बाल संरक्षण की आड़ में भारत विरोधी एजेंडा

पिछले कुछ बर्षों में केंद्र सरकार ने बड़े पैमाने पर इन संगठनों की नकेल कसने की कोशिशें की है लेकिन आज भी यह मामला भारत विरोधी तंत्र के इर्दगिर्द ही संचालित है।

The Narrative World    18-Mar-2023   
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भारत में बाल संरक्षण के नाम पर भी एक सुगठित तंत्र काम कर रहा है। अक्सर बाल श्रम,यौन शोषण और भुखमरी से जुड़ी अंग्रेजी भाषा में लिखी गई रिपोर्ट अखबारों में प्रकाशित होती रहती हैं।


हाल ही में एक संस्था ने कोविड के दौरान अनाथ हुए बच्चों की एक दारुण कथा दुनियां के सामने पेश की। वस्तुतः इस मामले में भारत एक बड़े प्रोपेगैंडा का शिकार है और इस कार्य में ऐसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन भी शामिल है जिनकी जड़ें भारत से बाहर हैं।


बाल श्रम और संरक्षण के नाम पर विकसित एवं विकासशील देशों के लिए दोहरे मापदंड स्थापित है। भारत के कुछ संगठन इस सुगठित तंत्र का मैदानी हिस्सा बने हुए हैं।


दुखद पक्ष यह है कि केंद्र से लेकर तमाम राज्य सरकारें अपने देश काल, परिवेश औऱ परम्पराओं को भुलाकर कतिपय वैशविक मापदंडों औऱ उनके प्रायोजित थिंक टैंक के इशारों पर लोकधन की बर्बादी में भी लगी हैं।


पिछले कुछ बर्षों में केंद्र सरकार ने बड़े पैमाने पर इन संगठनों की नकेल कसने की कोशिशें की है लेकिन आज भी यह मामला भारत विरोधी तंत्र के इर्दगिर्द ही संचालित है।


महिला बाल विकास विभाग के केंद्रीय कार्यालय से लेकर राज्य सरकारों के अधिकतर दफ्तरों पर सलाहकार के रूप में इन संस्थाओं का राज कायम है।


दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि देशी-विदेशी चंदे का सालाना अरबों रुपया ऐसे संगठनों एवं चेहरों पर खर्च हो रहा है जिनका उद्देश्य बाल सुधार से ज्यादा भारत की बदनुमा तस्वीर दुनियां में स्थापित करना मुख्य है।


इस क्षेत्र में पारदर्शिता का नितांत अभाव है और हद तो यहां तक है कि वैधानिकता के धरातल पर भी कोई इन संस्थाओं के साथ साझेदारी पर सवाल उठाने वाला नही है।


हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने दावा किया कि दुनियां में 16 करोड़ बाल मजदूर है और इनमें से 5 करोड़ भारत मे हैं।


महिला बाल विकास के साथ जेजे एक्ट में काम करने वाली मुंबई की एक संस्था ने कोविड में बच्चों की भुखमरी औऱ यौन शोषण से जुड़े कॉल्स का डाटा जारी किया जिसे न्यूयॉर्क टाइम्स ने प्रमुखता से प्रकाशित किया।


राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो ने जब इन आंकड़ों की पड़ताल कर नोटिस जारी किया तो 80 फीसदी आंकड़े फर्जी पाए गए।


कोविड में उप्र सरकार ने यूनिसेफ को प्रवासी मजदूरों के संबन्ध में डेटा एकत्रित करने का काम सौंपा।यूनिसेफ ने एक्शन एड नामक संस्था से यह काम कराया और संस्था ने ब्रिटिश एम्बेसी को यह डेटा अनाधिकृत रूप से साझा कर दिया।


एक शिकायत में इस कार्य के बदले 10 करोड़ की सहायता चाइल्ड ट्रैफिकिंग के नाम पर लेने के आरोपों की जांच लंबित है।


असल में भारत के महिला बाल विकास, लोक स्वास्थ्य, श्रम, सामाजिक न्याय, वन, जैसे महकमे यूनिसेफ के थिंक टैंक के भरोसे ही चल रहे हैं।


यूनिसेफ की कार्यप्रणाली की समीक्षा का भी यह माकूल समय है क्योंकि इस संगठन भारत में 1949 से काम कर रहा है और इसके बाबजूद अगर देश में बच्चों की हालत इस कदर चिंताजनक है तो सवाल संगठन की विशेषज्ञता औऱ उस पक्ष पर भी खड़े है जो वित्तीय सहायता को कल्याण के लिए सहयोगी मानकर चलते हैं।


यहां बुनियादी सवाल तो यूनीसेफ जैसे संगठनों की संदिग्ध गतिविधियों पर खड़े है।मसलन इस संगठन को एफसीआरए से उन्मुक्ति प्राप्त है लेकिन किसी सार्वजनिक पटल पर संगठन की वह कार्ययोजना या सरकारों के साथ अनुबंध दिखाई नही देता है।


रोचक पहलू यह है कि सरकारें अपनी सभी बाल नीतियों में यूनीसेफ की कार्ययोजना का हवाला देती हैं, धन औऱ अपना मानव संसाधन उपलब्ध कराती हैं लेकिन यह कार्ययोजना किस आधार पर निर्मित है इसका खुलासा नही किया जाता है।


संवैधानिक संस्था राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग पिछले एक साल में कई मर्तबा इस मसौदे को साझा करने के लिए पत्राचार कर रहा है लेकिन आयोग को उपलब्ध नही कराया जा रहा है।


भारत सरकार की सहायता से संचालित समेकित बाल संरक्षण योजना के साथ यूनीसेफ देश के 17 राज्यों में काम कर रहा है जिनमें उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, मप्र, गुजरात, झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़, बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, कर्नाटक शामिल हैं।


इस योजना का पूरा ड्राफ्ट भी इसी संगठन ने निर्मित किया है। योजना के फ्रेमवर्क,क्रियान्वयन के सभी स्तरों पर साझेदारी किस वैधानिकता के साथ है यह देश मे बताने वाला कोई नही है।


संगठन के पार्टनर एनजीओ कौन है यह भी किसी सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध नही।एक्शन एड, डॉन वास्को जैसे संगठनों के साथ यूनीसेफ की साझेदारी तो मामलों के उजागर होने से ही सामने आ सकी है।दोनों के विरुद्ध गंभीर आरोप है।


यूनीसेफ को सरकारों ने कितना धन दिया, कितना धन यूनीसेफ ने अपने फंड रेजिंग अभियानों से जुटाया औऱ किन पार्टनर एनजीओ को यूनीसेफ़ अपने जरिये धन देता है इसका कोई सार्वजनिक ब्यौरा किसी पटल पर नही है।


महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस संगठन द्वारा भारत की गतिविधियों से जुड़े कार्यो की कोई बेलेंस शीट भी सार्वजनिक नही की जाती है। संदेह इसलिए भी खड़ा होता है कि धन संग्रह औऱ खर्ची के मामले में तमाम आरोप यूनीसेफ पर पहले भी लगते रहे है।


कभी त्यौहारी शुभकामना संदेश खरीदने,सार्वजनिक स्थलों पर सहायता केंद्रों औऱ सोशल मीडिया कैम्पेन के जरिये भारत में चंदा एकत्रित किया जाता रहा है।


यह भारी भरकम धन कहाँ औऱ किन सहयोगी पार्टनर एनजीओ को जाता है इसे जानने का हक भारत को क्यों नही होना चाहिये?


संस्था पर अमेरिका,केन्या जैसे देशों में घोटाले के आरोप लग चुके हैं। हॉलमार्क कम्पनी के साथ ग्रीटिंग कार्ड के बिक्री से जुटाए गए 155 मिलियन डॉलर में से बच्चों पर महज 60 मिलियन डॉलर खर्च हुए और शेष स्थानीय चैप्टर ने रख लिए।


केन्या में 10 मिलियन डॉलर के धन संग्रह का बड़ा हिस्सा जरूरतमंद बच्चों के स्थान पर पार्टी,कैसिनो पर खर्च का आरोप जगजाहिर है।


उज्जैन में कोविड पीड़ित बच्चों से जुड़ा एक संवेदनशील डाटा यूनीसेफ की सहयोगी संस्था द्वारा लीक किया गया जिसकी जांच जारी है।


ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जो एनजीओ बच्चों से जुड़े डेटा सरकार के साथ एकत्रित कर रहे है और उसे अनाधिकृत रूप से विदेशों में दयनीयता की तस्वीर बनाकर पेश करते है वे देश के बच्चों का भला कैसे कर सकते हैं।


वर्तमान में समेकित बाल संरक्षण योजना से जुड़े सभी प्रशिक्षण इन्ही संस्थाओं के माध्यम से हो रहे हैं।प्रत्येक हाईकोर्ट में एक न्यायाधीश की अध्यक्षता में शाखा किशोर न्याय अधिनियम के क्रियान्वयन पर निगरानी का काम करती है इस शाखा का सचिवालय इसी संगठन के द्वारा संचालित होता है।


देश के सभी राष्ट्रीय विधि शिक्षण संस्थान (एनएलयू)में शोध और नवाचारों के लिए स्थापित शाखाओं की कमान भी इन्ही संगठनों को सौंपी गई है जिनकी समग्र कार्यप्रणाली पूरी तरह से संदिग्ध है।


एक दूसरा पक्ष बाल संरक्षण संस्थानों का भी बहुत महत्वपूर्ण है। देश भर में लगभग 7 हजार बाल देखरेख संस्थान सरकारी और अन्य मदों से संचालित हैं।


सक्रिय बाल अधिकार संगठन बच्चों को इन संस्थानों में ही रखने को बच्चों के सर्वोत्तम हित मे मानते हैं।


राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग ने इनकी जांच में पाया कि हजारों बच्चे ऐसे है जिनके अपने घर है लेकिन एक खास उद्देश्य से इन्हें होम्स में रखा गया है।


जब ऐसे बच्चों को आयोग ने घर भेजने की प्रक्रिया आरम्भ की तो कुछ सिविल सोसायटी के लोग सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए,जहाँ से आयोग की जीत हुई।


इस क्रोनोलॉजी को पूर्व आईएएस औऱ सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मन्दर की संस्था द्वारा संचालित चार दर्जन से अधिक बाल गृहों के मामले से समझा जा सकता है।


मन्दर के अनेक चिल्ड्रन होम्स में रह रहे बच्चों को शाहीन बाग से लेकर रांची एवं अन्य शहरों में हुए धरना प्रदर्शन में मानसिक रूप से तैयार कर भेजा जाता था।


फिलहाल ईडी हर्ष मन्दर से जुड़े अन्य मामलों की भी जांच कर रही है। मदर टेरेसा से जुड़े बालिका ग्रहों की जांच भी ऐसी ही संदिग्ध गतिविधियों को लेकर जारी है।


झारखंड, ओडिसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र के वनवासी बाहुल्य इलाकों में भी इन एनजीओ के विरुद्ध भारत विरोधी गतिविधियों के संगीन आरोप है।


मजेदार बात यह है कि एफसीआरए कानून को बदलकर सुगठित एनजीओवाद पर लगाम लगाने के बाबजूद देश में कुछ अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के पार्टनर के रूप में आन्दोलनजीवी अपने एजेंडे पर काम कर रहे हैं और सरकारें अंग्रेजीदा अफसरों और पंच तारा सँस्कृति में पेश होने वाली इन प्रायोजित रिपोर्टों के मोहपाश में अभी भी फसी हुई हैं।

 
लेख
 
डॉ अजय खेमरिया