तो क्या अंतिम दौर में जा पहुंचा है माओवाद विरोधी संघर्ष ?

सरकार जानती है कि इसके लिए जनभावनाओं को पूर्णतया मोड़ना आवश्यक है यही कारण है कि जब गृहमंत्री बस्तर पहुंचते है तो सुरक्षाबलों से संवाद से इतर वो पास के गांव में लोगों से यह भी सुनिश्चित करते हैं कि उन तक बिजली, पानी, शिक्षा एवं राशन जैसी बुनियादी सुविधाएं पहुंचती भी हैं या नहीं

The Narrative World    29-Mar-2023   
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त्तीसगढ़ में बीते शुक्रवार को बस्तर पहुंचे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के इस दौरे से प्रतिबंधित माओवादी (नक्सलवादी/कम्युनिस्ट आतंकी) संगठन कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) की बौखलाहट अपने चरम पर है, इस क्रम में बीते रविवार को ही संगठन की ओर से विज्ञप्ति जारी कर गृहमंत्री की कटु आलोचना की गई है, विज्ञप्ति में माओवादियों ने वर्तमान केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए सरकार की नीतियों को आदिवासियों (जनजातीय/वनवासी) के जल जंगल एवं जमीन के लिए खतरा बताया।
 
माओवादियों ने दावा किया कि गृहमंत्री द्वारा दिया गया यह बयान की देश में माओवादी आंदोलन के विरुद्ध संघर्ष अब अंतिम दौर में है सरकार की नीयत को दर्शाता है जो हवाई हमलों एवं सीआरपीएफ जैसे केंद्रीय सुरक्षाबलों को प्यादों की तरह उपयोग कर जनजातीय समुदाय की भूमि हड़पने पर आमादा है इसलिए जनता को सरकार के इन प्रयासों के विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए।
 
आश्चर्यजनक रूप से सरकार की आलोचना करते हुए इस विज्ञप्ति में माओवादी संगठन ने सीआरपीएफ के जवानों से सहानभूति जताते हुए उनसे अपने अधिकारियों की अव्हेलना को भी उकसाने का प्रयास किया है, विज्ञप्ति में माओवादियों ने तर्क दिया कि वर्तमान केंद्र सरकार जनजातीय समुदाय की जमीनों को कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर क्षेत्र के शोषण पर आमादा है इसलिए जनता को सरकार एवं उसकी नितियों का पुरजोर विरोध करना चाहिए, विज्ञप्ति में माओवादियों ने यह भी दावा किया कि सरकार इन दुर्गम क्षेत्रों में लागतार सुरक्षाबलों की उपस्थिति बढ़ा रही है ताकि माओवादी संगठन के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष चलाया जा सके।
 
अब माओवादियों की दृष्टि से देखें तो केंद्र सरकार जहां एक ओर इन क्षेत्रों में कॉरपोरेटीकरण को बढ़ावा देने पर आमादा है तो वहीं दूसरी ओर इन क्षेत्रों में बलों की उपस्थिति सुनिश्चित करके वह कथित रूप से जनजातियों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे माओवादी संगठन को भी जड़ो से मिटाने पर आतुर दिख रही है, तो क्या स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी विकास की मुख्यधारा से दूर रहे प्रदेश के इन दुर्गम क्षेत्रों के लिए वर्तमान सरकार की नीति भी शोषण एवं बल पूर्वक इन क्षेत्रों के कॉरपोरेटीकरण को ही समर्पित है अथवा माओवादियों के दावों से इतर वर्तमान सरकार की नीयत एवं नितियों की वास्तविकता कुछ और ही है ?
 
तो दरअसल इसमें संशय नहीं कि वर्ष 2010 में अपने शिखर काल के दौरान देश के लगभग एक तिहाई क्षेत्रफल पर प्रभाव रखने वाला संगठन अब प्रभावी रूप से देश के केवल 25 जिलों तक सिमट कर रह गया है जो वर्तमान में उन जनपदों में भी अपने अस्तित्व बचाने के लिए ही संघर्षरत दिखाई देता है, इसमें भी संदेह नहीं कि यह परिवर्तन स्वतः नहीं हुआ और मोटे तौर पर इस सफलता के पीछे बीते 9 वर्षो में माओवाद समस्या को लेकर सरकार द्वारा लाई गईं प्रभावी नीतियों का सम्मिश्रण ही है जिसने संगठन को हाशिये पर ला खड़ा किया है।
 
अब इससे पहले की इस समस्या को लेकर वर्तमान सरकार द्वारा नीतियों में लाए गए आमूलचूल परिवर्तनों पर बात हो यह बेहद आवश्यक है कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने इस समस्या के उस स्वरूप को समझा जाए जिसने इसे देश के एक तिहाई भाग (लगभग 180 जिलों) में फलने फूलने का अवसर दिया, तो दरअसल माओवाद के वर्तमान स्वरूप को वर्ष 1980 में इसके उभार से जोड़ कर देखा जा सकता है, यह इसी दौर में हुआ जब अविभाजित आंध्रप्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप तो अविभाजित बिहार में माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) नामक दो अतिवादी कम्युनिस्ट समूह तेजी से उभरे, आने वाले दशकों में इन दोनों संगठनों के सशस्त्र कैडरों ने ही भारतीय संप्रभु भूमि पर लाल गलियारे की नींव रखी।
 
इस क्रम में कम्युनिस्ट अतिवादी विचारधारा जनित हिंसा को जहां बिहार जैसे राज्यों में संघर्ष जाति आधारित भेदभाव की पृष्टभूमि को आधार बनाकर उभारा गया तो वहीं दूसरी ओर आंध्रप्रदेश से सटे जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में इसे जनजातीय समुदाय के जल जंगल एवं जमीन के कथित संरक्षण से जोड़ा गया। दोनों ही क्षेत्रों में अतिवादी विचारधारा जनित हिंसा की सैकड़ो वीभत्स घटनाओं को समान रूप से जिस एक पंक्ति में समेटने का प्रयास हुआ वो थी ' समानता की कथित क्रांति', मोटे तौर पर देखें तो इस एक पंक्ति में ही भारत की माओवादी समस्या का सार छुपा है, और यही विश्व में अतिवादी कम्युनिस्ट विचारों को समर्पित कैडरों का ध्येय वाक्य भी है।
 
उत्तर से लेकर दक्षिण तक कि भूमि को रक्तरंजित कर रहे इन दोनों ही संगठनों के अतिरिक्त तीसरी शक्ति इन दोनों के ही प्रभाव क्षेत्र से बहुत दूर राजधानी में अपनी जड़ें मजबूती से जमाए बैठी थी, यह शक्ति 'समानता की इस कथित क्रांति' के उद्देश्यों को समर्पित उन शहरी कैडरों की थी जो दशकों से देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों, कला निकायों, पत्रकारिता जगत, राजनीति यहां तक कि देश के न्यायिक तंत्र में भी जड़े जमाए क्रांति के हिंसक स्वरूप की नींव मजबूत होने की प्रतीक्षा में गिद्ध दृष्टि जमाये बैठा था, 90 के दशक तक जब इन दोनों ही संगठनों की हिंसा का फैलाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ा तो इस तंत्र ने शहरी क्षेत्रों में दशकों से प्रचलित विमर्शों (सांस्कृतिक मार्क्सवाद में कल्चरल हेजेमनी) को तोड़ने के अपने उपक्रम को हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में आजमाना प्रारंभ किया, यह भी कि चूंकि देश विरोधी एजेंडे को लेकर बढ़ने वाली विचारधाराएं भी इस दौर में अपनी नींव मजबूती से जमा रही थी तो ऐसे में क्रांति को लालायित कॉमरेडों का उनसे गठबंधन बेहद स्वाभाविक ही था।
 
परिणामस्वरूप देखते देखते बस्तर जैसे जनजातीय बाहुल्य क्षेत्र शहरी कॉमरेडों के स्थायी गढ़ बन गए जहां जनजाति वर्ग को पृथक पहचान देने से लेकर वर्ग संघर्ष की गाथाएं सामान्य जनमानस के भीतर क़रीने से पिरोई गईं, बिहार जैसे क्षेत्रों में जहां सशस्त्र संघर्ष की राह जाति आधारित राजनीति ने मुश्किल कर दी थी वहां संगठन के अस्तित्व को बचाये रखने एवं देश भर में क्रांति की निर्णायक जमीन तैयार करने की दृष्टि से 2000 का दशक आते आते (वर्ष 2004) में शहरी कॉमरेडों की पहल पर पीपुल्स वॉर ग्रुप एवं एमसीसी का विलय किया गया और गठन हुआ एक ऐसे हिंसक संगठन का जिसने आने वाले वर्षों में देश की हृदयस्थली माने जाने वाले जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों को मुख्यधारा से काटकर उसे क्रांति के बेस के रूप में उभारा।
 
आने वाले एक दशक में शहरी कैडरों के साथ मिलकर कम्युनिस्ट अतिवादियों ने समानता की इस कथित क्रांति के नाम पर जमकर रक्तपात किया और यह वर्ष 2014 में वर्तमान केंद्र सरकार के आने के बाद ही हुआ जब माओवाद के मोर्चे पर सरकार ने आमूलचूल परिवर्तन किया, इस क्रम में सबसे बड़ा परिवर्तन तो उस कथित समानता के संदर्भ में किया गया जिसका ढ़ोल पीट पीटकर चीनी तानाशाह के विचारों का गुणगान करने वाले अतिवादी कम्युनिस्ट कैडरों ने यह प्रपंच खड़ा किया था, दरअसल इस पूरे प्रपंच को खड़ा करने में माओवादियों ने भोले भाले जनजातीय समुदाय को यह कहकर दिग्भ्रमित किया कि सरकार उनसे भेदभाव करती है इसलिए ही जानबूझकर उन्हें शोषण एवं बदहाली के हवाले छोड़ दिया है, दूसरा भ्रम यह था कि सरकार उनके जल जंगल जमीने हड़पना चाहती है, तीसरा एवं सबसे प्रभावी तरीका उनको डरा धमकाकर समर्थन देने के लिए बाध्य किया जाना था जो दुर्भाग्य से आंशिक रूप से अब भी जारी है।
 
इस क्रम में वर्तमान सरकार ने पहले भ्रम को दूर करने माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में युद्धस्तर पर विकास कार्यों को आगे बढ़ाया है, जिसके परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद पहली बार इन क्षेत्रों को बिजली, पानी एवं सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं से जोड़ा गया है, क्षेत्र में हुए इन विकास कार्यों के माध्यम से स्थानीय निवासियों को यह विश्वास दिलाया है कि सरकार द्वारा किया जा रहा विकास उनके जल जंगल जमीन को हड़पने के लिए ना होकर उसके संरक्षण के साथ ही उन तक बेहतर सुविधाएं पहुँचाने को लेकर है ताकि प्राकृतिक संसाधनों पे उनके विशेषाधिकार के साथ उनके जीवन की गुणवत्ता को भी सुधारा जा सके, इस दौरान लोक कल्याण की योजनाओं से सरकार यह संदेश देने में सफल रही है कि सरकार का प्रयास स्थानीय लोगों को मुख्यधारा में लाकर उनके सर्वांगीण विकास की है।
 
तीसरी और सबसे अहम सुरक्षा से जुड़ी समस्या का भी समाधान समानांतर रूप से किया गया है जिसके तहत धुर माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में भी सुरक्षाबलों की उपस्थिति सुनिश्चित की गई है, विशेष बात यह रही कि इस दौरान सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि पीढ़ियों को हिंसा की राह पर ढ़केलने वाले हिंसक संगठन के विरुद्ध संघर्ष कर रहे सुरक्षाबलों में स्थानीय लोग भी अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें इसलिए विशेष अभियान चलाकर सुरक्षाबलों में स्थानीय लोगों की सहभागिता को बढ़ावा दिया गया और दिग्भ्रमित युवाओं को माओ की बंदूकें छोड़कर मुख्यधारा से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित किया गया।
 

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अंतिम और सबसे प्रभावी परिवर्तन शहरी कैडरों पर नकेल कसने को लेकर हुआ है जिसके तहत अब तक इस कथित क्रांति की धुरी रहे शहरी कॉमरेडों द्वारा लोगों को उद्वेलित कर रहे तंत्र पर नकेल कसी गई है परिणामस्वरूप जहां एक ओर बात बात पर जेएनयू जैसे शिक्षण संस्थानों से लेकर बस्तर के जंगलो तक मानवाधिकार के नाम पर अतिवादी कम्युनिस्ट विचारों की झंडेबरदारी कर रहे कॉमरेडों की सक्रियता कम हुई है तो वहीं विकास एवं सुरक्षा की साझी नीति ने स्थानीय लोगों के मन में यह विश्वास जगाया है कि सरकार का प्रयास उनके हित उनके सर्वांगीण विकास के लिए है, विशेषकर युवा पीढ़ी को यह भान होने लगा है कि असली समानता यही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था उन्हें उनके जंगलो उनके जमीनों के संरक्षण का विशेषाधिकार देती है, समानता यही है कि उनके बीच से निकली एक महिला देश के सर्वोच्च पद पर आसीन हो भारतीय गणराज्य का प्रतिनिधित्व करती है।
 
यही कारण है कि बीते कुछेक वर्षो में समानता की इस कथित क्रांति का दायरा तेजी से सिमटा है, इस क्रम में जहां झारखंड एवं बिहार जैसे राज्य जहां विकास को पहुँचाना ज्यादा सहज है वहां परिस्थितियां तेजी से बदली है तो वहीं छत्तीसगढ़ के दुर्गम क्षेत्रों में भी यह परिवर्तन अब प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, इसमें भी संशय नहीं कि दशकों से अतिवादी कम्युनिस्ट विचारों के गिरफ्त में रहे क्षेत्रों में से एक वर्ग विशेष दिग्भ्रमित होकर जाने अनजाने में इस हिंसक विचार का अभिन्न हिस्सा बन चुका है जिसे मुख्यधारा से जोड़ना सहज नहीं फिर भी माओवाद के दंश से देश को मुक्त करने का संकल्प उठाए चल रही सरकार का प्रयास अंतिम व्यक्ति तक को इस हिंसक विचार से पृथक करने का दिखाई पड़ता है
 
यह परिवर्तन सहज नहीं, सरकार जानती है कि इसके लिए जनभावनाओं को पूर्णतया मोड़ना आवश्यक है यही कारण है कि जब गृहमंत्री बस्तर पहुंचते है तो सुरक्षाबलों से संवाद से इतर वो पास के गांव में लोगों से यह भी सुनिश्चित करते हैं कि उन तक बिजली, पानी, शिक्षा एवं राशन जैसी बुनियादी सुविधाएं पहुंचती भी हैं या नहीं, चलते चलते वे स्थानीय जवान को बुलाकर पूछते हैं कि परिवर्तित होती परिस्थितियों में गांव के सभी लोग अब माओवादियों के भय से मुक्त हैं अथवा नहीं, माओवादी संगठन एवं उनके शहरी कॉमरेड सरकार को लेकर चाहे विज्ञप्तियीं में चाहे जो भी कहें जमीन पर तेजी से बदल रही वास्तविकता का भान उन्हें भी हो चला है, वे समझने लगे हैं कि समानता की इस कथित क्रांति की डुगडुगी की धमक अब फीकी पड़ चुकी है, और दशकों से बस्तर पर पड़ी इस कथित क्रांति की लाल धुंध अब छंटने लगी है…..परिवर्तन की यह ब्यार सुखद है।