असन्तोष से उपजा कोई विद्रोह नहीं, बल्कि भारत के विरुद्ध एक सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण है माओवाद

वास्तव में यह माओवाद या कम्युनिस्ट आतंकवाद भारत के विरुद्ध एक बड़ा सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण है, ठीक वैसा ही आक्रमण जिसने प्राचीन चीन और उसकी पुरातन संस्कृति को नेस्तनाबूद कर वह भूमि लाल आतंकियों के हवाले कर दी।

The Narrative World    26-Sep-2023   
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महाराष्ट्र के विदर्भक्षेत्र में स्थित एक बड़ा कस्बा मेरा ननिहाल है, जहाँ गर्मियों की छुट्टी में ही हमारा जाना होता था। लेकिन साल-दो साल में एक बार ही जा पाने के कारण वहाँ रूकना भी एक महीने से ज्यादा समय के लिए होता था। महीने भर के इस समय में वहाँ आस-पास के समान उम्र के कई लोगों से दोस्ती होना भी स्वाभाविक था। बड़े होते-होते दायरा केवल आस-पास के बच्चों तक न रहकर पूरे शहर में बढ़ गया। कुछ दुकानदारों, ठेलेवालों, बगीचों के गार्ड आदि से भी एक अर्थ में दोस्ती ही हुई।


छत्तीसगढ़ से होने के कारण कुछ बडी उम्र के लोग मजाक में हमें नक्सली (माओवादियों का खुद को भारतीय क्रान्तिकारी दिखाने के लिए स्वयं से दिया गया नाम) बुलाते थे। छोटी उम्र में इसका अर्थ पता होना कठिन था। लेकिन किशोरावस्था तक ये चीजें कुछ-कुछ स्पष्ट हो गई थी। और ननिहाल में कुशलक्षेम के साथ-साथ अब लोग कौतुहलवश कई तरह के प्रश्न भी पूछने लगे थे, जैसे - तुमको नक्सलियों से डर नहीं लगता क्या, नक्सली कैसे दिखते हैं, उनके पास बडी बन्दुकें होती है क्या, वो तुमको कुछ करते नहीं क्या, इत्यादि।


समाचार पत्रों में माओवादी घटनाओं के कवरेज से उन्हें हिंसा की खबरें मिलती रहती थी, जिससे उनके मानस में छत्तीसगढ़ की वैसी ही छबि बन गई थी, जैसी शेष भारतवासियों के मन में 2019 के पहले कश्मीर को लेकर थी। ऐसी छबि जहाँ केवल खून-खराबा, चीख-पुकार के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं।


थोड़ा गहराई से विचार करें तो लगता है कि बस्तर या और अधिक विस्तार में कहें तो रामायण में उल्लेखित दण्डकवन का वह सुरम्य क्षेत्र, जहाँ श्रीराम नेनिसिचरहीन करौं महीकहकर धरती को आतंकियों से विहीन करने प्रतिज्ञा की थी, उस पावन भूमि के प्रति कैसी वीभत्स छबि देश में निर्मित हो गई है! चीन में आज की आतंकी तानाशाही की स्थापना करने वाले माओ को ही अपना आदर्श मानने वाले उसके इन आतंकी अनुयायियों ने कमोबेश वैसी ही स्थिति बस्तर की भी कर दी है; जहाँ न व्यक्ति, न उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति का कोई महत्व है। मुंह खोलने की सजा मौत है। हजारों लोगों ने इस अंधी सनक में अपनी जान गँवाई है।


निरीह जनजातीय समाज के मन में उनकी ही चुनी सरकार के प्रति भय और आतंक के भाव इस सीमा तक भर दिए गए हैं कि वे लोग खाकी वर्दी देखकर ऐसे छिप जाते हैं, मानो चंबल के डाकू आ गए हों। महानगरों में एयरकण्डीशण्ड कमरों में बैठे कुछ अप्रकट माओवादियों (या आम बोल-चाल के अर्बन नक्सलियों) ने लगातार इसे वंचितों का सरकार के प्रति विद्रोह बताने का दुष्चक्र चलाया है। और दुर्भाग्यवश हमारे अकादमिक संस्थान भी नक्सल आन्दोलन कहकर इसे वंचित भारतीयों की व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रतिक्तिया के रूप में ही पढ़ाते हैं। पर यह सच नहीं हैं।


वास्तव में यह माओवाद या कम्युनिस्ट आतंकवाद भारत के विरुद्ध एक बड़ा सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण है, ठीक वैसा ही आक्रमण जिसने प्राचीन चीन और उसकी पुरातन संस्कृति को नेस्तनाबूद कर वह भूमि लाल आतंकियों के हवाले कर दी। इस लेख में हम उन्हीं कुछ पहलुओं पर विचार करेंगे जिससे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि पौराणिक दण्डक वन में अभी चल रही माओवादी हिंसा कोई वहाँ के जनजातीय लोगों की चलाई हुई नहीं है, बल्कि उनपर थोपी हुई है।


क्या है माओवाद?


लेकिन इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, सरसरी तौर पर ही सही, पर यह जानना जरूरी है कि माओवाद क्या है? उसका लक्ष्य क्या है? उसके हथकण्डे क्या हैं? तो इस विषय पर कोई दो-मत नहीं है कि माओवाद के बीज मध्य उन्नीसवीं सदी के जर्मन विचारक कार्ल मार्क्स के कम्युनिज्म कहलाने वाले विचारों में ही निहित हैं। मार्क्स ने गरीबी खत्म करने का एक बेतुका-सा विचार प्रस्तुत किया था कि सभी अमीरों को खत्म कर दिया जाए, तो गरीबी भी स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। और-तो-ओर इससे भी ज्यादा बेतुका एक विचार मार्क्स ने और दिया, वह यह कि कि सभी गरीबों को अमीरों के खिलाफ सशस्त्र क्रान्ति करके उन्हें समाप्त करना होगा।


अब चूंकि यूरोप अपने इतिहास में सदा ही संघर्षरत रहा है, तो वहाँ के युद्धजीवी समाज में मार्क्स का यह विचार भी पहले-पहल काफी फैला। लेकिन इस विचार को लेकर यूरोप में हुई कई असफल क्रान्तियों के बाद अन्ततः रूस में हुई कथित क्रान्ति ने पूरी दुनिया को कम्युनिस्ट बनाने की एक नई सनक पैदा कर दी। इसी सनक पर सवार होकर कम्युनिस्टों ने कॉमिनण्टर्न (Commintern or Communist International) नाम का एक अन्तर्राष्ट्रीय संगठन भी बनाया। इनसे ही प्रभावित होकर चीन में माओत्से तुंग (Mao Zedong) ने पहले गोरिल्ला युद्ध और फिर प्रत्यक्ष युद्ध की सहायता से चीन पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।


माओ ने इसके लिए चीन के समाज में मौजूद तमाम विविधताओं का विश्लेषण कर उनमें भेद उपजाए और फिर उन भेदों को वर्ग-संघर्ष कहकर कथित कम्युनिस्ट क्रान्ति के माध्यम से सत्ता कब्जाने की योजना की। सत्ता कब्जाने के बाद उसे स्थिर रखने के लिए उसने चीन में लगभग एक दशक तक कल्चरल रिवॉल्यूशन के नाम पर लगभग साढ़े 6 करोड़ लोगों की हत्याएं करवाई।


इस दौरान बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ताओ समेत चीन की प्राचीन संस्कृति के सभी चिह्नों को समाप्त कर केवल एक माओ को ही सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कराया गया। यह कथित कल्चरल रिवॉल्यूशन 1930 के दशक में इटली के कम्युनिस्ट एण्टोनियो ग्राम्शी के कल्चरल आधिपत्य के सिद्धान्त से प्रेरित था। यही तरीका बाद में कम्बोडिया, विएतनाम, लाओस आदि देशों में भी अपनाया गया, और बाद में इनके जो विनाशकारी परिणाम मानवता ने भोगे, वे इतिहास में दर्ज हैं।


इस विचार की सबसे बडी समस्या यह है कि यह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ मानता है। इनके अनुसार कम्युनिज्म ही विश्व की समस्याओं का एकमात्र समाधान है, अतएव शेष सभी विचारों को समाप्त करना एक कॉमरेड (कम्युनिस्ट) का कर्त्तव्य है। भारत में खुद को नक्सलवादी कहलाने वाले माओवादी भी कुछ ऐसे ही विचारों के साथ काम कर रहे हैं। वे तो प्रत्यक्ष होकर कहते हैं, “China’s path is our path and China’s chairman is our chairman.” भारत में माओवादियों की केन्द्रीय समिति के एक दस्तावेज़ ‘Strategy and Tactics of The Indian Revolution’ के अनुसार,


“The Strategy and Tactics of the Indian Revolution should be formulated by creatively applying the universal truth of Marxism-Leninism Maoism to the concrete conditions prevailing in our country. This means that the Strategy and Tactics should be evolved by basing on an objective class analysis of the Indian society; the character of the Indian State; the Fundamental contradictions and the Principal contradiction; and by taking into account the specific characteristics, the special features as well as the peculiarities of the Indian situation.”


अर्थात्भारत में माओवादी क्रान्ति की रणनीति और तरीके मार्क्स-लेनिन-माओ के विचारों के सार्वभौमिक सत्य का उपयोग करते हुए तैयार किये जाने चाहिए। तात्पर्य यह है कि हमारी रणनीति और तौर-तरीके भारतीय समाज के हमारे वर्ग विश्लेषण, भारत सरकार की प्रवृत्ति, मौलिक और प्रधान विरोधाभासों के साथ-साथ भारत की वर्तमान परिस्थितियों की विशेषताओं, लक्षणों और असामान्यताओं के आधार पर विकसित किए जाने चाहिए।


क्या ये शब्द निरीह और आधुनिकता से कहीं दूर जीवन जी रहे जनजातीय समाज के हो सकते हैं? नहीं। ये शब्द तो माओ के Identity Politics के विचारों की जानबूझकर की गई एक जटिल व्याख्या है। माओ ने यह तरीका चीनी समाज में विघटन के लिए प्रयुक्त किया था। माओ की रणनीति का यह अंग था कि पहले समाज में विद्यमान रेखाओं को भली प्रकार से समझा जाए, उनका विश्लेषण किया जाए और फिर वर्ग-कलह से उन रेखाओं पर चौड़ी खाई पैदा कर कथित कम्युनिस्ट क्रान्ति के लिए ईंधन के रूप में उसी समाज से लड़ाके इकट्ठे किये जाए।


बस्तर में माओवादियों की गुरिल्ला आर्मी भी बिल्कुल इसी तर्ज पर काम करती है। आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालय औऱ महाविद्यालय उनके कैडर के स्रोत हैं। ये कैडर CPI (Maoist) के कहे अनुसार बस्तर, गढ़चिरौली समेत पूरे दण्डक वन में रह रहे जनजातीय लोगों को अपनी गुरिल्ला आर्मी में प्यादों के रूप में उपयोग में लाते हैं। स्वभाव से ही भोले हमारे जनजातीय समाज में विभ्रम पैदा कर उन्हें कथित युद्ध में किसी तरह सम्मिलित करना इन माओवादियों का एक प्रमुख हथकण्डा है। इससे उन्हें बस्तर को अपनी सैन्य इकाई PLGA (पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी) का एक स्थायी अड्डा बनाने में मदद मिलेगी। बस्तर की जनजातियों से इनका केवल इतना ही वास्ता है। औऱ तमाम बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा माओवादियों की छबि जनजातियों के रक्षक के रूप में बनाने के जो प्रयास किए जा रहे हैं, वे सब केवल झूठ है।


उनका यह कहना कि माओवादी तो भारत सरकार से जनजातियों की रक्षा के लिए आए है, केवल एक प्रोपेगेंडा है। यदि विश्वास नहीं हो, तो आप ऐसे किसी बुद्धिजीवी से पूछिए कि माओवादियों के आने से पहले भला जनजातियों की कौन-सी समस्या ऐसी थी, जो अंग्रेजों ने नहीं बल्कि भारतीयों ने पैदा की हो, तो वे अवश्य निरुत्तर हो जाएंगे। और मेरी ये सब बातें कि माओवादी हमारे जनजातीय समाज का उपयोग केवल ढाल के रूप में कर रहे हैं, कोई हवा-हवाई बातें नहीं है। इनकी पुष्टि CPI (Maoist) के ही दस्तावेज़ करते हैं। अपनी इस बात के समर्थन में मैं माओवादियों के ऊपर्युक्त दस्तावेज़ ‘Strategy and Tactics of The Indian Revolution’ का पुनः उल्लेख करूंगा। इस दस्तावेज़ में उन्होंने माओ के एक कथन को उद्धृत किया है,


“The people are the eyes and ears of the army, they feed and keep our soldiers...the people are the water and our army the fish.”

अर्थात्, “लोग हमारी आर्मी की आँखें और कान हैं, वे हमारे लड़ाकों को पालते-पोषते हैं।ये लोग पानी हैं औऱ हमारी सेना उसमें रहने वाली मछली।


तात्पर्य यह है कि समाज में वर्ग कलह उपजाकर जनमानस के एक धड़े को अपनी ओर इस प्रकार किया जाए कि वे इन माओवादियों की सेना का पालन-पोषण करें, यही उनका दूसरा प्रमुख हथकण्डा है। और इस प्रकार हमें यह अवश्य ही स्पष्ट हो जाता है कि किसी भी कोण से माओवाद न तो भारतीय भूमि पर उपजा कोई विचार है, और न ही किसी कपोल-कल्पित वंचित-शोषित समूह का कोई प्रतिरोध। यह तो पूरी दुनिया को कम्युनिस्ट बनाने की एक अति भयानक सनक द्वारा छेड़ा गया सुनियोजित युद्ध है, जिसकी मुख्य प्रेरणा आज चीन का लाल आतंक है। पर अभी भी एक प्रश्न अनुत्तरित है कि माना यह भारत के विरुद्ध एक सशस्त्र युद्ध है, लेकिन यह सांस्कृतिक आक्रमण कैसे कहा जा सकता है? तो आइये अब हम इस प्रश्न का उत्तर जानने का प्रयास करते हैं।


क्यों है यह एक सांस्कृतिक आक्रमण?


भारत एक अति प्राचीन संस्कृति का देश है। लगभग पांच सौ वर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों के प्रभाव में रहते हुए भी इस देश ने सांस्कृतिक रूप से उन्नति ही की और इसी संस्कृति से उपजे स्वत्व ने इसे स्वाधीनता के लिए संगठित किया। माओवादी भी इसे अच्छी तरह समझते हैं। और इसलिए वे इटली के कम्युनिस्ट विचारक एण्टोनियो ग्राम्शी (1891-1937) के उस कथन का शब्दशः अनुकरण करते हैं, जिसमें ग्राम्शी ने किसी देश के पतन और वहां कम्युनिज्म की स्थापना के लिए विश्वविद्यालयों और अन्य शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से Long March की अवधारणा रखी थी। ग्राम्शी लिखता है,


“The intellectuals must have to begin a long march through the educational and cultural institutions of the nation in order to create a new Soviet man before there could be a successful political revolution.”


अर्थात्बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे किसी राष्ट्र के शैक्षिक एवं सांस्कृतिक संस्थानों के माध्यम से एक लम्बा वैचारिक युद्ध छेड़े, जिससे वहाँ कम्युनिस्ट राजनीतिक क्रान्ति के पहले लोगों को कम्युनिस्ट बनाया जा सके।


अब हम ग्राम्शी के लगभग 80 साल बाद का, बिल्कुल इसी तरह का, माओवादियों का एक कथन देखते हैं। उपर्युक्त दस्तावेज़ ‘Strategy and Tactics of The Indian Revolution’ में ही CPI (Maoist) की केन्द्रीय समिति लिखती है,


“It is impossible to arm the people ideologically, make them conscious and organise them for the people's war without the widest propaganda of people's democratic culture based on Maoism.


अर्थात्माओवाद पर आधारित जनवादी संस्कृति का प्रोपेगेंडा फैलाए बिना लोगों को वैचारिक रूप से युद्ध से जोड़ना, उन्हें इसके लिए तैयार करना असंभव है।


ग्राम्शी और CPI (Maoist) के इन कथनों को पढ़ने के बाद हम यदि जेएनयू, जाधवपुर विश्वविद्यालय जैसे शिक्षा संस्थानों में बैठे कथित बुद्धिजीवियों द्वारा चलाए जा रहे भारत-विरोधी विमर्शों को पढ़ें, तो हमें सांस्कृतिक मोर्चे पर किए जा रहे इस आक्रमण का अंदाजा होगा। उदाहरण के लिए, बस्तर की जनजातियों में यह विमर्श स्थापित किया जा रहा है कि रावण जनजातियों का देवता और महिषासुर उनका राजा था। ब्राह्मणवादी आर्यों ने उनकी हत्या की है। और तो और वहाँ नाम सेरामशब्द हटाकररावणभी करवाया जा रहा है। जैसे चैतराम को चैतरावण करना आदि। जेएनयू में 60-70 के दशक में शुरु किया गया महिषासुर शहादत दिवस और रावण-दहन पर प्रतिबंध का आन्दोलन अब बस्तर पहुँच चुका है। ये बातें हमारे सन्देह को और अधिक पुष्ट करती हैं।


इन सबके अलावा इस वर्ष के प्रारम्भ में कर्णाटक में 4 प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण समाप्त करने का विरोध हो या फिर 2019 में शाहीनबाग आन्दोलन का समर्थन; खालिस्तानी विचारों का समर्थन हो या फिर भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों में अलगाववादियों का समर्थन; माओवादियों के सभी कृत्य इसी ओऱ इंगित कर रहे हैं कि ये सभी एक बड़ी योजना के अंग है। और-तो-और भारत में आज की राजनीतिक उठापटक और कांग्रेस नेताओं के वक्तव्यों में भी इस माओवादी भाषा का मिलना, संकट की भयावहता को दर्शाता है। और चूंकि इन सभी योजनाओं के सूत्र विभिन्न माओवादी दस्तावेज़ो में मिल रहे हैं, तो यह कहना भी कोई गलत नहीं होगा कि माओवाद भारत की राष्ट्रीय संकल्पना के ऊपर किया जा रहा अबतक का सबसे सुसंगठित, सुनियोजित और सुसज्ज आक्रमण है।


इससे एक बात और तय हो जाती है कि यह किसानों या पिछड़ों का प्रतिरोध कतई नहीं है, बल्कि माओवाद द्वारा छेड़ा गया एक मायावी युद्ध है, जिसने पूरे देश में भ्रम का कोहरा-सा फैला दिया है। दुर्भाग्यवश, इस बार भी जयचन्दों ने गोरी का साथ चुना है। अतएव हम पृथ्वीराज की गलती से सबक ले माओवाद का नाम धरे कम्युनिस्ट आतंकवादियों का समूल नाश करने को तत्पर हो, यही समय की मांग है।


लेख


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ऐश्वर्य पुरोहित

यंगइंकर