दिग्विजय दिवस : जब पूरे विश्व ने स्वामी विवेकानंद के रूप में भारतीय संस्कृति का उच्चतम आदर्श देखा था

स्वामी विवेकानंद अपने छोटे जीवन मे जो कार्य और प्रचार किया एवं सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित किया कि ऐसा व्यक्ति इस राष्ट्र की भूमि मे जन्म लिया था और यहाँ की सड़कों पर ही चला था। निःसन्देह वह एक हिंदू थे और उन्हे एक होने पर गर्व था। लेकिन उनके दर्शन ने धर्म को प्रसारित किया।उनका निरंतर ध्यान मनुष्य की भावना पर था।

The Narrative World    11-Sep-2023   
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अधिकांश साक्षर और सांस्कृतिक रूप से सजग भारतीय
, विवेकानंद के वर्ष 1893 मे शिकागो मे दिए गए ऐतिहासिक भाषण के कम से कम आरंभिक उद्बोधन "बहनो और भाइयों" के बारे में अवश्य जानते हैं।


सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विश्वधर्म सम्मेलन के हजारों प्रतिनिधि, जिनमें से अधिकांश ईसाई थे, इस 30 वर्षीय हिंदू सन्यासी के शब्दों से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें सम्मेलन के अगले पखवाड़े में पांच बार बोलने के लिए आमंत्रित किया।


उनके भाषण की अगली सुबह को प्रकाशित न्यूयार्क हेराल्ड ने लिखा "विवेकानंद निस्संदेह धर्म संसद में सबसे बड़े व्यक्ति हैं।"


उस भाषण का मुख्य आकर्षण क्या था ?


यह भाषण मात्र 458 शब्द लंबा था, इसलिए पांच या छह मिनट से अधिक नहीं चल सकता था।


विवेकानंद ने एक ही विषय को केंद्र बनाकर अपना व्याख्यान दिया "मुझे ऐसे धर्म पर गर्व है, जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति दोनों को सिखाया है।" इसे उन्होने हिंदू धर्म का मूल मूल्य है, और सबसे मूल्यवान तत्व बताया।


उन्होने कहाहम न केवल सार्वभौमिक सहिष्णुता में विश्वास करते हैं, बल्कि हम सभी धर्मों को सच मानते हैं। मुझे ऐसे देश पर गर्व है, जिसने सभी धर्मों और पृथ्वी के सभी राष्ट्रों के सताए हुए और शरणार्थियों को शरण दी है भाईयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:


रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।


'जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार

हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।'


यह एक ऐसे व्यक्ति थे जो कभी भारत से बाहर नहीं गए थे, किन्तु उन्होंने गरीबों और रोगग्रस्तों को के लिए कई साल बिताए थे और अपनी आत्मा के अन्तःकरण से पूरी तरह से बोल रहे थे।


अगले पांच मिनट में उन्होंने जो बोला, उसने दर्शकों को विद्युतीकृत कर दिया, उनके उद्बोधन उनसे पहले बोलने वालों में से कई लोगों को शर्मसार कर दिया।


उन्होने कहा- “सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है. न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए।


अधिवेशन के अंतिम दिन अपने समापन भाषण में, विवेकानंद ने फिर से सद्भाव और स्वीकृति पर जोर दिया। उन्होने बतायाबहुत कुछ धार्मिक एकता के सामान्य आधार के बारे में कहा गया है। मैं अब सिर्फ अपने ही सिद्धांत पर ही बल देने वाला नहीं हूं। किन्तु यदि यहाँ कोई यह आशा कर रहा हैं कि यह एकता किसी एक धर्म की विजय और बाकी धर्मों के विनाश से सिद्ध होगी, तो उनसे मेरा कहना हैं किभाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव हैं।क्या मैं यह चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जाएँ? कदापि नहीं, ईश्‍वर भी ऐसा न करे! क्या मेरी यह इच्छा हैं कि हिदू या बौद्ध लोग ईसाई हो जाएँ? ईश्‍वर इस इच्छा से बचाए।


स्वामी विवेकानंद के इस भाषण को सर्वश्रेष्ठ भाषण के रूप मे चयन करने वाले मार्क तुली ने इस भाषण को सर्वकालिक महान क्यों चुना, का कारण गिनते हुए लिखा है : “विवेकानंद के संसद के भाषण आज आध्यात्मिक नहीं बल्कि धार्मिक होने का दावा करने वाले कई लोगों के लिए गूंजते हैं, जो विश्वास के आधार पर धर्म को अस्वीकार करते हैं और ईश्वर के अनुभव की तलाश करते हैं। उन्होंने कहा: 'हिंदू धर्म संघर्षों और एक निश्चित सिद्धांत या हठधर्मिता पर विश्वास करने की कोशिशों में शामिल नहीं है, किन्तु यह विश्वास करने में नहीं बल्कि व्यक्ति के बनने और उसे साकार करने का मार्ग है '


तुली कहते हैं कि भविष्य को देखते हुए उन्होंने कहा, एक ऐसा धर्म होना चाहिए, जिसमें अपनी विनम्रता के लिए उत्पीड़न या असहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं हो... जिसका पूरा परिक्षेत्र और पूरी शक्ति मानवता को अपने स्वयं के, सच्चे, दिव्य स्वभाव का एहसास कराने के लिए केंद्रित हो। '' और स्वामी विवेकानंद ने हिदुत्व को इसी स्वरूप मे सदियों पूर्व स्थापित किया।


स्वामी विवेकानंद अपने छोटे जीवन मे जो कार्य और प्रचार किया एवं सम्पूर्ण विश्व को आश्चर्यचकित किया कि ऐसा व्यक्ति इस राष्ट्र की भूमि मे जन्म लिया था और यहाँ की सड़कों पर ही चला था निःसन्देह वह एक हिंदू थे और उन्हे एक होने पर गर्व था। लेकिन उनके दर्शन ने धर्म को प्रसारित किया।उनका निरंतर ध्यान मनुष्य की भावना पर था।


यह सुनिश्चित करना हमारा कर्तव्य है कि उसका नाम व्यर्थ के उद्देश्यों के लिए न प्रयोग किया जाए। उनके दर्शन और शब्दों का प्रयोग सभी मानवों के कल्याण के लिए किया जाय और प्रत्येक भारतवासी उनके आदर्शों के माध्यम से अपनी प्राचीन उत्कृष्ट संस्कृति के प्रति गौरवबोध का अनुभव कर सकें।