महावीर बजरंगी और महाबली भीम का मिलन

सिंह के गर्जन जैसी वाणी सुन वृक्षों के पक्षी भय से उड़ गए, पर वानर टस से मस नहीं हुआ। लगा कि उसने कुछ सुना ही नहीं। अबकी और अधिक तीव्रता से जब अपनी बातें दुहराई, तब उस वानर के अपने नेत्र खोले। उसके नेत्र मधु के जैसे पीले थे। छोटे ओठ, ताँबे के रंग का मुख, लाल कान वाले उस वानर ने जब अपना मुख खोला तो श्वेत दाँत और दाढ़ दिखाई दिए। वानर बोला, "क्या है भाई? क्यों मेरे विश्राम में बाधा डालते हो?"

The Narrative World    09-Apr-2023   
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सोने के रंग वाला एक विशाल देह का स्वामी पुरुष गरुड़ की गति से पर्वत पर चढ़ता चला जा रहा था। कंधे पर धनुष, तूणीर में तीक्ष्ण बाण और हाथ में विशाल गदा देख किसी भी सामान्य व्यक्ति को उससे भय हो सकता था, परन्तु उसके ओंठों पर मधुर मुस्कान देख शंकालु मन को अभय की प्राप्ति होने की संभावना भी थी।


पर्वत की चढ़ाई पार करते हुए उसके मन में यही बात चल रही थी कि अपनी पत्नी की इच्छा अतिशीघ्र पूरी कर उसके प्रसन्नमुख के दर्शन करे। चढ़ाई समाप्त हुई तो सामने मनमोहन वन के दर्शन हुए। इधर-उधर भयमुक्त विचरण करते खरगोश, मुँह को घास में लगाए मृग, कूकती कोयल, नाचते मोर, अतीव मोहक पुष्प, फलों से लदे वृक्ष देख युवक का मन प्रसन्न हो उठा। परन्तु वह जिस वस्तु को खोजते हुए यहां तक आया था, वह सहस्त्रदल कमल कहीं नहीं दिखा। वह तनिक और आगे बढ़ा तो कितने ही किन्नर, गन्धर्व और यक्ष दिखे। गन्धर्वों और यक्षों की स्त्रियों की दृष्टि उसके विशाल पुष्ट शरीर पर लगी हुई थी, पर वह तो बस एक सुगंध के पीछे चलता चला जा रहा था।


रमणीय वन तनिक आगे जाते ही भयंकर वन में परिवर्तित हो गया। वृक्षों और लताओं की सघनता के कारण आगे बढ़ना कठिन था। पर वह पुरुष हाथी की भांति उस जंगल में घुस गया। लताएं उसके शरीर के धक्के से टूटती चली जाती। जो लताएं पूरी दृढ़ता से वृक्षों पर लगी हुई थी, वे स्वयं तो टूटती ही, वृक्ष भी चटक जाते। वन की सघनता भी उसकी गति को रोकने में असमर्थ सिद्ध हुई। मार्ग की ऐसी रुकावटों से उस महावीर का मन खिन्न हो गया था। वह और तीव्रता से आगे बढ़ा।


आगे वन तनिक कम दुर्गम था और वहां हाथियों के साथ हिंस्र पशुओं की बहुलता थी। इतने बड़े मांसपिंड को आता देख भेड़ियों ने उसपर आक्रमण किया, जिन्हें उसने बड़ी सुगमता से अपने बाणों से मार भगाया। सिंहों ने अपने क्षेत्र में जब अनिधिकृत प्रवेश होता देखा, तो वे भी इस पुरुषसिंह से टक्कर लेने आ गए। उन्हें एक-एक कर अपने मुष्टिप्रहारों से धराशायी करता वह हाथियों के क्षेत्र घुसा और उनके पैरों और मस्तकों की अस्थियों को गदा से चूर कर उस सुगंध के पीछे चलता चला गया।


दुर्गम वन समाप्त हुआ और कदलीवन आरम्भ हुआ। विशाल तनों वाले केले के पेड़ों से आच्छादित उस स्थल को देख किसी का भी मन प्रसन्न हो उठता, परन्तु मार्ग में इतनी रुकावटों और अतिशय हिंसा से उस पुरुष को क्रोध चढ़ आया था। वह निर्दोष केले के पेड़ों को तोड़ता आगे बढ़ा कि अचकचा कर खड़ा रह गया।


मार्ग पर एक विशाल पूँछ पड़ी हुई थी, जिसका सिरा सतत रूप से ऊपर-नीचे हो रहा था।


मार्ग से लगे पत्थर पर एक पिंगल वर्णी वानर सोया हुआ था। चौड़े कंधों, पतले कटिप्रदेश और घनी रोमावली वाले उस वानर को भी अन्य पशुओं की भांति मार्ग का अवरोधक समझ उसे पुनः क्रोध चढ़ आया, परन्तु सोए हुए वानर पर प्रहार करना अनुचित मान वह बोला, "हे वानर, मुझे अतिशीघ्र आगे जाना है और तेरी यह पूँछ मेरे मार्ग को रोक रही है। इसे हटा, ताकि मैं आगे जा सकूँ।"


सिंह के गर्जन जैसी वाणी सुन वृक्षों के पक्षी भय से उड़ गए, पर वानर टस से मस नहीं हुआ। लगा कि उसने कुछ सुना ही नहीं। अबकी और अधिक तीव्रता से जब अपनी बातें दुहराई, तब उस वानर के अपने नेत्र खोले। उसके नेत्र मधु के जैसे पीले थे। छोटे ओठ, ताँबे के रंग का मुख, लाल कान वाले उस वानर ने जब अपना मुख खोला तो श्वेत दाँत और दाढ़ दिखाई दिए। वानर बोला, "क्या है भाई? क्यों मेरे विश्राम में बाधा डालते हो?"


"मुझे आगे जाना है। मार्ग दो।"


"जाओ न, मैंने कब रोका है तुम्हें?"


"तुमने नहीं रोका तो तुम्हारी यह पूँछ क्या कर रही है? सो रहे हो तो पूँछ को भी सुला लो। यह क्यों नाग की भाँति फुफकारती हुई ऊपर-नीचे हो रही है? हटाओ इसे।"


"ओहो, मैं तो बूढ़ा वानर हूँ। अंगों पर नियंत्रण नहीं है। पर तुम तो मानव हो न? विवेक और विनय का इतना अभाव किसी मानव में कैसे हो सकता है? अस्तु, अपना परिचय तो दो।"


"मुझे विलंब हो रहा है, परन्तु तुम्हारी आयु का सम्मान करते हुए अपना परिचय देता हूँ। मैं कुरु सम्राट पांडु के क्षेत्र से उत्पन्न पवनपुत्र भीम हूँ। बड़े भाई युधिष्ठिर मेरे महाराज एवं स्वामी हैं। अपनी पत्नी द्रौपदी की इच्छापूर्ति हेतु सहस्त्रदल कमल लेने निकला हूँ। महाराज को बहुत देर तक अकेला नहीं छोड़ सकता। यहाँ तक के मार्ग में अनगिनत सिंहों और हाथियों ने मेरा मार्ग रोकने का प्रयास किया था। उनमें से अधिकतर की आत्मा उनका शरीर छोड़ चुकी है। इससे पूर्व भी अनगिनत राक्षसों का अंत मेरी इन भुजाओं के द्वारा हो चुका है। उनके लिए मैं वृकोदर हूँ। अतः तुम्हें परामर्श देता हूँ कि तुम शांति से मेरा मार्ग छोड़ दो।"


"ओहो, तुम भीम हो। पवनपुत्र! असंख्य हाथियों को मसल देने वाले वीर! वृकोदर! तुम तो महाबली प्रतीत होते हो। भाई, तुम उन पशुओं और राक्षसों की भाँति मेरी हत्या मत करना। बूढ़े वानर पर दया करो। मुझसे उठा नहीं जाएगा। ऐसा करो, इस पूँछ को स्वयं ही हटाकर एक ओर कर दो।"


भीम का क्रोध इस अनावश्यक विलंब के कारण बढ़ता चला जा रहा था। उन्होंने हिंसक भाव से पूँछ को बाएँ हाथ से पकड़ लिया, ताकि उसे झटक कर आगे बढ़ जाएं। परन्तु उनका हाथ वहीं पूँछ से चिपका रहा और उनका शरीर अपने ही वेग से असंतुलित होकर डगमगा गया। उनकी भृकुटि तन गई। पुनः जोर लगाया। पूँछ एक सूत न हिली। क्रोध से आंखों में रक्त उतर आया, नथुने फूलने-पिचकने लगे। दोनों हाथों से पूँछ को पकड़ लिया और अपना सारा जोर लगा दिया।


पहले बाहुओं की, फिर ग्रीवा की, फिर मस्तक की नसें उभर आई। मुँह से हुँकार निकलने लगी। अत्यधिक जोर लगाने से चरणों के नीचे की भूमि दब गई, पर पूछ न हिली तो न हिली। धौकनी की भांति श्वास चलने से विशाल वक्ष ऊपर-नीचे होने लगा। एक बार पुनः समस्त बल लगाया भीम ने। इसके सौ गुने कम बल से उन्होंने कितने ही हाथियों को मार डाला था, वृक्षों को उखाड़ चुके थे, राक्षसों को भूलोक से विदा किया था, पर इस वानर की पूँछ हिला तक न सके। जोर लगाते रहे, पूरी देह से स्वेद की नदी बह निकली। अंततः उनके पंजे से पूँछ छूट गई और वे अपने ही बल से पीछे की ओर लुढ़क गए। भूमि पर बाहें फैलाये पसर गए।


सारी शक्ति निचुड़ गई थी। उठ कर बैठने का सामर्थ्य जुटाने में कुछ क्षण लगे उन्हें। धीरे-धीरे उठे और लज्जा से काले पड़ चुके चेहरे से वानर को देखने लगे। जैसे अभी तक कुछ हुआ ही न हो, वानर बोला, "अरे क्या हुआ महावीर? इस बूढ़े वानर की पूँछ तो हटा ली न। अब जाओ अपने रास्ते। बैठे-बैठे क्यों अपना समय व्यर्थ कर रहे हो?" अपनी पूँछ की ओर देखकर वाणी में आश्चर्य घोलते हुए पुनः बोला वह कपि, "अरे, पूँछ तो ये रही, यह तो जस की तस पड़ी है।" भृकुटि को शरारत से ऊपर-नीचे करते हुए आगे बोला, "क्यों भाई, उठा नहीं पाए क्या? हैं! बोलो-बोलो।"


भीम का सारा क्रोध उनके स्वेद के साथ बह चला था। अहंकार गल चुका था। सतत शारीरिक विजयों से उन्हें अभिमान हो चला था कि वे सर्वशक्तिमान हैं। पर आज ज्ञात हुआ कि संसार में उनसे भी अधिक बलवान प्राणी हैं। वे लज्जा से सिर झुकाए हाथ जोड़कर बोले, "अपने अविनय के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ महोदय। अहंकार का मद चढ़ आया था मुझकर। आपका अनन्त धन्यवाद, जो आपने मुझ मूढ़ को सही शिक्षा दी। कृपया मुझपर प्रसन्न हों और अपना वास्तविक परिचय दें। क्या आप कोई देवता हैं, या कोई राक्षस, या स्वयं महादेव हैं?"


"अरे राम, राम, राम, राम। कहाँ मेरे रामेश्वर महादेव और कहां मैं तुच्छ वानर! परन्तु तुम्हारे इस विनय से मैं प्रसन्न हूँ। मेरा परिचय सुनो। मैं वानरश्रेष्ठ केसरी के क्षेत्र से उत्पन्न पनवपुत्र हनुमान हूँ। तुम्हारा भाई हूँ। पर मेरा वास्तविक परिचय यह है कि मैं प्रभु श्रीराम का दास हूँ।"


परिचय सुनकर भीम स्तम्भित रह गए। जब चित्त ठिकाने आये तो दौड़कर हनुमान के चरणों में गिर गए। नेत्रों से अश्रु निकल पड़े। हनुमान ने मुस्कुराते हुए उन्हें उठाया और बोले, "यह अश्रु क्यों अनुज? अच्छा, वानर हूँ फिर भी तुम्हारा अग्रज हूँ, क्या इसलिए दुखी हो?"


"तात, क्षमा करें। यूं व्यंग्य तो न करें। ज्ञात इतिहास के सर्वशक्तिमान जीवधारी, निधियों और सिद्धियों के स्वामी, बुद्धि और विद्या के सजीव प्रमाण को अग्रज के रूप में पाकर कौन धन्य नहीं होगा। मेरे अपराध को क्षमा करें प्रभु। आप तो समस्त गदाधारियों और मल्लों के साक्षात ईश्वर हैं। मैं आपके दर्शन पाकर अभिभूत हूँ। अवश्य ही कोई पुण्य किया होगा, जो ये नेत्र आपको देख पा रहे हैं। हे अतुलित बल के स्वामी, मुझपर प्रसन्न हों।"


हनुमान ने भीम को गले लगा लिया और बोले, "शांत हो जाओ अनुज। तुम भैया लक्ष्मण की भांति अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की सेवा करते हो। तुम सारे भाई मेरे प्रभु राम की भाँति वनवास काट रहे हो। तुम लोगों से भूलकर भी अधर्म नहीं होता। और तुम सब मेरे प्रभु के प्रिय हो। भला मैं तुमसे प्रसन्न क्यों नहीं होऊंगा।"


भीम आह्लाद से भरे, कुछ बोल नहीं सके। हनुमान ही बोले, "अनुज, जिस मार्ग पर तुम आगे बढ़ रहे हो, वह स्वर्ग की ओर जाता है। तुम अपने बल से वहां जा सकते हो, पर यह अनुचित है। अतः मैंने तुम्हारा मार्ग रोक लिया है। जिस पुष्प की खोज में तुम निकले हो, वह उस दूसरे मार्ग पर है। अस्तु, यह हमारी पहली भेंट है। मैं अपने छोटे भाई को कुछ देना चाहता हूं। बताओ, मैं तुम्हारा क्या भला करूँ? कहो तो अभी जाकर दुर्योधन सहित सारे कौरवों को पटक-पटक कर मार डालूँ, या हस्तिनापुर को पत्थरों से पाट दूँ? तुम्हारे कहने भर की देर है। तुम सारे भाई पुनः अपना राज्य एक क्षण में पा सकते हो।"


"अनुगृहीत हूँ अग्रज। परन्तु अभी आपने कहा कि आपके प्रभु हम भाइयों पर प्रसन्न हैं। आपका संकेत किसकी ओर है, यह जानता हूँ मैं। यदि जैसा आप कह रहे हैं, वह उचित होता तो क्या वे प्रभु अब तक ऐसा कर न चुके होते? अस्तु, यदि आप प्रसन्न हैं और कुछ देना ही चाहते हैं तो कृपया युद्ध में मेरे अनुज अर्जुन के सहायक बनकर उसकी रक्षा करें। वो परमवीर है, हमारा वास्तविक बल, हमारा सेनापति वो ही है। इस कारण युद्ध में सबसे अधिक संकट भी उसी को होगा। अतः मेरी विनती है कि आप कैसे भी उसकी रक्षा करें।"


"अद्भुत है तुम्हारा भ्रातृप्रेम। यदि तुम यही चाहते हो तो यही सही। युद्ध में मैं अर्जुन की ध्वजा पर विराजमान होऊंगा। मेरे रहते उसके रथ को कुछ नहीं होगा। तुमने स्वयं के लिए कुछ नहीं मांगा, पर मैं तुम्हारा प्रिय अवश्य करूँगा। युद्ध में जब तुम शत्रुओं की सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे तो तुम्हारी गर्जना में मैं अपनी गर्जना मिला दूंगा। इस तरह तुम शत्रु को द्वन्द्व से पहले ही भयभीत कर सकोगे और सुगमता से उसका वध कर सकोगे।"


भीम विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़े रहे। हनुमान बोले, "आओ भाई, विदा होने से पहले एक बार पुनः गले मिल लो।"