9 अगस्त उस इतिहास का साक्षी बनता रहेगा जो हमारे देश के जनजाति समूह कभी नहीं चाहते

दरअसल प्रथम विश्व युध्द के विजित देशों द्वारा मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए 1919 में गठित संगठन ILO ने 1989 में राइट्स ऑफ इंडिजिनस पीपल का कन्वेंशन पारित किया. परिभाषा को लेकर विभिन्न देशों में मतभेद होने के कारण इस पर सहमति नहीं बनी. और ये कन्वेंशन असफल माना गया.

The Narrative World    09-Aug-2023   
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जब हमारे संविधान का निर्माण किया जा रहा था तब जनजाति समूह को लेकर लगभग आम राय थी कि इन्हें खास दर्जा देने की आवश्यकता है ताकि समाज की मुख्यधारा में देश का हर नागरिक शामिल हो सके
. ये सपना 70 साल की उम्र काट चुका है. लेकिन देश के जनजातीय समूह की विकास संरचना में बेहद मामूली परिवर्तन आए है.


जो चूक पिछली पीढ़ियों ने की, आज की पीढ़ी उससे सबक लेती हुई नजर नहीं आ रही. इसे लेकर जो चिंतन धाराएं जन्मी वो विकासपरक न होकर शाब्दिक जाल में उलझी हुई है. और अगर इसके इतिहास का अध्ययन किया जाए तो वह हमें गुलामी के दौर की ओर खींचती है.


आखिर 9 अगस्त को ही जनजातीय समूह अपना दिवस क्यों मनाए ? क्या यह दिन जनजातीय समूहों के लिए कोई गर्वित क्षण लेकर आया ? या यह दिन किसी परिणाममूलक इतिहास बोध की कोई याद उच्चारित करता है ? ऐसा कुछ नहीं है.


दरअसल प्रथम विश्व युध्द के विजित देशों द्वारा मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए 1919 में गठित संगठन ILO ने 1989 में राइट्स ऑफ इंडिजिनस पीपल का कन्वेंशन पारित किया. परिभाषा को लेकर विभिन्न देशों में मतभेद होने के कारण इस पर सहमति नहीं बनी. और ये कन्वेंशन असफल माना गया.


इस पर सहमति बनाने के लिए ILO (International Labour Organisation) द्वारा वर्किंग ग्रुप फॉर इंडिजिनस पीपल (WGIP) नामक एक अलग संस्था बनाई गई. इसकी पहली बैठक 9 अगस्त 1994 को आहूत की गई. इसी की याद में इस दिन को "वर्ल्ड इंडिजिनस डे" के रूप में मनाने की प्रथा शुरू हुई. मोटे तौर पर यही इसका इतिहास है.


यह भी गौर करना होगा कि 13 सितंबर 2007 में भारत ने इसका समर्थन यह कहते हुए किया कि संस्था विभिन्न देशों के बीच जनजातीय समूहों के अधिकारों को लेकर आम सहमति बनाने में सफल रहा.


संस्था इंडिजिनस अथवा मूलनिवासी समुदाय को परिभाषित करने में भी असमर्थ रहा. इस घोषणापत्र का संदर्भ केवल उन राष्ट्रों के लिए है जहां औपनिवशिक और आक्रमणकारी आबादी के अलावा वहां की मूल अल्पसंख्यक लोग भी रहते हैं.


जबकि भारत एक संप्रभु राष्ट्र है और देश की भौगोलिक सीमा में रहने वाले तमाम लोगों को अपना निवासी मानता है. भारत इस घोषणापत्र का समर्थन सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि अनुच्छेद 46 के तहत किसी भी राष्ट्र के लिए यह कानूनी बाध्यता नहीं है.


अब मानवशास्त्र (एन्थ्रोपोलॉजी) के लिहाज से कुछ तथ्यों पर गौर करें. वैज्ञानिक अब इस बात पर आम राय रखते हैं कि आज से 20 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर एक ही भूखंड. सबसे पहले इस धरती पर मानव विकास के निशान वर्तमान अफ्रीका या गोंडवानालैंड (जिसमें भारत शामिल है) में दिखाई देता है. यही मानव विश्व के दूसरे भूखंडों में पलायन करता है. मौसम और पारिस्थिकि से उत्पन्न म्यूटेशन इनकी विशेषताओं को कालांतर में बदल देते हैं. जिससे नैन-नक्श और रंग की एकरूपता खत्म हो जाती है.


ओपनहाईमर की रियल ईव की व्याख्या भी इस अवधारणा को मजबूत करती है. उसके मुताबिक विश्व के 98 फीसदी लोगों के माइक्रोकॉंड्रिएल डीएनए एक ही कुनबे का है. अब इस वैज्ञानिक तथ्य को भारत के संदर्भ में देखें तो मैक्स मूलर द्वारा प्रतिपादित आर्य-अनार्य की अवधारणा अपने आप समाप्त हो जाती है. संस्कृत भाषा की व्यापकता आर्य और द्रविड़ संस्कृति के बिल्कुल अलग रूप से विकसित होने की अवधारणा को भी तोड़ देती है.


अब इन तमाम तथ्यों को उस तराजू में तौल कर देखा जाए जिसमें देश का जनजाति समूह खुद को मूल निवासी और बाकियों को आक्रांता मानता है. दरअसल यही वह सोच है जो जनजातीय समूहों को आगे बढ़ने से रोक रही है.


पिछले सात-आठ दशकों में एक भी वैचारिक गोष्ठी ऐसी नहीं हुई जिसमें किसी निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश हुई हो. ये बहस/चिंतन सालों से अनवरत है. इसके साथ ही वह संघर्ष भी अनवरत हो गया है, जो देश के जनजाति समूह करना चाहते हैं. समाज की मुख्यधारा में शामिल होने की सबसे बड़ी बाधा मुझे तो यही दिखाई देती है.


इस तराजू से थोड़ा आगे बढ़ें तो शब्दों का मायाजाल जकड़ लेता है. अंग्रेजी का Native मूल निवासी होने को परिभाषित करता है. Tribal शब्द जनजाति भाव को स्पष्ट करता है. आदिवासी शब्द native अर्थात मूल होने के भाव के ज्यादा करीब नजर आता है. कम से कम इसके मुताबिक आदिवासी शब्द जनजातियों को तो बिल्कुल रिफ्लेक्ट नहीं करता.


दुर्भाग्य की बात ये है कि आजकल वन क्षेत्र में निवास करने वाले सभी समूहों के लिए आदिवासी शब्द बड़ी आसानी से इस्तेमाल हो रहा है. इससे उपजा द्वंद्व विध्वंसकारी है. ये न सिर्फ समाज को बल्कि राज्य और राष्ट्र को भी बांटने का काम कर रहा है.


इस बात में कोई शक नहीं कि मानव सभ्यता की सर्वाधिक रचनात्मक दृष्टि और संस्कृति जनजाति समूहों के पास अक्षुण्ण रूप से विद्यमान है. पर इसके नाम पर होने वाले शाब्दिक और परिणामविहीन बहस को अब विराम देना होगा. बेमतलब की जो बहस आदिवासी, मूलनिवासी, वनवासी होने को लेकर छिड़ी हुई है, उसे तत्काल मानस से निकाल फेंकना होगा. तभी ये समूह मानव सभ्यता के गतिमान होने मूल स्वभाव से कदमताल कर सकेगा.


9 अगस्त उस इतिहास का साक्षी बनता रहेगा जो हमारे देश के जनजाति समूह कभी नहीं चाहते. छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, तेलंगाना और नॉर्थ ईस्ट के राज्यों में ये मामला ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां जनजातीय समूह आबादी में बहुसंख्यक की भूमिका में हैं. अगर इन्हें अपनी अस्मिता और पहचान को सही दिशा देनी हो तो बेमतलब की इस बहस से स्वयं को मुक्त करना होगा, और समाज को बांटने वाली विचारधारा से खुद को मुक्त करना होगा.



लेख

राज किशोर भगत
वरिष्ठ पत्रकार, जनजाति विषयों के जानकार