वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित होना चाहिए, कीमतों पर नियंत्रण के लिए कृषि उत्पादों का संयमित उपयोग हो

The Narrative World    08-Jul-2023   
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वर्तमान में पूरे विश्व में सामान्यतः वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण पश्चिमी आर्थिक दर्शन पर आधारित वस्तुओं की मांग एवं आपूर्ति के सिद्धांत के अनुरूप होता है। यदि किसी वस्तु की बाजार में मांग अधिक है और आपूर्ति कम है तो उस वस्तु की उत्पादन लागत कितनी भी कम क्यों न हो, परंतु उस वस्तु की बाजार में कीमत बहुत अधिक हो जाती है।


वस्तु सामान्य नागरिकों के लिए कितनी भी आवश्यक क्यों न हो और चाहे उस वस्तु की आपूर्ति कई प्राकृतिक कारणों के चलते विपरीत रूप से प्रभावित क्यों न हुई हो, परंतु बाजार में तो उस वस्तु की कीमतें कुछ ही समय में आकाश को छूने लगती हैं।


जैसे अभी हाल ही में भारत में देश के कुछ भागों में मौसम में आए परिवर्तन के चलते टमाटर की फसल खराब हो गई है, इसके कारण बाजार में टमाटर की आपूर्ति पर विपरीत प्रभाव दिखाई पड़ा है, देखते ही देखते खुदरा बाजार में 5 रुपए से 10 रुपए प्रति किलोग्राम बिकने वाला टमाटर 120 रुपए प्रति किलोग्राम से भी अधिक कीमत पर बिकने लगा है।


पश्चिमी आर्थिक दर्शन दरअसल केवल 'मैं' के भाव पर आधारित है अर्थात केवल मेरा लाभ होना चाहिए। समाज के अन्य वर्गों का कितना भी नुकसान क्यों न हो परंतु मेरे लाभ में कमी नहीं आना चाहिए। इसी भावना के चलते बड़े देश, छोटे देशों का शोषण करते नजर आते है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियां छोटी कम्पनियों को खा जाती हैं।


उत्पादक, उपभोक्ताओं का शोषण करता हुआ दिखाई देता है एवं बड़े व्यापारी छोटे व्यापारियों का शोषण करते रहते है। कुल मिलाकर बड़ी मछली, छोटी मछली को निगलती हुई दिखाई दे रही है। पश्चिमी आर्थिक दर्शन में वस्तुओं की कीमतों में कमी होना मतलब आर्थिक क्षेत्र में 'मंदी' का आना माना जाता है।


वर्ष 1920 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात चूंकि कई देश इस विश्व युद्ध में बर्बाद हो चुके थे अतः उत्पादों को खरीदने के लिए कई देशों के नागरिकों के पास पर्याप्त पैसे ही नहीं बचे थे, जिसके कारण उत्पादों की मांग बाजार में बहुत कम हो गई और वस्तुओं के दाम एकदम बहुत अधिक गिर गए थे।


उस समय पर इस स्थिति को गम्भीर मंदी की संज्ञा दी गई थी। पश्चिमी आर्थिक दर्शन में उत्पादकों की लाभप्रदता किस प्रकार अधिक से अधिक होती रहे, इस विषय पर ही विचार किया जाता है। देश के आम नागरिकों को कितनी आर्थिक परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है, इस बात की ओर सरकारों का ध्यान नहीं जाता है। क्योंकि केवल आर्थिक विकास होना चाहिए, इस धारणा के अनुसार ही वहां की सरकारें चलती हैं।


अभी हाल ही में विकसित देशों द्वारा मुद्रा स्फीति की समस्या का हल निकालने के लिए इन देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में लगातार वृद्धि की जा रही है ताकि नागरिकों के हाथों में धन की उपलब्धता कम हो और वे बाजार में वस्तुओं को कम मात्रा में खरीद सकें, इससे वस्तुओं की मांग में कमी होगी और इस प्रकार मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकेगा।


इस निर्णय का इन देशों के नागरिकों एवं वहां की अर्थव्यवस्थाओं पर विपरीत प्रभाव पड़ता दिखाई दे रहा है। उत्पादों की मांग को कृत्रिम तरीके से कम करने के कारण कम्पनियों ने वस्तुओं के उत्पादन को कम कर दिया है एवं इसके चलते कई कम्पनियों ने कर्मचारियों एवं मजदूरों की छँटनी प्रारम्भ कर दी है। अतः इन देशों में बेरोजगारी फैल रही है। पश्चिमी आर्थिक दर्शन की भावना के अनुरूप विकसित देशों में कई बार ऐसे अमानवीय निर्णय भी लिए जाते हैं।


उक्त आर्थिक नीतियों के ठीक विपरीत भारतीय आर्थिक दर्शन में देश के समस्त नागरिकों को किस प्रकार सुख पहुंचाया जाय, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। प्राचीन भारत में उत्पादों के क्रय विक्रय के सम्बंध में उत्पादों की कीमतों के बारे में स्पष्ट नीति निर्धारित रहती थी और इसका वर्णन शास्त्रों में भी मिलता है।


किसी वस्तु के उत्पादन में जो कुछ भी व्यय हुआ है, वह राशि ही उस वस्तु की वास्तविक लागत मानी जाती थी, परंतु वस्तु की उपलब्धता एवं उपयोगिता के आधार पर कभी वास्तविक मूल्य से कुछ अधिक अथवा कुछ कम राशि में वह उत्पाद बेचा एवं खरीदा जाता था।


भारतीय शास्त्रों में यह भी वर्णन मिलता है कि यदि किसी वर्ष विशेष में किसी कृषि उत्पाद का उत्पादन, प्राकृतिक आपदाओं के चलते, कम होता है तो राजा द्वारा अपने अन्न के भंडार को आम नागरिकों के लिए खोल दिया जाता था।


प्राचीन भारत के शास्त्रों में तो मुद्रा स्फीति का वर्णन ही नहीं मिलता है। बल्कि, भारत में वस्तुओं, विशेष रूप से खाद्य पदार्थों, की पर्याप्त उपलब्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता था। कृषि उत्पादों की पैदावार इतनी अधिक होती थी कि इन उत्पादों के बाजार भाव सामान्यतः कम ही रहते थे, बढ़ते नहीं थे।


हॉल ही में प्रकृति जन्य कारणों के चलते यदि टमाटर के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ा है तो बाजार में टमाटर की कीमतों में अत्यधिक (10 गुना) वृद्धि, पश्चिम देशों के आर्थिक चिंतन पर तो खरी उतरती हैं परंतु भारतीय आर्थिक चिंतन के बिलकुल विपरीत है।


यदि उत्पादकों एवं व्यापारियों द्वारा इस तरह की असामान्य परिस्थितियों के बीच आम नागरिकों के लिए टमाटर की उपलब्धता को प्रभावित किया जा रहा है, तो इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। इन विपरीत परिस्थितियों के बीच आम नागरिकों को ही आगे आकर इस समस्या का हल निकलना होगा।


यदि भारतीय उत्पादक एवं व्यापारी भारतीय आर्थिक दर्शन पर आधारित उत्पाद की लागत में कुछ लाभ जोड़कर ही बाजार मूल्य तय करने के स्थान पर पश्चिमी आर्थिक दर्शन के अनुसार वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण मांग एवं आपूर्ति को ध्यान में रखकर करते हैं तो इस तरह की समस्या का जवाब भी भारतीय नागरिकों द्वारा इसी भाषा में दिया जाना चाहिए।


अर्थात, नागरिकों द्वारा सामूहिक रूप से कुछ समय के लिए टमाटर के उपयोग को कम कर दिया जाना चाहिए उससे बाजार में टमाटर की मांग कम हो जाएगी और मांग कम होने से टमाटर की बाजार कीमत भी कम हो जाएगी। और फिर, टमाटर का अधिक समय तक भंडारण भी नहीं किया जा सकता है, यह एक शीघ्र नाश होने वाला पदार्थ है, बाजार में टमाटर की मांग कम होने से उत्पादक एवं व्यापारी मजबूर होकर में टमाटर की आपूर्ति बाजार में बढ़ा देंगे और इस प्रकार टमाटर की कीमतें नीचें आने लगेंगी।


अब समय आ गया है कि वस्तुओं की कीमतों का निर्धारण पश्चिमी आर्थिक दर्शन को छोड़कर, भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुरूप किया जाना चाहिए जिससे पूरे विश्व के नागरिकों को मुद्रा स्फीति से राहत प्राप्त हो सके।

प्रहलाद सबनानी

सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक, एसबीआई