वक्त आ गया है वामपंथियों के ऐतिहासिक पाप के प्रायश्चित का

1906 में इंडिया हाउस लंदन में गांधी जी और सावरकर की मुलाकात में उनकी जाति क्यो बताई गयीं इसके दो कारण है एक तो वामपंथी हमेशा हिन्दू धर्म को ब्राह्मण सुप्रीमेसी वाला धर्म साबित करने की जी जान से कोशिश करते रहे है दूसरा वो गांधी और सावरकर के विरोध बताकर सावरकर ने ही गांधी की हत्या का षड्यंत्र बच था, इस बात की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे है।

The Narrative World    08-Feb-2023   
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बॉलीवुड की कई फिल्में ऐसी जहाँ शुरू से लेकर आखिरी तक हम जिसको हीरो समझ रहे होते है वो आखिरी में विलेन निकलता है
, जिसको विलेन वो अचानक हीरो बन जाता है।


विलेन के हीरो और हीरो के विलेन बनने तक यात्रा में हमारी कोई भूमिका नही होती क्योंकि पटकथा लेखक अपने संवादों से निर्देशक अपने द्रश्यों से हमारे दिमाग के साथ खेलता है, फ़िल्म के आधे से अधिक हिस्से तक में जिसे हम शैतान समझ रहे थे वो भगवान निकलता है और भगवान में हमे अचानक शैतान नज़र आने लग जाता है।

इस पूरी प्रक्रिया का नाम है "गेम ऑफ परसेप्शन।"


अपने हिंदी फिल्मो के पटकथा लेखक जिनमे ज़्यादातर FTTI पुणे में प्रक्षिक्षण प्राप्त करते है ये उनकी जादूगरी है। भारत के लोग भावना से इतने भरे होते है फ़िल्म में भी खलनायक का किरदार करने वाले व्यक्ति को समाज में घृणा की नज़र से देखा जाता है।


हमे याद है बचपन मे टेलीविजन पर जब ललिता पंवार आती थी तो उसको देखते ही घर की माता-बहने अपशब्दों के तीर चलाने लगती थी। आप सोच रहे होंगे सावरकर के विषय पर लिखे लेख में इस चर्चा का क्या सम्बन्ध है?


इन उदाहरणो मैं बस ये बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि कैसे किसी व्यक्ति जिसे हमने देखा नही उसके बारे में हम अपनी राय बनाते हैं, असल में वो हमारी राय नहीं होती बल्कि प्रचार माध्यमों पर बैठे लोगों के विचार होते है जिसे बड़ी ही चतुराई से वो मनोरंजन के नाम हमारे मन मष्तिष्क स्थापित कर देते हैं और हम भी वही मानने लगते जो वो मानते हैं, हम भी वही कहने लगते हैं।


जो वो कहते है हम भी वही सोचने लगते है जो वो चाहते है पर्दे पर देख कर छवि बनाने के हम इतने आदि हो गए है कि हम कभी जानने की कोशिश ही नही करते कि पर्दे के पीछे कौन है ?


ये बात और भी दूर की कौड़ी है हम जाने उसकी नियत क्या है ? इस "गेम ऑफ परसेप्शन" के आज़ादी के बाद के सबसे बड़े शिकार रहे है वीर सावरकर।


हम यहाँ एक उदाहरण से पर्दे के पीछे का सच जानने की कोशिश करेंगे। आज सूचना का सबसे बड़ा माध्यम है इंटरनेट। नयी पीढ़ी का गुरु गूगल है जिससे वो सब पूछते हैं। यूट्यूब, फेसबुक पर सुनते, देखते और पढ़ते है। आज आपको सावरकर को जानना है तो आप यूट्यूब, फेसबुक पर सर्च करेंगे। यहाँ हमको दिखाई देगी BBC HINDI (बीबीसी हिंदी) के चैनल पर द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री सावरकर हीरो या विलेन? लगभग 17 मिनट के इस चलचित्र को देखकर आप सावरकर के बारे में अपनी राय बना सकते देखने के बाद छवि क्या बनती ये नीचे कमेंट बॉक्स में लिखी टिप्पणियों से स्पष्ट हो जायेगा। अब तक 17 लाख लोग इसे देख चुके या दूसरे शब्दों में देश दुनिया मे 17 लाख लोग और बढ़ गये है जो सावरकर को विलेन, कायर, भारत के टुकड़े करने वाला, गद्दार, अंग्रेजो से माफी मांगने वाला आदि-आदि मानता है मेरी बात की तस्दीक डाक्यूमेंट्री देखने बाद नीचे लोगो द्वारा लिखे गये कमेंट भी करते है।

ये बात थी पर्दे के सामने की आइये अब बात करते के पर्दे के पीछे की।


इस डाक्यूमेंट्री में जिनका सबसे अहम रोल है अर्थात इसके निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक उनका नाम रेहान फज़ल। ये महोदय बीबीसी हिंदी के संपादक भी है। इनको जानना है गूगल पर सर्च कीजिये, आपको एक लेख मिलेगा जो फरवरी 2002 में गुजरात दंगों पर कवरेज के दौरान आपबीती पर लिखा गया है।

दंगे शुरू हुए थे गोधरा में कारसेवको को जेहादियों द्वारा जिंदा जलाने से। रेहान फज़ल महाराज उसे तो भूल गए लगे बताने भगवा पहने हिन्दू उपद्रवियों के बारे में। किसी गवाह की जरूरत ही नही, यहाँ तो गवाह भी ये थे और पीड़ित भी यही। शब्दों के जादूगरी इस खूबसूरती से की गयी आपको भगवा में आतंक नज़र आने लगे।

कुल मिलाकर लेख में वास्तविक कम और फिक्शन ज्यादा है। इनके वैचारिक प्रतिबद्धता किधर है ये उनके फेसबुक पेज से स्पष्ट हक जाती है पिछले मई माह के कुछ लेख पोस्ट किये उनके शीर्षक (हेडिंग) से समझ आ जायेगा। याद रहे गेम ऑफ परसेप्शन (छवि निर्माण के खेल ) में शीर्षक का बहुत महत्व होता है।


1 मई - बब्बर शेर की तरह टूट पड़ता था (सोशलिस्ट नेता मधु लिमये पर लेख महिमामंडन)


2 मई हिंदुत्व की राजनीति का पहला झंडावाहक

(बलराज मधोक की अटलबिहारी वाजपेयी अन्तर्विरोध हिंदुत्व नकरात्मक व्याख्या)


4 मई छोटे कद के सुल्तान ने कैसे अंग्रेजो के छक्के छुड़ा दिए थे


4 मई टीपू सुल्तान की जिंदगी के आखिरी पल (दोनों लेखों में टीपू सुल्तान का महिमा मंडन , स्मरण रहे टीपू सुल्तान पर कर्नाटक हिंदुत्व वादियों का स्टैंड ,और शाहरुख खान की आने वाली फ़िल्म )


11 मई 1857 के ग़दर जब दिल्ली ने देखा मौत का तांडव (बहादुर शाह जफर और उनके साथियों का महिमामंडन, लेकिन 1857 को विद्रोह नही स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले सावरकर की डाक्यूमेंट्री में किताब की भूमिका को जादुगरी से छुपाया गया)


16 मई जनरल करियप्पा जिन्हें पाकिस्तानी भी सलाम करते थे (वास्तविकता पाकिस्तानी सबसे ज्यादा नफरत भारत के सेना से करते है असंख्य उदाहरण है )


और अनेक तथ्य, तर्क और उदाहरण है जिससे साबित होता है कि राष्ट्रवाद के प्रति इनकी क्या सोच है और वामपंथियों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता


रेहन फज़ल की डॉक्यूमेट्री की शुरुआत में ही वो बताने की कोशिश करते है कि सावरकर को भारत रत्न देने के प्रयास 2002 में भी किये गए थे जिन्हें सफल नही होने दिया गया। लगता वो कहना चाहते हो आगे भी सफल नही होने देंगे।


1906 में इंडिया हाउस लंदन में गांधी जी और सावरकर की मुलाकात में उनकी जाति क्यो बताई गयीं इसके दो कारण है एक तो वामपंथी हमेशा हिन्दू धर्म को ब्राह्मण सुप्रीमेसी वाला धर्म साबित करने की जी जान से कोशिश करते रहे है दूसरा वो गांधी और सावरकर के विरोध बताकर सावरकर ने ही गांधी की हत्या का षड्यंत्र बच था, इस बात की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे है।


रेहान फैज़ल ने जिसे सावरकर विचार एक्सपर्ट के तौर पर जिन चार लोगों को डॉक्यूमेट्री में शामिल किया है उसमें से एक है घोर वामपंथी निरंजन तकले।


आपको याद होगा पुलवामा अटैक में शहीद जवानों की जाति बताता एक लेख वामपंथी पत्रिका कारवाँ में लिखा गया था जिसका शीर्षक था "ऊंची जातियों के हिन्दूराष्ट्रवाद की भेंट चढ़े पिछड़ी जातियों के जवान" निरंजन तकले पिछले कुछ वर्षों से इसी कारवाँ मैगज़ीन सक्रिय है वो हिंदुत्व से कितनी नफरत करते है ये उनके ट्विटर, यूट्यूब के लेख और भाषणों से पता चल जाएगा।


सावरकर से कितनी नफरत करते है ये इस बात से समझ मे आ जाएगा के देश के गृह मंत्री अमित शाह का अपने बैठक कक्ष में सावरकर की लगाना इन्हें इतना नागवार गुजरा कि जस्टिस लोया केस में भी बिना तथ्यों के अमित शाह पर आरोपो की झड़ी लगाए हुए है साफ है निरंजन तकले सावरकर के बारे में क्या कहेंगे। सावरकर हीरो या विलेन ..?


बीबीसी हिंदी की डॉक्यूमेट्री में निरंजन तकले समझाने की कोशिश करते है सावरकर अंग्रेजो के एजेंट थे अपनी बात के समर्थन वो तर्क देते है जब सावरकर अंडमान की सेल्युलर जैल (कालापानी) गये थे तब उनका वज़न 112 पौंड थ बाद में उनका वज़न बढ़कर 126 पौंड हो गया।


जबकि 18 जनवरी 1920 को सावरकर के बड़े भाई डॉ नारायण सावरकर गांधी जी को लिखे एक पत्र लिखते है "कल मुझे भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया कालापानी से रिहा किये जाने वाले लोगों में सावरकर बन्धुओ (वीर सावरकर और गणेश सावरकर) का नाम शामिल नही है मेरे दोनों भाई अंडमान जैल में दस वर्ष से ज्यादा की सजा भोग चुके है। उनका (वीर सावरकर ) का वजन 118 पौंड से घटकर 95 पौंड हो गया है।"


आप समझ सकते है कि वामपंथियों ने सावरकर को कलंकित करने हेतु कितने झूठ और कुतर्क गढ़े होंगे तब जबकि आज़ादी के बाद से ही ICHR(इंडियन सेंटर ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च ) जैसी सरकारी अधिकार और मान्यता प्राप्त संस्थाओं पर वामपंथी अतिवादियों का कब्जा रहा है रामचंद्र गुहा , रोमिला थापर ,इरफान हबीब ,जैसे इतिहास कारो के कारण हम अबतक गुलामी ,पराजय और पराभव के इतिहास पढ़ रहे है श्मशुल इस्लाम , मारकंडेय काटजू को पढ़कर सावरकर से घृणा नही तो और हो भी क्या सकता है।


खैर हम फिर डक्यूमेट्री पर आते हैं, डॉक्यूमेट्री के दूसरे बड़े इतिहासकर वामपंथी विद्वान नीलांजन मुखोपाध्याय है पिछले दिनों इनकी एक पुस्तक "the rss icon of the indian right". में एक बार फिर से सावरकर, गोलवलकर और हेडगवार जी पर एकतरफा वामपंथी विषवमन का शिकार बनाया गया।


नीलांजन मुखोपाध्याय आजकल द वायर , क्विंट ,ndtv सहित अन्य वामपंथी पत्रिकाओं ,चेनलो पर पढे और देखे जा सकते है ये बड़ी ही चतुराई से सावरकर के लेखन ,क्रांति कार्यो (कर्जन वायली का वध ,जैक्सन का वध,अभिनव भारत,मित्रमेला, इंडिया हाउस लन्दन आदि ) जीवन ,त्याग ,बलिदान और समर्पण को निगल जाते है फिर उन्हें अंग्रेजो का एजेंट और गांधी हत्या का दोषी साबित करने की कोशशि में जुट जाते है।

सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी इस बात की वामपंथी व्याख्या अपने तरीके से करके सावरकर को कायर और देशद्रोही साबित करने की कोशिश करते रहे है।


वे जहां मौका मिलता है इसे उभारने की साजिश करते ही है जबकि सावरकर शुरू से ही अंग्रेजों कैद से भागने के भिन्न भिन्न प्रयत्न करते थे जब लंदन से उनको गिरफ्तार करके एस एस मौर्य जहाज से भारत लाया जा रहा था तब उन्होंने समुद्र में छलाँग लगाने के पीछे का यही मकसद था।


अंडमान की सेल्युलर जैल में रहने के दौरान भी वो ये कोशीश करते रहे 1921 में लन्दन के अखबार "कैपिटल" डिचर नाम के पत्रकार ने अपने लेख में लिखा था की कैसे सावरकर बन्धुओ ने जैल में वायरलेस का इस्तेमाल करके भागने की षड्यंत्र रचा था।


सेल्युलर जेल के तात्कालिक जेलर बैरी के दुष्टता के बारे में सब जानते है वो सावरकर को सबसे ज्यादा प्रताड़ित करता था केवल शारीरिक रूप से नही तो मानसिक रूप से प्रताड़ना की पराकाष्ठा उनको झेलनी पड़ती थी सावरकर को 13.5 ×7.5 की छोटी सी कोठरी में रखा गया था जिसके ठीक पास में फाँसीघर था जहां आये दिन क्रांतिकारियों को फाँसी सी जाती थी।


सावरकर समझ चुके थे 50 साल सजा पूरी होने के पहले ही उन्हें प्रताड़ित करके जैल में मारने का मंसूबा पाले बैठी ब्रिटश सरकार के सामने रणनैतिक पांसा फेकना चाहिए इसी रणनीति का हिस्सा था उनका तथाकथित माफीनामा।


छत्रपति शिवाजी ने भी अपने जीवन काल मे आगरा के किले की कैद से निकलने की रणनीति हो अथवा अफजल खान को सन्धि पत्र भेजकर हार स्वीकार करने की कूटनीतिक चाल हो वो ऐसे समयानुकूल रणनैतिक कदम उठाते थे।


यहाँ सावरकर के बड़े भाई डॉ नारायण सावरकर और गांधी जी के बीच का एक पत्र का उल्लेख आवश्यक हो जाता है 25 जनवरी 1920 को गाँधी लाहौर से लिखते है "अपको सुझाव देना कठिन है तथापि मेरा सुझाव है आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें ताकि यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आये कज आपके भाईसाहब (वीर सावरकर) ने जो अपराध किया था उसका स्वरूप बिल्कुल राजनैतिक था। मैं ये सुझाव इसलिए दे रहा हूँ ताकि इससे जनता ध्यान इस ओर आकर्षित करना आसान होगा।"


इससे स्पष्ट है कि सावरकर ने लोग क्या कहेंगे की परवाह किये बगैर ही जेल से बाहर आकर मातृभूमि स्वतंत्रता हेतु सघर्ष का प्रयत्न किया था यदि सावरकर जेल के यातनाओं से टूट कर अंग्रेजो से समझौता कर लेते तो जैल में लिखी गयी उनकी 6000 कविता की पंक्तियों में मातृभूमि हेतु संघर्ष की उदात्त भावना कैसे होती।


बीबीसी की डक्यूमेट्री एकतरफा न लगे इसलिए रामबहादुर राय का मत भी लिया गया ऐसा लगता है सिर्फ दिखावटी सन्तुलन के लिए ऐसा किया गया है आगे ये स्पष्ट हो जायेगा रामबहादुर राय से प्रश्न वही पूछा गया जो कन्हैया कुमार, उमर खालिद, शैला रशीद पूछ कर विश्वविद्यालय के युवाओं के मन मे सावरकर के प्रति घृणा पैदा करते हैं।


माफी मांगने का मौका तो भगतसिंह को भी मिला था लेकिन उन्होंने फाँसी के फंदे को चूम लिया लेकिन सावरकर ने माफी मांग ली ऐसा क्यों रामबहादुर राय बहुत परिपक्व उत्तर दिया वो आप डाक्यूमेंट्री में देख सकते हैं।


लेकिन क्या कोई भी दो महापुरुषों की धूर्तता पूर्ण ढ़ंग से मन मानी तुलना करके हम उन महान आत्माओं का अपमान नही करते। लक्ष्य एक होते हुए भी किन्ही दो क्रांतिकारियों के कार्यो ,काल और रणनीति में अंतर होता ही है। क्रांति के धारा के दो महान क्रांतिकारी भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद को ही देखिये जहाँ भगतसिंह असेम्बली में बम फेंक कर खुद को गिरफ्तार करवाते है और फांसी का फंदा चुम कर आत्मबलिदान से स्वतंत्रता के ज्वाल को और तेज करते है, वहीं चद्रशेखर आज़ाद जब अंग्रेजों से घिर जाते है तो खुद को गोली मारकर आत्मबलिदान करते हैं।


अगर वामपंथियों के कुतर्को से देखे तो भगतसिंह की तुलना में वो आज़ाद को क्या कहेंगे ? लेकिन किन्ही दो क्रांतिकारीयो तुलना करना ही धूर्तता पूर्ण दुष्टता है जिसमे वामपंथी माहिर है, डॉक्यूमेट्री पूरी होते होते आप पर छवि बन चुकी होती है कि वे देशभक्त नही थे बड़ी साजिश से सावरकर के सामाजिक न्याय, समता पर किये गये उनके कार्यो को विलोपित कर दिया जाता है वामपंथी के शब्दों में शोषित, दलित समाज के उत्थान और सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के सावरकर के विचार और कार्यो को छुपा लिया जाता है।


वामपंथी यह कभी नही बताएंगे कि सावरकर सदी के सबसे बड़े समाज सुधारकों में से एक थे। उनके विज्ञाननिष्ठ निबंध, किसानो, मज़दूरों पर उनकी नीतिगत विचार, उनका स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात सवैधानिक लोकतंत्र में उनकी आस्था और विदेशनीति पर उनके बात को कभी सामने नही लाया जाएगा। बस उन्हें ब्राह्मणवादी धर्म के फासिस्ट नेता की झुठी छवि प्रस्तुत की जाएगी जबकि हिंदुत्व पर उनके विराट विचार जिसमे बाबासाहब अम्बेडकर के बौद्ध धम्म में दीक्षा के बाद सावरकर ने कहा था "अम्बेडकर अब जाकर असली असली हिन्दू बने है।"


खैर बीबीसी की डक्यूमेट्री के अंत मे सावरकर के जीवन पर निष्पक्ष लिखने वाले कुछ दो चार लेखकों में से एक धनन्जय कीर के लेखन को तोड़ मरोड़कर बताया जाता है, जिसमे ये साबित करने की कोशिश की जाती है कि न्यायालय ने भले ही सावरकर को दोषमुक्त कर दिया था, लेकिन असल मे गांधी की हत्या का षडयंत्र उन्होंने ही रचा था। कपूर कमीशन भी वामपंथी नेताओं की कुटिल चाल का परिणाम है ताकि सदियों तक सावरकर के माथे पर मढा कलंक धूल न सके।


अंत मे इतना ही वामपंथी लेखकों ने तमाम प्रचार माध्यमों से सावरकर की छवि को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने में पहले भी कोई कसर नही छोड़ी थी आज भी नही छोड़ रहे हैं।


आज सावरकर युग चल रहा है उनके साथ हुए ऐतिहासिक पाप को प्रायश्चित करने का वक्त आ गया है।


इतिहास के पुनर्परीक्षण, पुनर्लेखन, पुनर्निर्माण का

पढ़िए सावरकर को

गढ़िए भारत को


लेख


मोहन नारायण

लेखक एवं विचारक 

राष्ट्रीय संयोजक, शहीद समरसता मिशन