मातृभूमि की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वाले सिद्धू-कान्हो

The Narrative World    30-Jul-2023   
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मां भारती की अस्मिता की रक्षा के लिए देश में अनगिनत योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति दी है। जब पूरा भारत वर्ष अपने स्वराज्य के लिए आंदोलन कर रहा था तब देश का वनवासी जनजाति समाज भी इसमें बढ़-चढ़कर शामिल था। वनवासी समाज के कई ऐसे महान रणबांकुरे हुए जिन्होंने देश की स्वतंत्रता और विदेशी हुकूमत की गुलामी को मिटाने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। ऐसे ही दो महानायक हुए जो रिश्ते में भाई थे और मां भारती के महान सपूत। इनका नाम था सिद्धू और कान्हू।

1855 में हुए संथाल हूल क्रांति के महानायक सिद्धू और कान्हू नाम के इन दो भाइयों ने अंग्रेजी शासन की जड़ें हिला दी थी। इन दो भाइयों ने अपने संगठनात्मक कौशल और वनवासी समाज को एकत्रित कर अंग्रेजी सत्ता द्वारा पोषित साहूकारी व्यवस्था के विरुद्ध हथियार उठाकर उनका मुंहतोड़ जवाब दिया।

तत्कालीन बिहार के अंतर्गत आने वाले भोगनाडीह गांव में सिद्धू और कान्हो का जन्म हुआ और उन्होंने अंग्रेजी शासन की क्रूरता के बीच अपना बचपन बिताया। इस दौरान फ्रांसिस बुक नान नामक एक अंग्रेजी अधिकारी उनके क्षेत्र में आया और उसने वहां झूम कृषि व्यवस्था पर एक रिपोर्ट सौंपी।

इस रिपोर्ट के आधार पर उसके सीनियर ने फरमान जारी कर दिया जिसके तहत स्थानीय वनवासियों को खेती के लिए तैयार किया गया। यह एक ऐसा दौर था जिस समय स्थानीय वनवासी जंगल से लकड़ी काटकर अपना जीविकोपार्जन करते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों ने स्थाई बंदोबस्त के दायरे में उन्हें ले आया जिसके बाद क्षेत्र में इसका बुरा असर दिखने लगा।

अंग्रेजों द्वारा बनाई गई इस शोषणकारी और दमनकारी व्यवस्था के बाद वनवासियों को जंगल से किसी भी संसाधन निकालने की अनुमति नहीं मिली।

ऐसी परिस्थितियों को देखने के बाद सिद्धू और कान्हो दोनों भाइयों ने 30 जून 1855 को करो या मरो अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो के नारे के साथ अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया।

दोनों भाइयों ने वनवासी समाज को एकत्रित किया और अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस क्रांति को संथाल हूल क्रांति कहा गया।

इस पूरे आंदोलन के नायक भगनाडीह के निवासी चुन्नी मंडी के 4 सुपुत्र सिद्धू, कान्हो, चांद, भैरव थे। इन चारों भाइयों ने मिलकर स्थानीय वनवासियों के असंतोष को एक जन आंदोलन का रूप दिया।

आंदोलन को विशाल रूप देने के लिए 30 जून वर्ष 1855 को 400 गांव के लोग भगनाडीह में पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ और यहीं पर घोषणा की गई कि अब अंग्रेजों को मालगुजारी नहीं दी जाएगी।

अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के बाद ब्रिटिश सत्ता की जड़े हिल गई और उन्होंने इन चारों भाइयों को बंदी बनाने का आदेश दिया लेकिन जिस अंग्रेजी अफसर को वहां भेजा गया था वनवासियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी।

इस घटना के बाद सभी अंग्रेजी सरकारी अधिकारियों में इस आंदोलन को लेकर भय व्याप्त हो गया। यह एक ऐसी क्रांति साबित हुई जिसके बाद संथाल में अंग्रेजों का शासन लगभग समाप्त हो गया।

अंग्रेजी हुकूमत भारत के जनजाति समाज के द्वारा किए गए इस विद्रोह से बुरी तरह डर चुका था इस कारण उसने इस क्रांति को दबाने के लिए सीना भेज दी और मार्शल लॉ लगा दिया।

ब्रिटिश सत्ता द्वारा आंदोलनकारियों को पकड़ने के लिए पुरस्कारों की घोषणा की गई इसी बीच बहराइच में अंग्रेजों और क्रांतिकारियों के बीच लड़ाई में चांद और भैरव दोनों वीरगति को प्राप्त हुए।

अंग्रेजों के विरुद्ध वनवासी समाज में इतना आक्रोश था कि जब तक एक भी आंदोलनकारी जीवित रहा वह अंग्रेजों से संघर्ष करता रहा। अंग्रेजों का प्रत्येक सिपाही इन बलिदानों को लेकर शर्मिंदा हो चुका था। इस क्रांति के दौरान 20000 बदमाशों ने अपनी जान दी।

जैसा कि हमने भारतीय इतिहास में देखा है कि जयचंदों की कमी नहीं रही है इसी तरह कुछ लोगों की मुखबिरी के कारण सिद्धू और कान्हो को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद अंग्रेजों ने 26 जुलाई 1855 को दोनों भाइयों को भगनाडीह के एक पेड़ पर खुलेआम फांसी की सजा दे दी।

इन चारों भाइयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संथाल परगना में जिस भीषण संग्राम का सूत्रपात किया उसके बाद भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता की ज्योत जलने लगी। इनके पिता एक भूमिहीन व्यक्ति थे लेकिन मातृभूमि के प्रति अदम्य श्रद्धा और आक्रमणकारियों के विरुद्ध आक्रोश के बाद अपने जन्म भूमि की रक्षा के लिए इन्होंने प्राणों की आहुति दे दी।