ईसाई देशों द्वारा लाए गए षड्यंत्रकारी 'विश्व मूलनिवासी दिवस' नहीं, 'जनजाति गौरव दिवस' के लिए उत्साहित है जनजाति समाज

यह भी एक बड़ा कारण है कि जब षड्यंत्रकारी शक्तियों ने जनजाति समाज के सामने "मूलनिवासी" या "आदिवासी" जैसी अवधारणा रखी तो समाज का एक बड़ा वर्ग इसके पीछे चल पड़ा। जब "विश्व मूलनिवासी दिवस" मनाने की घोषणा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर की गई, तब इसे भारत में "विश्व आदिवासी दिवस" के रूप में मनाने ऐलान किया गया।

The Narrative World    06-Aug-2023   
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आगामी
9 अगस्त को विश्व मूलनिवासी दिवस है। वर्ष 1994 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दिवस की घोषणा की थी। हमारे देश को अस्थिर करने वाली ब्रिटिश ईसाई सत्ता ने स्वतंत्रता के पूर्व ही भारतीय समाज में फूट डालने की दृष्टि से जनजाति समाज को 'आदिवासी' कहना शुरू कर दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात वामपंथी शक्तियों के साथ मिलकर भारत विरोधी तत्वों ने देश के भीतर एवं बाहर इस 'आदिवासी' के सिद्धांत को जमकर हवा दी।


चूंकि तत्कालीन सरकार भी जनजाति समाज को लेकर संवेदनशील नहीं थी, इसीलिए ऐसे लोगों को सरकार में जनजाति मुद्दों के लिए सलाहकार बनवा गया जिन्होंने ईसाई सत्ता के स्वार्थ के लिए कार्य किए थे।


इसमें सबसे पहला नाम वेरियर एल्विन का भी आता है, जिसने भारत में ईसाई मिशनरी के रूप में कदम रखा और फिर जनजाति समाज के भीतर अपनी पैठ बनाता चला गया।


अब भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 बसंत पूर्ण कर चुका है। लेकिन भारत में जनजाति समाज की स्थिति को बीते 75 वर्षों में जितना सुधरना था, वह नहीं हो सका। देश के जनजातीय समूहों के विकास में बेहद ही मामूली परिवर्तन देखने को मिले हैं।


यह भी एक बड़ा कारण है कि जब षड्यंत्रकारी शक्तियों ने जनजाति समाज के सामने "मूलनिवासी" या "आदिवासी" जैसी अवधारणा रखी तो समाज का एक बड़ा वर्ग इसके पीछे चल पड़ा। जब 'विश्व मूलनिवासी दिवस' मनाने की घोषणा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर की गई, तब इसे भारत में 'विश्व आदिवासी दिवस' के रूप में मनाने ऐलान किया गया।


चूंकि भारत में जनजाति समाज को 'आदिवासी' के रूप में स्थापित किया गया है, तो स्वतः ही यह दिवस 'जनजाति' समाज से जुड़ गया। इस दिन पर भव्य आयोजन होने लगे और मंचों से विभाजनकारी वक्तव्य सामने आने लगे।


“लेकिन इन सब के बीच सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या 9 अगस्त का भारतीय जनजाति समाज से कोई संबंध है ? 9 अगस्त की तिथि में ऐसा क्या है जिसे जनजाति समाज गौरव एवं उत्साह के साथ मना सकता है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर है कि 9 अगस्त का जनजाति समाज से कोई ऐतिहासिक संबंध नहीं है।”


दरसअल स्वतंत्रता के पश्चात भी जनजाति समाज के पास कोई एक ऐसी तिथि नहीं थी जिसे समाज राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होकर मना सके। क्षेत्रीय नेतृत्वकर्ता, क्रांतिकारी एवं पारंपरिक पर्व ही थे जिसे क्षेत्र के अनुसार जनजाति समाज के द्वारा मनाया जाता था।


यही कारण है कि जब 9 अगस्त की बात आई तो षड्यंत्रकारी शक्तियों ने इसे सीधा जनजाति अस्मिता से जोड़ने का कार्य किया। चूंकि समाज के पास पहले स ही कोई ऐसा दिवस नहीं था जो पूरे देश से जनजाति समाज को जोड़ता हो, इसीलिए 9 अगस्त की स्वीकार्यता बढ़ती गई।


लेकिन वर्ष 2021 में स्वाधीनता के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले जनजाति योद्धाओं एवं वीरांगनाओं को समर्पित करते हुए 'जनजाति गौरव दिवस' की घोषणा की गई।


10 नवंबर 2021 को घोषणा की गई कि अब से प्रत्येक वर्ष 15 नवंबर को जनजाति गौरव दिवस मनाया जाएगा। सरकार की ओर से कहा गया कि यह दिन वीर जनजाति स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृति को समर्पित है ताकि आने वाली पीढ़ियां देश के प्रति उनके बलिदानों के बारे में जान सके।


दरअसल देश के विभिन्न क्षेत्रों में ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध जनजाति आंदोलनों को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा गया और इसने पूरे देश में भारतीयों को प्रेरित किया।


हालांकि आज भी देश के अधिकांश लोग इन जनजाति नायकों को लेकर जागरूक नहीं हैं। इसीलिए भारत सरकार ने देश भर में 10 जनजातीय स्वतंत्रता सेनानी संग्राहलयों की स्वीकृति भी दी है।


15 नवंबर का जनजाति समाज से संबंध


15 नवंबर की तिथि जनजाति अस्मिता के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक है। दरअसल 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती होती है, जिन्हें देशभर में जनजाति समाज के द्वारा ईश्वरतुल्य समझा जाता है।


बिरसा मुंडा ने ब्रिटिश ईसाई सत्ता की शोषक प्रणाली के विरुद्ध बहादुरी से लड़ाई लड़ी और उलगुलान (क्रांति) का आह्वान करते हुए ब्रिटिश ईसाई सत्ता के विरुद्ध आंदोलन का नेतृत्व किया।


बिरसा मुंडा भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी और लोकनायक थे। ब्रिटिश ईसाइयों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम में उनकी ख्याति चहुंओर थी।


अपना संपूर्ण जीवन ब्रिटिश ईसाई सत्ता और ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध उन्होंने भारतीय समाज, मुख्यतः वनवासी समाज, को एकसूत्र में बांधा और यह हौसला दिया कि वह अंग्रेजों से लड़ सकते हैं।


भगवान बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध की मांग भी की थी। वनवासियों के मतांतरण पर रोक लगाना उनकी प्रमुख मांगों में से एक था।


अपनी केवल 25 वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी मातृभूमि एवं सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी थी।


अब विचार कीजिए कि भगवान बिरसा मुंडा जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी की जयंती भारतीय जनजातियों के लिए गौरव का विषय है या वो 9 अगस्त की तिथि जिसका भारतीय वनवासियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप स कोई संबंध नहीं ?


दरअसल इस 9 अगस्त की तिथि को जनजाति समाज से जोड़ने वाले लोग भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वनवासियों के योगदान को पूरी तरह से भूलाने के लिए षड्यंत्र रच रहे हैं, जिससे नुकसान जनजाति समाज का ही होना है।


अब जनजाति गौरव दिवस मनाने को तैयार है समाज


जनजाति समाज की अस्मिता और जनजाति क्रांतिकारियों के बलिदान को सम्मान देते हुए जिस तरह से 'जनजाति गौरव दिवस' की घोषणा की गई थी, उसके बाद से ही जनजाति समाज में इसे लेकर उत्साह देखा गया है।


एक दशक पहले जहां मूलनिवासी दिवस के आयोजन लेकर जनजाति समाज में भ्रम की स्थिति बनी होती थी, वह भी अब धीरे-धीरे टूट रही है। जनजाति समाज के भीतर अब मूलनिवासी दिवस के पीछे के षड्यंत्र को लेकर जागरूकता भी आई है।


यही कारण है कि जनजाति समाज अब अपने ईश्वर, अपने नेतृत्वकर्ता और उलगुलान के आह्वानकर्ता भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर 'जनजाति गौरव दिवस' मनाने को लेकर उत्साहित हैं, नाकि विदेशी षड्यंत्रकारी शक्तियों द्वारा स्थापित किए गए 'मूलनिवासी दिवस' को मनाने को लेकर।