यूरोपीय ईसाइयों ने विश्व के जिस-जिस हिस्से में अपने पैर रखें, उन स्थानों में क़त्लेआम मचाया। अमेरिका में हुआ क्रूसेड हो, या अफ्रीका में यूरोपीय ईसाइयों का अत्याचार, दक्षिण पूर्व एशियाई देश हों, या भारतीय उपमहाद्वीप, इन सभी स्थानों में भी यूरोपीय ईसाइयों ने व्यापक स्तर पर नरसंहार किया।
विश्व के अनेक क्षेत्रों में उन्होंने हिंसा के माध्यम से क्षेत्र जीते, एवं कई देशों को गुलाम बनाया। लेकिन भारत में उन्हें उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा। प्रमुख रूप से जनजातीय क्षेत्रों में वनवासी योद्धाओं ने जिस प्रकार से यूरोपीय ईसाइयों को धूल चटाई।
जनजातीय क्रांतिकारियों से भयभीत होकर यूरोपीय ईसाइयों ने रणनीति बदली और तलवार के स्थान पर सेवा, कलम और बाइबिल का सहारा लिया।
शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सेवा के नाम पर जनजातियों का कन्वर्जन शुरू किया गया। कलम के माध्यम से उनके इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया और उन्हें बाइबिल पकड़ा कर सनातनी जड़ों से दूर करने की कोशिश की गई।
ऐसी चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों से जनजातीय क्रांतिकारियों ने मुखर आवाज़ उठाई। उत्तर पूर्व में रानी गाइदिन्ल्यू और यू तिरोत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारी और वीरांगनाओं ने यूरोपीय ईसाइयों का विरोध किया। वहीं मध्यभारत में तिलका मांझी, बिरसा मुंडा, वीर नारायण सिंह, गुंडाधुर, सिद्धू कान्हो जैसे वीर योद्धाओं ने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत भूमि की रक्षा की।
यही कारण है कि यूरोपीय शक्तियों ने जनजातीय समाज को सनातन परंपराओं से काटने का प्रयास किया, ताकि भारत के सामाजिक ढांचे में फूट डाली जा सके। लेकिन सच्चाई यही है कि जनजातीय समाज सनातन संस्कृति का एक अभिन्न अंग है।
जनजातीय संस्कृति वास्तव में सनातन संस्कृति ही है, या यदि हम इसे सही अर्थों में कहे तो सनातन संस्कृति का आधार ही जनजातीय संस्कृति है। सहस्राब्दियों से जनजाति संस्कृति सनातन के मूल के रूप में स्थापित रही। लेकिन विदेशी आक्रांताओं और साम्राज्यवादी शक्तियों ने भारत में आक्रमण करने के बाद भारत के मूल आधार स्तंभ को भी खंडित करने का प्रयास किया।
इन शक्तियों ने जनजाति समाज को सर्व सनातन समाज से तोड़ने के लिए विभिन्न प्रकार के षड्यंत्र रचे। ऐसे षड्यंत्रों का दुष्परिणाम कुछ ऐसा हुआ कि जब स्वाधीनता से पूर्व भारत के संविधान निर्माण के लिए संविधान सभा बैठी तो उसमें भी विभाजनकारी शक्तियों के एजेंट बैठे हुए थे।
इस समूह ने संविधान में कुछ ऐसे प्रावधान शामिल करवा जिसके कारण जनजाति समाज को तोड़ने की आधारशिला रखी गई। स्वतंत्रता के पश्चात इन विभाजनकारी समूहों ने जनजाति समाज को पूरी तरह से भेड़ियों के समक्ष छोड़ दिया।
जनजाति समाज की इन परिस्थितियों को केंद्रीय मंत्री एवं जनजाति हितों की रक्षा करने वाले बाबा कार्तिक उरांव ने समझा। बाबा कार्तिक उरांव ने समाज के साथ हो रहे अन्याय को लेकर सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष किया और समाज की समस्याओं के समाधान को लेकर प्रयास किए।
बाबा कार्तिक उरांव ने, जनजाति समाज के साथ हो रहे अन्याय को लेकर एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक उन्होंने दिया 20 वर्ष की काली रात। इस पुस्तक में उन्होंने जनजाति समाज के समक्ष आने वाली चुनौतियों और समस्याओं पर विस्तृत रूप से जानकारी देश के सामने रखी।
उन्होंने बताया कि कैसे अवैध रूप से कन्वर्जन करने वाली शक्तियां जनजाति समाज को मिलने वाली सुविधाओं पर कब्जा जमा रही है। बाबा कार्तिक उरांव ने जनजाति समाज के साथ हो रहे इस अन्याय को रोकने के लिए देश के सैकड़ो सांसदों का समर्थन भी हासिल किया लेकिन बावजूद इसके तत्कालीन केंद्र सरकार ने विदेशी प्रभाव एवं दबाव में आकर जनजाति समाज के विरुद्ध हो रहे षड्यंत्रों को रोकने से इंकार कर दिया।
20 वर्ष की काली रात अब 70 वर्ष से भी अधिक का समय पर कर चुकी है
स्वाधीनता के पूर्व ईसाई मिशनरियों एवं इस्लामिक समूहों द्वारा जनजाति नागरिकों के अवैध कन्वर्जन की जो गतिविधियां शुरू हुई थी, वो अभी भी बदस्तूर जारी है। भारत में अवैध कन्वर्जन कि यदि बात करें तो भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में आज पूरी तरह से स्थितियां बिगड़ चुकी हैं।
उत्तर पूर्व के कई राज्य जहां जनजाति समाज सनातन संस्कृति से जुड़ा हुआ था वहां अब ईसाई बहुसंख्यक हो चुके हैं। डेमोग्राफी के इस परिवर्तन के कारण न सिर्फ भारतीय सनातन परंपराओं का नुकसान हुआ बल्कि जो सनातन संस्कृति को मानते हैं उनके जीवन पर भी संकट आ गया।
इसके सबसे उदाहरण में से एक है उत्तर पूर्वी राज्य की ब्रू जनजाति। इस जनजाति ने अपनी परंपरा और संस्कृति को छोड़कर ईसाई मत नहीं अपनाया, तो मिज़ोरम के ईसाई समूह ने ना सिर्फ इन्हें अपनी मातृभूमि से भागने के लिए मजबूर किया, बल्कि ईसाई समूह ने इनके मताधिकार को भी खत्म करने की मांग कर डाली।
अब कुछ ऐसी ही विषम परिस्थितियां छत्तीसगढ़ में भी निर्मित हो रही है। छत्तीसगढ़ में उत्तर से लेकर दक्षिण तक प्रत्येक क्षेत्र में अवैध कन्वर्जन की गतिविधियां देखी जा सकती है। इन गतिविधियों के माध्यम से मुख्य रूप से जनजाति समाज को निशाना बनाया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ में व्यापक स्तर पर अवैध कन्वर्जन के मामले सामने आए हैं। इन अवैध कन्वर्जन की घटनाओं के कारण प्रदेश के जनजाति बाहुल्य क्षेत्र में सामाजिक वैमनस्यता की स्थिति बन रही है।
बस्तर, जो कि शांति का द्वीप कहा जाता था वहां अवैध मत्तांतरण के कारण हिंसा हो रही है। ऐसी ही एक घटना जनवरी माह में नारायणपुर जिले में देखी गई, जहां कन्वर्ट हो चुके समूह ने जनजाति ग्रामीणों पर हिंसक हमले किए।
इस घटना में षड्यंत्रकारी शक्तियों द्वारा बाहरी सहयोग, राजनीतिक दबाव एवं प्रभाव का उपयोग कर जनजाति समाज को भी बदनाम करने की कोशिश की गई।
देश के विभिन्न हिस्सों में जनजातीय समाज की आस्थाओं को अवैध रूप से कन्वर्ट हुए लोगों के द्वारा बार-बार ठेस पहुँचाई जा रही है। यदि हम छत्तीसगढ़ की बात करें तो यहां मुख्य रूप से जनजातीय समाज के द्वारा बूढ़ादेव, महादेव, शीतला माता, कंकालिन माता, अंगा देव समेत अनेक देवी-देवताओं की उपासना की जाती है। वहीं दंतेश्वरी देवी को बस्तर की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजा जाता है।
ऐसे में जो जनजातीय समाज देवी-देवताओं से जुड़ा हुआ है, उन्हें दिग्भ्रमित कर पहले सनातनी जड़ों से दूर करने की कोशिश होती है, और इसके पश्चात उन्हें अवैध रूप से कन्वर्ट कराने का प्रयास किया जाता है।
जनजातीय समाज में भूमि को देवी के रूप में पूजा जाता है, और जहां जनजातीय समूह अपने परिजनों को मृत्यु के बाद दफन करते हैं, वो स्थली भी उनके लिए पवित्र मानी जाती है। ऐसे में अवैध रूप स कन्वर्टेड समूह इन स्थानों पर विदेशी धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करने लगा है, जिसके कारण बस्तर के कई गांवों में आपसी संघर्ष की स्थिति भी देखने को मिली है।
ऐसी घटनाओं से जनजाति समाज के भीतर न सिर्फ आक्रोश है बल्कि शासन-प्रशासन के प्रति निराशा भी है। यही कारण है कि अब जनजाति समाज एकमत होकर डीलिस्टिंग की मांग कर रहा है।
डीलिस्टिंग का अर्थ है, जो जनजाति व्यक्ति अपनी सनातन परंपराओं को छोड़कर अन्य विदेशी धर्म अपना चुका है उसे अनुसूचित जनजाति की श्रेणी से बाहर किया जाए। ऐसे लोगों को अनुसूचित जनजाति समाज को मिलने वाले किसी भी लाभ से बाहर किया जाए।
दरअसल जिस तरह से संविधान के अनुच्छेद 341 के अनुसार यदि कोई अनुसूचित जाति का व्यक्ति भारतीय मूल के धर्म अर्थात हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख के अलावा यदि कोई बाहरी धर्म अर्थात ईसाई, इस्लाम, पारसी या अन्य धर्म अपनाता है तो उसे अनुसूचित जाति की श्रेणी से बाहर कर दिया जाएगा।
किंतु जनजाति समाज से सम्बंधित अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए ऐसे प्रावधान नहीं जोड़े गए हैं। यही कारण है कि अब देश के विभिन्न हिस्सों में डिलिस्टिंग की मांग को लेकर विशाल रैलियों का आयोजन किया जा चुका है।
गुवाहाटी से लेकर रायपुर और अहमदाबाद एवं उदयपुर से लेकर भोपाल तक हुए इन रैलियों में हजारों-हजारों की संख्या में सर्व सनातन समाज के लोग सम्मिलित हुए, और सभी ने एक आवाज़ में डिलिस्टिंग की मांग की है। समाज का कहना है कि यह विषय केवल जनजातीय समाज का नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय सनातन समाज का है।
सभी का यही कहना है कि जनजातीय समाज के साथ हो रहे षड्यंत्र एवं उनके समक्ष आ रही समस्याओं का एक ही समाधान है, और वो है डिलिस्टिंग। समाज की यही मांग है कि सरकार संविधान के अनुच्छेद 342 में आवश्यक संशोधन कर जनजातीय समाज को इन इस अन्याय से मुक्ति दिलाए।