हिंदू पर्वों पर कम्युनिस्टों-कट्टरपंथियों का टूटता मकड़जाल सुखद स्थिति है

The Narrative World    10-Mar-2023   
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पिछले 5-7 वर्षों में एक बात अच्छी हुई है.... हम फिर से अपने पर्व मनाने लग गए हैं... और जोर शोर से मनाने लग गए हैं...!वरना पिछले दशक से चल रहे प्रोपेगंडा के कारण हम अपने पर्वों को भुला ही चुके थे.... टीवी फ़िल्में और अखबारो में बताई बातों को सुनते देखते यह सब पर्व हमें बेमानी से लगने लगे थे।
 
इस क्रम में चाहे शिवरात्रि पर जल या दूध चढ़ाने को बुरा बताना हो... होली पर रंग गुलाल और पानी से खेलने को बुरा बताना हो...दिवाली पर पटाखे से होने वाले प्रदूषण या जानवरो की तकलीफ हो... रक्षाबंधन पर कथित समानता के अधिकार की अवधारणा हो... चाहे करवाचौथ को कुरीति या महिला अधिकार विरोधी बताना हो...... एक वर्ग विशेष ने मीडिया, फिल्मों, नाटकों आदि का सहारा ले कर इन सभी पर्वों की छवि को बिगाड़ने का काम किया।
 
याद कीजिए जब कोई भी पर्व आता था... एकाएक मिलावटी मावा मिलने की ख़बरों से अखबार भर जाया करते थे... लोगों के मन में यह बिठाया किया गया कि मावा तो नकली होता है... मीठा खाना है तो चॉकलेट खाइये। मैं समाज की घटनाओं पर दृष्टि रखता हूँ.... दावे से कह सकता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों से मिलावटी मावे की खबरे आना बहुत कम हो गई हैं... लेकिन इसी बीच चॉकलेट ने त्यौहार पर मिठाई के एक बड़े बाजार पर कब्ज़ा कर लिया है क्या यह यूंही हो गया ऐसा तो कतई संभव नहीं आप जरा याद करें त्यौहारो पर भीड़ भाड़ के इलाकों में चेतावनी मिला करती थी.... बम विस्फोट हुआ करते थे... लोगों ने त्यौहारो के समय बाहर जाना, समारोहो में जाना तक बंद कर दिया था।
 
ये सच है कि एक प्रोपेगंडा चला कर समाज में हीन भावना बैठा दी गई.... कि आप पानी से खेलेंगे तो कितना नुकसान होगा... आप पठाखे चलाएंगे तो वातावरण खराब होगा.... पत्नी से व्रत करवाएंगे तो महिला विरोधी कहलाएंगे.... बहन को रक्षा का वचन दे कर उसे दोयम दर्जे का होने का अहसास करायेंगे...... शिवरात्रि पर दूध चढ़ा कर आप ना जाने कौन सा पाप कर रहे हैं।
और धीरे धीरे यही हीन भावना आपको त्यौहारो से दूर ले जाती गई...... यह प्रवृति और भी बढ़ती... लेकिन तभी आता है सोशल मीडिया... एक ऐसा माध्यम जिसमें हर व्यक्ति की भागीदारी होती है... जो एकतरफा ना हो कर एक हाइब्रिड मॉडल है.. जहाँ कोई भी अपने विचार रख सकता है...
 
लोगों ने पर्वों के पीछे छुपे विज्ञान और धार्मिक मान्यताओं को सामने रखना शुरू किया... तथ्यों को रखना शुरू किया... इससे जो प्रोपेगंडा चल रहा था, वह धीरे धीरे टूटना शुरू हुआ.... लोगों को समझ आया कि हम तो बेवजह हीन भावना में जी रहे थे.... और यही कारण है कि अब लोगों ने बढ़ चढ़ कर त्यौहारो और धार्मिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू कर दिया है।
 
आज शहरों में प्रत्येक वर्ग में पर्व मनाये जाते हैं.... ठीक से योजना बनाई जाती है, धनराशि एकत्रित की जाती है... यह सब पूरे जोरशोर एवं उल्लास से किया जाता है... और सबसे अच्छी बात है कि हमारा कोर युवा वर्ग की इन सब मे भागेदारी बहुत ज्यादा होती है, यह बड़ा परिवर्तन है। और सुखद यह भी है कि यह परिवर्तन केवल हमारे पर्वों तक ही सीमित नहीं है....26 जनवरी और 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्व भी कहीं अधिक जोर शोर से मनाये जाने लगे हैं... वहीं छठ, नवरात्री, लोहड़ी, जन्माष्टमी, गणेश चतुर्थी जैसे पर्व अब कहीं ज्यादा व्यापक स्तर पर मनाये जाते हैं.... और इसका प्रभाव अब टीवी सीरियल, ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर भी दिखता है... जहाँ इन पर्वों के समय विशेष भाग दिखाए जाने लगे हैं... और उसमे इन पर्वों को अच्छे तरीके से चित्रित भी किया जाता है।
 
इसका एक और उदाहरण राम जन्म भूमि पर मंदिर निर्माण के लिए राशि एकत्रित करने से संबंधित है जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षा, निजी क्षेत्रों से जुड़े युवाओं ने भी व्यापक भागेदारी दिखाई, इस क्रम में बड़े बड़े निजी समुहों के निदेशक, कुलपति जैसे लोग भी धार्मिक महत्व के इस कार्य में खुल कर अपनी भागीदारी दिखा रहे थे।
 
कुल मिलाकर बात यही है कि जो लोग हमारे पर्वो, हमारी परंपराओं का विरोध किया करते थे... उनकी चाल उलटी पड़ चुकी है... और एक सामान्य व्यक्ति अब अपने धर्म और संस्कृती से कहीं ज्यादा जुड़ हुआ दिखाई दे रहा है, दशकों तक अपने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे कम्युनिस्टों के लिए यह स्थिति असहज दिखाई देती है।
 
जरा ठीक से याद कीजिये यह वही वर्ग तो है जो प्रत्येक हिन्दू पर्व से ठीक पहले कोई संभावित सामाजिक हानि ढूंढकर जोर शोर से इसका विरोध करने उतर आता था, रही सही कसर बड़े बड़े निजी समुहों के विज्ञापनों के माध्यम से पूरी कर दी जाती थी जिसमें सामूहिक उत्तरदायित्व का ठीकरा हिंदुओ के ऊपर ही फोड़ दिया जाता था।
 
आज इनके दुष्प्रचार के विरुद्ध प्रत्येक सोशल मीडिया पर एक बड़ा वर्ग उठ खड़ा हुआ है, जो ना केवल इनके दोगलेपन को सार्वजनिक रूप से सामने रख रहा है अपितु इस सामाजिक दबाव से बड़े बड़े निजी समुहों को अपने विवादित एवं बिना सिर पैर के विज्ञापन वापस लेने पड़ रहे हैं उन्हें यह समझ आ रहा है कि यदि बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का सम्मान नहीं किया गया तो उनकी दाल गलने वाली नहीं, यह एक प्रकार से उनके लिए आर्थिक हानि के भय से जुड़ा दिखाई देता है और इसमें संशय नहीं कि यह भय अच्छा है
कुल मिलाकर सारांश यही है कि दशकों से अतिवादी कम्युनिस्टों एवं कट्टरपंथी शक्तियों की हिंदू विरोध की इस साझी रणनीति को सोशल मीडिया के इस दौर में तगड़ा झटका लगा है और सामान्य जनमानस अब यह भलीभांति समझने लगा है कि यह सब कुछ उन्हें अपने पर्वो अपनी संस्कृति से दूर करने का टूलकिट मात्रा है।
 
इसलिए अब आपको सामाजिक रूप से परिवर्तन की एक नई बयार दिखाई दे रही है, एक ऐसा वर्ग दिखाई दे रहा है जो अपने पर्वों को पूरे उल्लास से मनाता है, जिसे अपने उत्सवों, अपनी परंपराओं पर किसी हीन भावना ने ग्रसित नहीं किया हुआ है और जो उनके पीछे के तत्वज्ञान, तर्क और विज्ञान को समझता है, कुल मिलाकर हिंदू पर्वों पर कम्युनिस्टों- कट्टरपंथियों का यह मकड़जाल अब बिखर रहा है, यह स्थिति सुखद है और सराहनीय भी, इसका अभिनंदन होना चाहिए