31 मार्च 1959 : कम्युनिस्ट आतंक के कारण तिब्बत छोड़कर भारत पहुँचे दलाई लामा

दरअसल आज हम बात कर रहें हैं वर्ष 1959 के 31 मार्च की, जब दलाई लामा ने शरणार्थी के रूप में भारत में कदम रखा था। 31 मार्च ही वही तारीख है, जब तिब्बतियों पर चीनी आतंक के कारण उनके शीर्ष बौद्ध गुरु को अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी।

The Narrative World    31-Mar-2023   
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अरुणाचल प्रदेश के तवांग में एक बौद्ध मंदिर है जिसका नाम है हेमलेट मंदिर। इस मंदिर में त्यांगसंग ग्यालत्सो ने जन्म लिया था
, जो आगे चलकर तिब्बतियों के छठें दलाई लामा बने।


इन्होंने जब अपना पदभार संभालने के किए ल्हासा का रुख किया तब इन्होंने मंदिर के ही समीप एक पेड़ की ओर इशारा करते हुए कहा कि "जब इस पेड़ की तीनों मुख्य शाखाएं एक बराबर हो जाएंगी, तब मैं वापस तवांग आ जाऊंगा।"


दिलचस्प बात यह है कि स्थानीय लामा अर्थात बौद्ध साधु का कहना है कि उस पेड़ की तीन मुख्य शाखाएं सिर्फ एक बार बराबर हुईं थीं, और वो वर्ष था 1959


अब यह संयोग है या कुछ और, लेकिन जब चीनी कम्युनिस्ट अत्यचारों और तिब्बतियों के नरसंहार से चौदहवें दलाई लामा ल्हासा छोड़कर तवांग आए, तो वो भी वर्ष था 1959


दरअसल आज हम बात कर रहें हैं वर्ष 1959 के 31 मार्च की, जब दलाई लामा ने शरणार्थी के रूप में भारत में कदम रखा था।


31 मार्च ही वही तारीख है, जब तिब्बतियों पर चीनी आतंक के कारण उनके शीर्ष बौद्ध गुरु को अपनी मातृभूमि छोड़नी पड़ी थी।


दरअसल मार्च के महीने में ही चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने पुरजोर तरीके से तिब्बतियों का दमन शुरू कर दिया था।


एक तरफ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तिब्बती बौद्ध गुरु दलाई लामा को षड्यंत्रपूर्वक फंसाने की रणनीति बना रही थी, वहीं दूसरी ओर आम तिब्बती नागरिकों के नरसंहार की योजना के लिए चीनी कम्युनिस्ट सेना को तैयार कर रही थी।


हालांकि इसी मार्च में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को आम तिब्बतियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा था।


कम्युनिस्टों द्वारा किए गए इस नरसंहार में करीब 85000 से अधिक तिब्बती मारे गए थे और इसके परिणामस्वरूप दलाई लामा को हजारों तिब्बतियों के साथ निर्वासित होकर भारत में शरण लेनी पड़ी थी।


गौरतलब है कि जब दलाई लामा ने तिब्बत से भारत की ओर रुख किया तब उनकी आयु मात्र 23 वर्ष थी। 17 मार्च, 1959 को वो ल्हासा से पदयात्रा करते हुए भारत की ओर निकले थे।


हालांकि इस दौरान चीनी कम्युनिस्टों ने उन्हें पकड़ने के तमाम षड्यंत्र रचे, लेकिन तिब्बतियों की सूझ-बूझ और उनके समर्पण के सामने कम्युनिस्टों की सारी रणनीति धरी की धरी रह गई।


दलाई लामा ने पहले तो ल्हासा से निकलने के लिए एक सिपाही का रूप धारण किया और फिर उसके बाद कई स्थानों में रूप बदलते हुए 31 मार्च को उन्होंने अरुणाचल में कदम रखा।


भारत पहुंचने के बाद दलाई लामा का यहां स्थित अधिकारियों ने स्वागत किया और वो तवांग मठ में पहुंचे।


ल्हासा से तवांग तक की यात्रा दलाई लामा के लिए आसान नहीं थी, क्योंकि चीनी कम्युनिस्ट सरकार उन्हें किसी भी हालत में पकड़ना चाहती थी।


ऐसी विपरीत परिस्थितियों और कम्युनिस्ट षड्यंत्र के बाद भी दलाई लामा ने हिमालयी रास्तों को मुश्किल से पार करते हुए भारत पहुंचे।


चीनी कम्युनिस्ट सेना को चकमा देने के लिए वो केवल रात में ही यात्रा किया करते थे, और दिन में किसी गुप्त स्थान में शरण लिया करते थे।


26 मार्च को उन्होंने लहुंत्से पहुंच कर भारतीय प्रधानमंत्री को पत्र लिखा और भारत में शरण देने का अनुरोध किया।


इसके बाद असम राइफल्स की एक टीम तवांग के समीप सीमा में पहुंची और उन्होंने सीमा पर सुरक्षा प्रदान की।


दलाई लामा ने तवांग से निकलकर प्रधानमंत्री नेहरू से मुलाकात की और इसके बाद धर्मशाला में जाकर निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की, जिसके बाद इसे मिनी ल्हासा कहा जाने लगा।


क्या हुआ था मार्च 1959 में ?


1950
से पूर्व में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं। इससे पहले तिब्बत सैकड़ों वर्षों से संप्रभुता के साथ स्वतंत्र राष्ट्र था और यहां की परंपराएं, सभ्यता और संस्कृति पूरे विश्व में आकर्षण का केंद्र थीं।


पूरे तिब्बत में तिब्बती नागरिक स्वतंत्रता से अपने परंपराओं का निर्वहन कर रहे थे। लेकिन चीनी कम्युनिस्ट समूह से यह देखा नहीं गया।


चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने सत्ता हासिल करने के तत्काल बाद अपनी कम्युनिस्ट सेना को तिब्बत पर कब्जा करने के लिए रवाना कर दिया।


उत्तरी तिब्बत (आमडो) क्षेत्र में जहां कभी तिब्बती सेना पेट्रोलिंग करती थी, वहां चीनी कम्युनिस्ट सेना ने कब्जा कर लिया।


इस दौरान तिब्बत की सेना ने चीनी कम्युनिस्ट सेना का जमकर मुकाबला किया लेकिन अंततः हार गई।


इसके बाद वर्ष 1950 के अक्टूबर महीने में हजारों की संख्या में चीनी कम्युनिस्ट सेना को तिब्बत में पूरी तरह से कब्जा करने के लिए भेजा गया।


19 अक्टूबर तक तिब्बत के चामडू शहर को चीनी कम्युनिस्ट सेना ने अपने कब्जे में ले लिया।


चीनी कम्युनिस्टों ने पूरे तिब्बत में दमन की नीतियां अपनाई और आम तिब्बतियों की आवाज को दबाना शुरू किया जिसके बाद तिब्बतियों ने अपनी पूरी ताकत से प्रतिकार किया।


1956 से लेकर 1959 तक तिब्बतियों ने अपना विरोध अलग-अलग तरीके से दर्ज कराया।


वर्ष 1959 में चीनी कम्युनिस्ट सरकार ने तिब्बत पर अपना पूरा कब्जा हासिल करने के लिए जोर लगाया तब हजारों तिब्बती सड़क पर उतर कर विरोध करने लगे। इस दौरान चीनी कम्युनिस्ट सेना ने हजारों तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया।


वर्ष 1959 के 1 मार्च को चीनी कम्युनिस्ट सेना ने नई साजिश रचते हुए दलाई लामा को ल्हासा स्थिति चीनी मुख्यालय में एक थियेटर शो देखने और चाय पीने का निमंत्रण भेजा।


दरअसल इसके पीछे चीनी कम्युनिस्ट सरकार की रणनीति यह थी कि वो आम तिब्बतियों में यह संदेश दे सकें कि दलाई लामा ने तिब्बत में चीन के आधिपत्य को स्वीकर कर लिया है।


इन सबके अलावा चीनी कम्युनिस्ट सेना ने यह भी कहा कि दलाई लामा अपने अंग रक्षकों को छोड़कर उनके साथ आएं।


आम तिब्बतियों को जब इसकी जानकारी मिली तो उन्होंने इस पूरे मामले को एक बड़ी साजिश की तरह देखा और चीनी कम्युनिस्ट सेना की इस बात से तिब्बती अधिकारी भी चिंतित हो गए।


जैसे ही यह जानकारी आम तिब्बती नागरिकों तक पहुंची उन्होंने 10 मार्च को नोरबुलिंगका को घेर लिया, इस दौरान लगभग 30 हजार तिब्बती मौजूद थे।


इसके बाद 12 मार्च को हजारों की संख्या में तिब्बती महिलाएं सड़कों पर और ल्हासा स्थिति पोटला पैलेस के बाहर एकत्रित हुईं।


इस दौरान हजारों की संख्या में तिब्बती नागरिकों ने स्वतंत्रता के लिए प्रदर्शन किया जिसका दमन करते हुए चीनी कम्युनिस्ट सेना ने तिब्बतियों का नरसंहार कर दिया।


23 मार्च को चीनी कम्युनिस्ट सैनिकों ने तिब्बती बौद्धों के पवित्र जोखंग मंदिर में चीनी झंडा फहराकर उसपर कब्जा कर लिया।