्रयोग में आता था, जैसे नाई, धोबी, लोहार, कुम्हार, रावत आदि. इसका कारण बहुत ही सुगम और स्पष्ट है. किसी भी गाँव में नाई या धोबी या लोहार या कुम्हार या रावत स्वाभाविक रूप से सीमित संख्या में ही होते थे.

 
इनकी तुलना में किसान आदि बहुत अधिक संख्या में होते थे. तो जब इन जातियों के पंचायतें बनीं तो उनकी सदस्य संख्या बहुत थोड़ी रही. इससे इन्हें छोटी जातियां कहा गया. अतः किसी जाति का छोटा या बड़ा होना उस जाति के सदस्यों की संख्या पर निर्भर था. यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि छोटी जातियों का महत्त्व समाज में कम नहीं था और न ही इन जातियों के लोग उपेक्षित थे. समाज के प्रत्येक पर्व संस्कार में सभी जातियों की भूमिकाएँ निर्धारित की गईं थीं, ताकि समाज में समरसता बनी रहे.


यूरोपीय लोग जब भारत में आये तो उनके लिए जाति व्यवस्था नयी व्यवस्था थी क्योंकि उनके समाज में ऐसी व्यवस्था नहीं थी. उन्होंने उनके समाज में एक कास्ट सिस्टम देखा था तो उन्होंने जाति व्यवस्था को कास्ट सिस्टम ही समझ लिया और जातियों को कास्ट नाम दे दिया. कालांतर में अंग्रेजों ने ही कास्ट के साथ लोअर और अप्पर शब्द जोड़े और जातियों को ऊँचा और नीचा बताया. इस प्रकार जातियों को भेदभाव पूर्ण बताने के पीछे अंग्रेजों का एक उद्देश्य भारतीय समाज में फूट डालना भी था. अन्यथा भारत में लोग आपस में एक दूसरे को पारिवारिक संबोधनों यथा चाचा, मामा, नाना, काका, बुआ, भाभी, चाची, मौसी आदि से ही बुलाते थे. ऊपर वर्णित जातियों के अतिरिक्त अन्य जातियों में आपस में अस्पृश्यता नहीं थी.


क्या जाति व्यवस्था और कास्ट सिस्टम एक ही है?

 
कास्ट शब्द मूलतः पुर्तगाली शब्द है और इसका अर्थ साँचा होता है. इसी शब्द से कास्टिंग (casting) शब्द निकला है जिसका अर्थएक साँचे में ढालनाहोता है. मध्यकाल में, जब विज्ञान इतना उन्नत नहीं था, पुर्तगाल में लोग मानते थे कि भरेपूरे, ऊँची कद काठी वाले लोग ईश्वर द्वारा अलग साँचे में ढाले गए हैं. आपने एक वाक्यांश सुना होगा – Dark Tall and Handsome. यह उसी सोच से निकला है. उनका मानना था कि ऐसे लोगों की कास्ट (cast - अर्थात साँचा) ही औरों से उन्नत या ऊँचा है. इस कारण वे ऊँची कास्ट के कहलाये. अन्य लोग स्वाभाविक रूप से नीची कास्ट के माने गए.


हर समाज में सुन्दर दिखने वाले, ऊँची कद काठी के लोगों को अलग ही सम्मान मिलता है. इससे सबके मन में ऐसा ही बनने की स्वाभाविक इच्छा रहती है. अतः मनुष्यों को वैसा ही बनाने के विभिन्न प्रयास जगत भर में चलते रहते हैं. इसे हम नस्ल सुधार के प्रयास के रूप में भी देख सकते हैं. इसी क्रम में पुर्तगाल में एक विचार चला कि यदि ये ऊँची कास्ट वाले लोग ही आपस में विवाह करें तो इनकी संताने भी ऊँची कद काठी वाले होंगे. इस प्रकार से इनमें इंडोगामी (endogamy – अर्थात अपने ही समाज में विवाह की प्रथा) प्रचलित हुई और ऐसे लोगों के अलग समाज बनने लगे. ऐसे प्रत्येक समाज को अलग कास्ट कहा जाने लगा. वस्तुतः कास्ट शब्द भी पुर्तगाल से ही निकला. पुर्तगीज (पुर्तगाल की भाषा) में साँचे को कास्टा कहा जाता है जो चलते चलते अंग्रेजी में कास्ट शब्द बन गया.


बाद में जब भारत के कुछ हिस्सों में पुर्तगालियों के उपनिवेश बने. उन्होंने जब भारत में जाति व्यवस्था देखी तो इसमें प्रचलित इंडोगामी को देखकर उन्हें लगा कि जाति व्यवस्था भी उनकी कास्ट व्यवस्था ही है. उनके पासजातिशब्द के लिए कोई पर्यायवाची तो था नहीं, तो उन्होंने जातियों को कास्ट संबोधन ही दिया. जातियों और कास्ट को एक ही व्यवस्था मानने वालों में स्वाभाविक रूप से धीरे धीरे जातियों के ऊँची-नीची होने की बात प्रचलन में आने लगी, भले ही भारत में ऐसा न होकर जातियों के आकार से उन्हें छोटा बड़ा कहा जाता था.

 
आगे चल कर जब देश में अग्रेज़ी शासन स्थापित हुआ और अंग्रेजी प्रचलन में आई तो कास्ट के साथ अपर और लोअर जुड़ गया और हम ऐसे ही शब्दों का प्रयोग करने लगे. 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भारत के प्रत्येक जाति के राजा और सैनिक मिल कर लड़े थे. भले ही यह संग्राम भारतीय राजा हार गए, इसने अंग्रेजों को अन्दर तक डरा दिया था. इसलिए भारतीय समाज में फूट डालने के लिए अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना प्रारम्भ की. उन्होंने जातियों के ऊँचे और नीचे होने की बात को प्रचारित किया और इसका उपयोग समाज को बाँटने में किया.


किसी भी समाज में इंडोगामी के कई दुष्परिणाम होते हैं. इनमे अनुवांशिक रोग एक बड़ा दुष्परिणाम होता है. कास्ट सिस्टम इस दुष्प्रभाव ये युक्त है अतः दोषपूर्ण है. यूरोप में इंडोगामी से बचने के लिए कास्ट सिस्टम को ही छोड़ना पड़ा.


भारत की जाति व्यवस्था यूरोप के कास्ट सिस्टम से भिन्न व्यवस्था है. इसमें इंडोगामी के साथ साथ एक्सोगामी (अंतर समूह विवाह व्यवस्था) भी है. इसके लिए प्राचीन काल से चली आ रही गोत्र व्यवस्था ने हमारी बहुत सहायता की है. इस कारण भारतीय जाति व्यवस्था यूरोपीय कास्ट सिस्टम की भान्ति दोषपूर्ण न होकर एक निर्दोष सामाजिक व्यवस्था है. भारतीय जाति व्यवस्था आजीविका की सुरक्षा के साथ साथ सामाजिक सुरक्षा भी उपलब्ध करवाती है. यूरोप की कास्ट सिस्टम व्यवसाय आधारित नहीं है जबकि भारत की जाति व्यवस्था व्यवसाय या आजीविका आधारित है. अतः भारत की जातियों को कास्ट कहना उचित नहीं है. जाति व्यवस्था यूरोपीय कास्ट सिस्टम की तुलना में बहुत उन्नत व्यवस्था थी.


हिन्दू समाज को क्या करना चाहिए?

 
हिन्दू समाज को समझना होगा कि जातिगत कठोरता का उद्भव कैसे हुआ. जिन परिस्थितियों में हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था ने कठोरता धारण की, उस समय उसकी आवश्यकता थी. यह सत्य है कि जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को धर्मान्तरण से बचाया. अन्यथा इस्लाम जहाँ भी पहुँचा उसने वहाँ की मूल संस्कृति को बड़ी तेजी से समूल नष्ट कर दिया और वहाँ के सम्पूर्ण समाज पर अरबी संस्कृति थोप दी. किन्तु जाति व्यवस्था के कारण ही इस्लाम तेरह सौ वर्षों से अधिक समय में भी भारत में ऐसा करने में पूर्ण रूपेण सफल नहीं हो पाया. यद्यपि 82 लाख वर्ग किलोमीटर से भी अधिक भूमि तक विस्तृत भारतीय राष्ट्र आज 32 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि में सिमट गया है, आज भी विश्व में एक सौ बीस करोड़ हिन्दू विश्व की तीसरी सबसे बड़ी धार्मिक जनसँख्या हैं.


किन्तु हिन्दुओं को समझना होगा कि अब जातिगत कठोरता की आवश्यकता समाप्त हो चुकी है. औद्योगिक क्रांति के पश्चात् और अंग्रेजों द्वारा भारतीय ग्रामीण व्यवस्था को नष्ट कर देने के पश्चात् देश का नगरीकरण (शहरीकरण) भी बड़ी तीव्रता से हुआ है. तो इस नवीन व्यवस्था में पुरातन जाति व्यवस्था प्रासंगिक नहीं रह गई है. अब जाति व्यवस्था का महत्त्व पुरातन गोत्र व्यवस्था की रक्षा तक सीमित है. अतः अब हिन्दुओं को जाति व्यवस्था की कठोरता को त्यागना होगा और एक सर्व समावेशी और समरस समाज की रचना करनी होगी.


जहाँ तक अस्पृश्यता की बात है तो अस्पृश्यता ने हिन्दू समाज में जिस रूप में जन्म लिया उसी से स्पष्ट है कि यह हिन्दू समाज की सबसे बड़ी भूल है और तत्काल प्रभाव से पूर्णतः त्याज्य है. हिन्दू समाज को चाहिए कि अपने वीर सैनिकों के वशंजों से क्षमा याचना करें और उनके पूर्वजों ने अमानवीय कष्ट सहते हुए भी जिस प्रकार से हिन्दू धर्म का पालन किया, उसके लिए उनका अभिनन्दन करें और उन सबको समाज में सम्मान का स्थान देकर समाज में उन्हें समरस करें.


अस्पृश्यता को तत्काल सम्पूर्ण रूप से समाप्त कर और जातिगत कठोरता को त्याग कर हिन्दू समाज अपने पुराने गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है. इसके अतिरिक्त अगर हिन्दू समाज जातिगत कठोरता का त्याग करता है और सभी जातियों के लोगों को समान समझता और सामान अधिकार देता है, तो सहज सम्भव होगा कि हमारे जो भाई किन्हीं भी कारणों से हिन्दू समाज को छोड़कर चले गए हैं और मुस्लिम या ईसाई बन गए हैं, हम उन्हें अपने समाज में वापस ला सकेंगे. अगर हिन्दू समाज ऐसा करने में सफल होता है तो देश में चल रहे सभी सामाजिक संघर्षों का भी सुखद अंत सम्भव होगा.

 
लेखक

सुनील अग्रवाल
आग्रह व्रत अभियान