सांस्कृतिक एकरूपता का प्रतीक 'गणेशोत्सव'

भादव मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश उत्सव के प्रारंभ के साथ ही शाम होते होते बाजारों की भीड़ छटने लगती है और सभी अपने अपने घरो की ओर चल पड़ते है। गली मोहल्ले में गणपति की धूम रहती है, घरो के साथ साथ गली मोहल्ले में भी गणपति की सार्वजनिक रूप से स्थापना की जाती है और दस दिनों तक समाज के द्वारा पूजन अर्चन किया जाता है और समाज अपने एकत्व का संदेश देता है। भारत के भीतर यह भाव ही "स्व" का भाव है। घरो के भीतर जिन गणपति की स्थापना की जाती है।

The Narrative World    24-Sep-2023   
Total Views |


Representative Image

भादव मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश उत्सव के प्रारंभ के साथ ही शाम होते होते बाजारों की भीड़ छटने लगती है और सभी अपने अपने घरो की ओर चल पड़ते है। गली मोहल्ले में गणपति की धूम रहती है, घरो के साथ साथ गली मोहल्ले में भी गणपति की सार्वजनिक रूप से स्थापना की जाती है और दस दिनों तक समाज के द्वारा पूजन अर्चन किया जाता है और समाज अपने एकत्व का संदेश देता है। भारत के भीतर यह भाव ही 'स्व' का भाव है। घरो के भीतर जिन गणपति की स्थापना की जाती है।

उन्ही के विराट स्वरूप को गली मोहल्ले में स्थापित किया जाता है। और लोग घरों में पूजन पाठ कर मोहल्ले में बैठे गणपति की आरती में सम्मिलित होते जबकि वही लोग घरों में वही आरती कर चुके होते है। लेकिन भारत में आध्यात्मिक आधार पर जिस राष्ट्रतत्व की बात की जाती वह यही है। घर में बैठे भगवान को पूज कर समाज के बीच स्थित भगवान को सार्वजनिक रूप से जाकर पूजना और समाज के भीतर समानता का संदेश देना ही ऐसे आध्यात्मिक संकल्पों का मुख्य उद्देश्य रहा है। भारतीय समाज में जो बहुतत्व विद्यमान है। उसका आधार ही यह आध्यात्मिक एकत्व भाव है। जो हमें परस्पर एक दूसरे से जोड़ता है।


तो हम बात कर रहे थे गणेशोत्सव के प्रारंभ के साथ ही भगवान विभिन्न स्वरूप में समाज के सभी वर्गों के परिवार में अतिथि के रूप विराजित हो जाते है। गणेशोत्सव के लगभग एक सप्ताह पूर्व से ही बाजार में गणेशोत्सव का वातावरण तैयार होने लगता है। घरों में परिवार के सदस्य गणपति के स्वरूप की चर्चा करने लगते है। घरों में स्थान को चयनित कर उसकी साज सज्जा की व्यवस्था की जाने लगती है। परिवार के छोटे बच्चों से लेकर बड़े लोगों तक में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होने लगता है। सभी मिलकर गणपति स्थापना की तैयारी में लग जाते है।


घरों में परिवार के साथ ही गणेशोत्सव को सार्वजनिक उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है। शहरों और गांवों में गली मोहल्ले में सार्वजनिक स्थान जो सभी के लिए सुलभ स्थान हो , उसे चुनकर पंडाल का निर्माण किया जाता है। बड़ी आकार की गणेश प्रतिमा को स्थापित किया जाता है। सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव के लिए गली मोहल्ले में रहने वाले परिवारों से चंदे के रूप में राशि भी एकत्रित की जाती है। उसी राशि से दस दिनों के उत्सव का व्यय वहन किया जाता है। सभी घर से राशि का एकत्रित करने के कारण सामान्य व्यक्ति का समाज के प्रति विश्वास दृढ होता है, क्योंकि समाज में हो रहे उत्सव में उसकी सहभागिता के साथ आंशिक सहयोग भी रहता है और यही सहयोग समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी को भी दर्शाता है।


भारत उत्सवों का देश है क्योंकि भारत में प्रतिदिन किसी ना किसी क्षेत्र में कोई ना कोई उत्सव अवश्य मनाया जाता है। किन्तु भारत की यही उत्सव परम्परा भारत के हजारों वर्षों से विश्व में एक अलग पहचान का कारण भी है। भारत की यह उत्सव प्रियता अकारण नहीं है। इसी उत्सव प्रियता में भारत के लिए सांस्कृतिक और पारंपरिक भावों को समाहित किया गया है। भारत में किसी भी उत्सव के पीछे एक हेतु अवश्य होता है। ऐसा ही एक हेतु गणेशोत्सव को लेकर भी है। जब भारत पर अंग्रेजों की अधीनता थी और अंग्रेज भारत पर अत्याचार कर रहे थे। तब भारत के महापुरुष लोकमान्य तिलक ने वर्ष 1893 में गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप से मनाने का आह्वान किया और गणेशोत्सव घरों के साथ-साथ सार्वजनिक रूप से भी मनाने का संकल्प लिया गया।


प्रारंभ मे सार्वजनिक गणेशोत्सव को महाराष्ट्र में मनाया जाता था। किंतु समय के साथ सम्पूर्ण देश में इसे मनाने की परम्परा प्रारंभ हुई और समाज को जाग्रत करने में गणेशोत्सव ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। लोकमान्य तिलक के आह्वान के बाद सार्वजनिक गणेशोत्सव से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में गति भी आयी। जनजाग्रति के लिए गणेशोत्सव को सार्वजनिक रूप से मनाना बिल्कुल वैसा ही था जैसा कभी मुगलों के भय और आतंक को समाप्त करने के लिए भक्ति आंदोलन को चलाया गया था। जिससे समाज के भीतर आत्मविश्वास और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बड़ी तेजी से बढ़ा था।


अंग्रेजों के विरुद्ध गणेशोत्सव को सार्वजनिक करने के पीछे का हेतु भी सामाजिक चेतना को जगाना और स्वतंत्रता के आंदोलन में जनसामान्य को भागीदार बनाना ही था। लोकमान्य तिलक ने भारत की उसी संत परम्परा को आगे बढ़ाया जो हजारों वर्षों से भारत की आध्यात्मिक चेतना को जगाए हुए है।


भारत के उत्सव भीतर के समाज को आध्यात्मिक रूप से एकजुट रखने और विपरीत परिस्थितियों में परस्पर सहयोग के लिए समाज को तैयार रखने में महत्वपूर्ण साधन है। भारत के उत्सव परिवार के साथ साथ सार्वजनिक रूप से भी एक साथ मनाये जाते है। देश काल और परिस्थितियों के आधार पर उत्सव का स्वरूप भिन्न हो सकता है। किन्तु उत्सव का कारण और उसके भाव समान ही होते है। यही समानता भारत को भारत बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।


लेखक- सनी राजपूत, अधिवक्ता, उज्जैन