एनजीओ: सीएसआर, एफसीआरए और यूनिसेफ

केंद्र और राज्य स्तर पर सीएसआर की राशि कौन खर्च कर रहा है और इस राशि के आबंटन का कोई विहित नियम नही है। नतीजतन निजी इकाइयों के सीएसआर से किसी जिले में क्या काम चल रहा है? कौन सा संगठन इस कार्य को कर रहा है? इससे जुड़ी कोई जानकारी स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन को नही रहती है।

The Narrative World    20-Mar-2023   
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भारत में एनजीओ का मायाजाल अभी भी पूरे तंत्र को अपने प्रभाव में लिए हुए है।केंद्र सरकार ने एफसीआरए कानून में कड़े बदलाब लाकर सिविल सोसायटी के भेष में सक्रियपॉलिटिकल फोर्स (राजनीतिक वर्ग) की नकेल कसने का बड़ा काम तो किया है, लेकिन विदेशी चंदे से चलने वाली गतिविधियों पर अभी भी अपेक्षित अंकुश नही लग पा रहा है।


तथ्य यह है कि देश में एक सुगठित एनजीओ तंत्र है, जिसमें न केवल विदेशी चंदा उपयोग होता है बल्कि देश के औधोगिक घरानों से निकलने वाला सीएसआर का धन भी सन्दिग्ध संगठनों को आसानी से मिल रहा है।


जिन अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को भारत में एफसीआरए के प्रावधानों से छूट मिली हुई है वे 'सहयोगी संगठनों' के नाम पर वामपंथी इकोसिस्टम को मजबूत करने में लगे हैं।मिशनरी,सीएसआर औऱ यूनिसेफ जैसे संगठनों के आपसी रिश्ते को देश में ध्यान से समझने की आवश्यकता है।


यह महज संयोग नही है कि जिन संगठनों को मिशनरी संस्थाओं से विदेशी पैसा मिलता है उन्हें इस देश मे सीएसआर से भी बड़ी रकम मिल रही है यही नही इनमें से अधिकतर संगठनों को यूनिसेफ भी शिक्षा, स्वास्थ्य और बाल कल्याण के नाम पर बड़ी राशि उपलब्ध करा रहा है।


पिछले 9 साल में देश में करीब 1.26 लाख करोड़ का धन सार्वजनिक एवं निजी औधोगिक इकाइयों ने सीएसआर यानी सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत खर्च किया है।इस राशि का 50 फीसद हिस्सा देश के विभिन्न एनजीओ के माध्यम से जनकल्याण औऱ विकास के नाम पर व्यय हुआ है।


पड़ताल यह बताती है कि कुछ बड़े एनजीओ ने इस राशि को अपने प्रभाव के जरिये हासिल किया और पार्टनर एनजीओ के नाम से ऐसे संगठनों को दिया जो आन्दोलनजीवी वर्ग से सीधे जुड़े हुए हैं।


केंद्र और राज्य स्तर पर सीएसआर की राशि कौन खर्च कर रहा है और इस राशि के आबंटन का कोई विहित नियम नही है। नतीजतन निजी इकाइयों के सीएसआर से किसी जिले में क्या काम चल रहा है? कौन सा संगठन इस कार्य को कर रहा है? इससे जुड़ी कोई जानकारी स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन को नही रहती है।


इस धनखर्ची में विदेशी चंदे को जोड़ लिया जाए तो मामला बेहद गंभीर हो जाता है।ऐसा कोई प्रावधान नही है कि जिन संगठनों द्वारा एफसीआरए के तहत विदेशी धन प्राप्त किया जा रहा है उसकी कोई जानकारी स्थानीय प्रशासन को दी जाती हो।


मसलन भोपाल की एक संस्था जर्मनी, इटली, यूके, यूएसए से बड़ी धन राशि स्वच्छता, पोषण एवं स्वास्थ्य पर हासिल करती है और भोपाल जिला प्रशासन को इसकी विधिवत रूप से कोई जानकारी नही है।


इसी संस्था द्वारा बच्चों के लिए महिला बाल विकास से तमाम परियोजनाओं पर काम किया जा रहा है। यूनिसेफ भी इस संगठन को वित्त पोषित करता है। मप्र के मुरैना जिले में स्थित एक आश्रम के साथ भी ऐसा ही है।


कमोबेश यूनिसेफ, विदेशी मिशनरी औऱ सीएसआर का यह त्रिकोणीय आर्थिक संबन्ध देश के हर राज्य में फैला हुआ है।खास बात यह है कि देश में जितने एफसीआरए लाइसेंस प्राप्त संगठन है उनमें से करीब 40 फीसदी तो घोषित रूप से ईसाई धर्म के प्रचार प्रसार के नाम पर ही पंजीकृत हैं।मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिसा, तमिलनाडु, केरल में तो यह प्रतिशत औऱ भी अधिक है।


यूनिसेफ नही देता कोई जानकारी


अंतर्राष्ट्रीय संगठन के नाम पर यूनिसेफ को भारत में एफसीआरए से उन्मुक्ति मिली है यानी अन्य संगठनों की तरह इसे अपने रिटर्न या जानकारी सार्वजनिक नही करना होती है। इस संगठन द्वारा केंद्र एवं राज्य सरकारों के साथ पांच साला कार्ययोजना पर काम किया जाता है लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यूनिसेफ किन संगठनों को पैसा देता है और उनका चयन किस पैमाने पर करता है। इसे लेकर कोई भी जानकारी सार्वजनिक पटल पर नही मिलती है।


हमारी पड़ताल बताती है कि यूनिसेफ ने देश भर में हजारों ऐसे एनजीओ का नेटवर्क बना रखा है जिनकी गतिविधि आन्दोलनजीवियों को सहायता करती हैं। पार्टनर एनजीओ में अधिकतर वे संगठन है जो एफसीआरए से भी हर साल करोडों रुपए हासिल कर रहे है इन संगठनों को सीएसआर से भी बड़ी सहायता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से मिल रही है।


यूनिसेफ इंडिया की बेबसाइट पर धन के आने और जाने का कोई स्रोत सार्वजनिक नही है। यही नही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो तो विधिवत इस स्रोत औऱ पार्टनर संगठनों के नाम उपलब्ध कराने के लिए कह चुके है, लेकिन तीन साल बाद भी यूनिसेफ ने अपने पार्टनर एनजीओ के नाम सार्वजनिक नही किये है।


मूल आपत्ति यह है कि यूनिसेफ सरकारों के साथ मिलकर जिन परियोजनाओं पर काम करता है उन परियोजनाओं के साथ वे ही संगठन शामिल किए जाते है जो वामपंथी ईकोसिस्टम का सक्रिय हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रहते हैं।


सीएसआर नीतियों में बदलाव की आवश्यकता


भारत दुनिया का इकलौता देश है जहां सीएसआर यानी कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसविलिटी को कानूनन अनिवार्य बनाया गया है। यह कानून व्यापारिक गतिविधियों से अर्जित धनलाभ में से कुछ भाग को सामाजिक रूप से व्यय करने के प्रावधान करता है। 01 अप्रैल 2014 से यह कानून लागू है।


आज लगभग एक दशक बाद इस कानून औऱ इसके क्रियान्वयन के अनुभवों पर विचार करने की आवश्यकता है। यह कानून हमारे हजारों साल पुराने जीवन दर्शन की बुनियाद पर खड़ा है जहां दान और परोपकार का उद्देश्य समाज के वास्तविक जरूरतमन्दों के लिए विकास औऱ उत्कर्ष के लिए अवसरों को सुनिश्चित किया जाता रहा है।


सीएसआर कानून सिर्फ भारतीय कंपनियों पर ही लागू नहीं होता है बल्कि वह सभी विदेशी कंपनियों के पर लागू होता है जो भारत में कार्य करती हैं। कानून के अनुसार, एक कंपनी को जिसका सालाना नेटवर्थ 500 करोड़ों रुपए या उसका सालाना इनकम 1000 करोड़ रुपए या उनका वार्षिक प्रॉफिट 5 करोड़ का हो तो उनको सीएसआर पर खर्च करना जरूरी होता है। यह जो खर्च होता है उनके 3 साल के औसत लाभ का कम से कम दो प्रतिशत तो होना ही चाहिए।


2014 से 2021 की काल अवधि में इस कानून के तहत 126938 करोड़ रुपये धन एकत्रित हुआ जो निजी औधोगिक घरानों के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों से जारी किया गया। जाहिर है सवा लाख करोड़ से ज्यादा की यह रकम शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्क्रति, आधारभूत विकास, पोषण, ग्रामीण विकास सामाजिक न्याय जैसे विहित क्षेत्रों में खर्च हुई है।


इस धन खर्ची के विश्लेषण औऱ नीतिगत बदलाव की आवश्यकता इस समय इसलिए महसूस की जा रही है क्योंकि देश में इस राशि का वितरण आसमान है।


तुलनात्मक रूप में ज्यादा वास्तविक जरूरतमंद क्षेत्रों के लिए इससे कोई खास फायदा नही मिल पा रहा है। बेशक कानून इस राशि के व्यय हेतु औधोगिक इकाइयों के स्थानीय क्षेत्रों को प्राथमिकता देता है लेकिन यह भी तथ्य है कि भारत में समग्र विकास की गति भौगोलिक रूप से बहुत असमान है।


महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, हरियाणा जैसे राज्य विकास के लगभग सभी संकेतकों पर उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अभी भी अग्रणी बने हुए हैं।सीएसआर की धन खर्ची के आंकड़े इस असमान विकास को कम करने के स्थान पर बढाते हुए नजर आ रहे हैं।


अब तक व्यय की गई कुल सीएसआर राशि में 40 फीसदी तो केवल सात राज्यों में ही खर्च हुई है। इसमें पैन इंडिया यानी एक साथ हुए देश व्यापी आबंटन को भी जोड़ लिया जाए तो यह आंकड़ा 60 तक जाता है।


आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली में 4023 करोड़, महाराष्ट्र 18605, गुजरात 6221, कर्नाटक 7160, तमिलनाडु 5437, आंध्र प्रदेश 5100 एवं तेलंगाना में 2500 करोड़ की राशि सीएसआर से 2014 से अब तक व्यय की जा चुकी है।


ये ऐसे राज्य है जहां औधोगिक विकास के साथ मानवीय दृष्टि से भी जीवन स्तर समेत अन्य संकेतक देश के अन्य राज्यों से बेहतर हैं। इन राज्यों की कुल आबादी भी खर्च के अनुपात में समान नही है।


उत्तरप्रदेश, बिहार, मप्र, छतीसगढ़, उड़ीसा या पूर्वोत्तर के राज्यों में आधारभूत विकास से लेकर सामाजिक रूप से निवेश की आवश्यकता आज भी अत्यधिक है लेकिन तथ्य यह कि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में गुजरात की तुलना में आधा यानी 3288 करोड़ का फंड ही मिल सका। इसी तरह बिहार में तो यह आंकड़ा मात्र 691 करोड़ ही हो पाया है। कमोबेश मप्र 1149, छत्तीसगढ़ में 1385, बंगाल में 2487, झारखंड में यह आंकड़ा 873 करोड़ ही है।


जाहिर है बड़े औधोगिक घराने या सेवा क्षेत्र की कम्पनियां पहले से विकसित राज्यों में पहले तो अपनी इकाइयों की स्थापना के साथ स्थानीय रोजगार की उपलब्धता बढ़ाती फिर सीएसआर की बड़ी राशि भी स्थानीय स्तर पर खर्च करती हैं।


दूसरी तरफ यूपी, बिहार, मप्र जैसे राज्य लाख प्रयासों के बाद राज्य के लिए औधोगिक निवेश नही ला पाते है ऐसे में सीएसआर के लिए इन राज्यों को इस कोटे के अखिल भारतीय आबंटन पर निर्भर रहना पड़ता है जो बहुत ही कम होता है।


सरकार ने कुछ संशोधन कर सीएसआर मद से रिसर्च और डेवलपमेंट को भी जोड़ा है लेकिन अभी इस दिशा में कोई ठोस काम दिखाई नही दे रहा है। एक औऱ विसंगति यह है कि बड़े औधोगिक घरानों ने अपने प्रभाव वाले एनजीओ एवं ट्रस्ट खड़े कर लिए है जिनमें यूनिवर्सिटीज अस्पताल और कौशल विकास केंद्र भी संचालित किए जा रहे हैं।


यह एक तरह से केवल धन का डायवर्जन भर है।बेहतर होगा सरकार सीएसआर के लिए कुछ बड़े बुनियादी बदलाब सुनिश्चित करे।मसलन कुल धन का 75 फीसदी तो अभी तक शिक्षा ,स्वास्थ्य और गरीबी पर खर्च हुआ है इन तीनों क्षेत्रों में सभी सरकारें भी पिछले 75 साल से पानी की तरह पैसा खर्च कर रही है।


सीएसआर की राशि का इन क्षेत्रों में व्यय किया जाना असल में दोहराव भर लगता है।अच्छा होगा कि एक नियामक निकाय सीएसआर के लिए खड़ा किया जाए देश भर की सीएसआर राशि एक स्थान पर संकलित हो।इस राशि के खर्च हेतु एक विशेषज्ञ पैनल जनप्रतिनिधियों, सिविल सोसायटी, अफसरों को मिलाकर बनाया जाए।


यह नियामक तंत्र धन के समान वितरण के अलावा सीएसआर से ऐसी आधारभूत संरचनाओं का निर्माण सुनिश्चित करे जो वैशिष्ट्य प्रमाणित करते हो। यानी हर जिले में एक कौशल विकास केंद्र बनाया जाए जिसमें रिलांयस जिओ अपनी सेवाएं दे, लार्सन एंड टुब्रो भवन एवं अन्य सिविल निर्माण, इंफोसिस साफ्टवेयर औऱ यूनीलीवर जैसी कम्पनियां मार्केटिंग की ट्रेनिग दें।


यानी एक अम्ब्रेला बनाकर स्थायी प्रकृति की परिणामोन्मुखी गतिविधि सीएसआर से खड़ी की जा सकती हैं बनिस्बत शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी पर पहले से चली आ रही योजनाओं में शामिल होकर सरकारी ढर्रे का हिस्सा बना जाए।


इसी तर्ज पर फूड प्रोसेसिंग,ऑटोमोबाइल जैसे प्रयोग अमल में लाये जा सकते हैं।यह प्रयोग जनभागीदारी से भी चलाये जा सकते है और नीतिगत स्तर पर देश के हर जिले को इस कानून के दायरे में लाकर विकास और सामाजिक कल्याण दोनों के लक्ष्यों को चरणबद्ध तरीके से साधा जा सकता है।

शोध और विकास के लिए मेडिकल, इंजीनियरिंग एवं प्रौधोगिकी संस्थानों के अलावा विश्विद्यालय स्तर पर इकाई बनाकर काम किया जा सकता है। केंद्रीय स्तर पर बनाये गए नियामक तंत्र को ही इस फंड के वितरण एवं इसके प्रभाव, मूल्यांकन तथा निगरानी का जिम्मा दिया जाना चाहिए।

अगर सरकार इस दिशा में आगे बढ़ती है तो निसंदेह जिस उद्देश्य से सीएसआर कानून बनाया गया है उसके ठोस नतीजे देश के लिए हितकारी साबित होंगे। वरन मौजूदा अनुभव बड़ी मात्रा में इस फंड के दुरूपयोग,चालक विनियोजन एवं बदनाम एनजीओज के हितपूर्ति को प्रमाणित कर रहे हैं।

कारपोरेट मंत्रालय के एक डेटा के मुताबिक कुल सीएसआर फंड का 50 फीसदी हिस्सा कार्यकरण एजेंसियों यानी एनजीओज के माध्यम से खर्च किया गया है।सीएसआर रजिस्ट्री के पास फिलहाल 38199 कार्यकरण एजेंसियों के रजिस्ट्रेशन हैं। गौर करने वाली बात यह है कि केंद्र सरकार के पास कार्यकरण एजेंसियों के राज्य/संघ स्तर पर कोई डेटा संधारित्र नही किया जाता है यानी इस भारी भरकम राशि को किन एनजीओज द्वारा खर्च किया जा रहा है इसका भी प्रमाणिक लेखा जोखा कारपोरेट मामले के मंत्रालय के पास नही है।

लेख

डॉ अजय खेमरिया