अफगानिस्‍तान में हिन्‍दू आबादी खत्‍म : हमारे लिए क्या सबक ?

पत्रकार पूनम कौशल की एक रिपोर्ट अफगानिस्‍तान के संदर्भ में आई है। पत्रकार पूनम ने सिलसिलेवार ढंग से बताया है कि यहां से हिन्‍दू समाप्‍त हो गया है, सिख भी नाम के बचे हैं।

The Narrative World    10-Jan-2024
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अस्‍तित्‍व का संघर्ष हर जीव के लिए सदैव से सदियों से रहता आया है। जो जीव अपने अस्‍तित्‍व को बनाए रखने के लिए संघर्ष नहीं करता, वह एक समय में बाद विलुप्‍त हो जाता है। मनुष्‍य जन संस्‍कृतियों का भी ऐसा ही हिसाब-किताब है। हर सभ्‍यता और संस्‍कृति की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं।


समाज शास्‍त्रीय भाषा में कहें तो यह कुछ दिन या कुछ वर्षों में विकसित नहीं होतीं, इसके लिए कई सदियां लगती हैं। किंतु जब इसके विनष्‍टीकरण के लिए कोई आतुर हो जाए और जो संबंधित संस्‍कृति के निर्वाहकर्ता हैं, वे यदि सजग, सक्रिय और अपनी सुरक्षा के प्रति आक्रामक नहीं रहते तो आनेवाले समय में वह संस्‍कृति अपने मूल स्‍थान से भी गायब हो जाती है।


दुनिया भर में सनातन संस्‍कृति के मिलते अवशेष भी कुछ यही गाथा कह रहे हैं। क्षत्रीय राजाओं की पारस्परिक फूट तथा शत्रुता के परिणाम और अपने अस्‍तित्‍व बनाए रखते रहने की जीजीविषा का समय सापेक्ष ह्रास का यह परिणाम है कि हिन्‍दू पूरी दुनिया से सिमटता चला गया। हिन्‍दू से तात्‍पर्य यहां सनातन धर्म को माननेवालों से समझिए, जोकि प्रकृति उपासक भी है, देव मूर्ति-कर्मकांडी और निराकार को माननेवाले भी हैं।


पत्रकार पूनम कौशल की एक रिपोर्ट अफगानिस्‍तान के संदर्भ में आई है। पत्रकार पूनम ने सिलसिलेवार ढंग से बताया है कि यहां से हिन्‍दू समाप्‍त हो गया है, सिख भी नाम के बचे हैं।


कुल तथ्‍य यह है कि इस्‍लाम की जिहादी आंधी ने सब नष्‍ट कर दिया। प्राचीन संस्‍कृति के ऐसे अद्भुत अवशेष तक मिला दिए जोकि सिर्फ हिन्‍दू या सनातन संस्‍कृति की ही नहीं बल्‍कि मानव सभ्‍यता के विकास में हमारी मनुष्‍यगत विशेषताओं की थाती थी। अत: ऐसा बहुत कुछ है जो यहां खण्‍डहरों में तब्‍दील हो चुका है।


कहने को अफ़्गान शब्द को संस्कृत अवगान से निकला हुआ माना जाता है। अफगानिस्‍तान जिसका कि प्राचीन नाम गन्धार प्रदेश भी है और जिसका जिक्र भारत के प्राचीन ग्रन्थ महाभारत में राजा सकुनी के राज्‍य के रूप में आया है।


पूर्व अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से समय-समय पर पुकारा जाता भी रहा और जहां कभी गांधार, कम्बोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु आदि संस्‍कृत भारतनिष्‍ट नामक्षेत्र थे। आज आपको वह दिखाई नहीं देते हैं। एक नकारात्‍मक सोच ने उस पूरी संमृद्ध परंपरा और संस्‍कृति को पूरी तरह से नष्‍ट कर दिया।

पूनम कौशल की यह रिपोर्ट इतिहास से कुछ सबक लेने का संकेत भी देती है। जहां आप अभी हो, वहां सम्‍हलने का अवसर भी दे रही है। यह चेतावनी है कि अभी भी नहीं जागे तो आनेवाले वक्‍त में यहां भी आपके साथ वही होनेवाला है जोकि कभी अफगानिस्‍तान समेत दुनिया के तमाम अहिन्‍दू देशों में हुआ है और हो रहा है। इस रिपोर्ट में एक जगह जिक्र आया है, मूर्तियों का। आज देवताओं की मूर्ति किन हालातों में हैं। यह देखकर भारत का भक्‍तिकाल का समय याद आ जाता है। जब संत तुलसी को ''कवितावली'' के माध्‍यम से कहना पड़ गया था -


धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।

काहू की बेटी सों, बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।

माँगि कै खैबो, मसीत को सोईबो, लैबो को, एकु न दैबे को दोऊ॥


अर्थात् - कोई मुझे कुछ भी कहे, मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता, चाहे कोई मुझे धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसी की बेटी से तो बेटे का ब्याह करना नहीं है, न मैं किसी से संपर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीराम का प्रसिद्ध ग़ुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँग के खाना और मसजिद (देवालय) में सोना है, न किसी से एक लेना है, न दो देना है। यही हालत इन दिनों अफगानिस्‍तान में उस शेष बचे इकलौते मंदिर में देव आराधना में रत हिन्‍दुओं की देखी जा सकती है। जिन्‍हें अपने भगवान से मतलब है और किसी दुनियादारी से कोई लेनादेना नहीं


पूनम कौशल ने अपनी स्‍टोरी में आखों देखे हाल में यहां का वर्णन कुछ इस तरह से किया है; काबुल के कोह--आसामाई यानी आसा माई पर्वत की तलहटी में बना आसामाई मंदिर। चारों तरफ सफेद रंग की मजबूत दीवारें, लोहे का बड़ा सा दरवाजा,...आशा यानी उम्मीद। हिंदू देवी आशा के नाम पर बने इस मंदिर को उम्मीद का मंदिर भी कहा जाता है। भारतीय मंदिरों की तरह न गोल गुंबदनुमा मंडप, न दरवाजे पर मंदिर का नाम। एक आम घर जैसा दिखता है। भीतर बड़ा हॉल है, जहां किसी गुरुद्वारे की तरह चौकी रखी है। उसके ऊपर हिंदू देवताओं की तस्वीरें रखी हैं। दीवार पर हनुमान और भगवान शिव की टाइलों से बनी पेटिंग। श्रीकृष्ण के अलग-अलग रूप में कई तस्वीरें और एक छोटा शिवलिंग। मैं इधर-उधर नजर घुमाती हूं, लेकिन कोई मूर्ति नजर नहीं आती। पहली मंजिल पर सदियों पुरानी शालिग्राम ठाकुर जी की एक प्रतिमा है...यह इकलौती प्रतिमा है जो मंदिर में मौजूद है। बाकी मूर्तियां तहखाने में छुपा दी गई हैं।


मैं जब मंदिर पहुंची, तो यहां कुल पांच लोग थे।...तालिबान ने इस मंदिर को सुरक्षा नहीं दी है। 30 साल के राम सिंह 5 साल से इस मंदिर के अकेले पुजारी हैं। स्लेटी रंग का पठानी सूट और सिर पर लाल रंग का रूमाल बांधे राम सिंह के चेहरे पर हल्की दाढ़ी है और हाथ में कलावा बांधा हुआ है। उनकी हिंदू पहचान पर इस्लाम का असर साफ दिखता है। राम सिंह को हिंदी या संस्कृत पढ़नी नहीं आती। उनके पास पूजा, भजन और कीर्तन की जो किताबें हैं, वो उर्दू में हैं। ये किताबें पाकिस्तान के पेशावर से मंगाई गई हैं। राम सिंह से मैं पूछती हूं- इस मंदिर में कोई मूर्ति नजर नहीं आती? राम सिंह उदास मन से बताते हैं- पहले यहां कई मूर्तियां थीं, लेकिन तालिबान के आने बाद सभी मूर्तियां तहखाने में रख दी गईं। आगे हालात ठीक होंगे, तो उन्हें फिर से बाहर निकाला जाएगा।


मैं तहखाना देखना चाहती हूं, लेकिन वे मना कर देते हैं। मंदिर में एक अखंड ज्योति जल रही है। मुझे बताया गया कि आठवीं सदी में हिंदू शाही शासन से लेकर मौजूदा तालिबान तक, कई उतार-चढ़ाव और सत्ता परिवर्तन के दौर से गुजरने के बावजूद यह कभी बुझी नहीं। यह ज्योति करीब 2500 सालों से अनवरत जल रही है। यहां आने वाले श्रद्धालु इसके लिए तेल लेकर आते हैं।एक जमाना था जब यहां अच्छी-खासी संगत होती थी। लाउडस्पीकर पर आरती होती थी, लेकिन अब लोग ही नहीं बचे तो स्पीकर पर कौन आरती करेगा, ऊपर से सुरक्षा का डर। मंगलवार और शुक्रवार को विशेष पूजा होती है, लंगर लगता है, लेकिन प्रसाद खाने के लिए लोग ही नहीं होते, फिर भी परंपरा निभाई जाती है।


राम सिंह बताते हैं, ‘पहले यहां अच्छी-खासी संख्या में हिंदू थे। पांच-सात हजार हिंदू तो अकेले काबुल में थे, लेकिन तालिबान के पहले शासन में बड़े लेवल पर हिंदू पलायन कर गए। जो गिने-चुने परिवार बचे, उन्होंने 2021 में तालिबान के दोबारा लौटने के बाद जर्मनी, कनाडा और भारत जैसे देशों में पलायन कर लिया। फिलहाल अफगानिस्तान में 20 हिंदू बचे हैं, पर ये भी स्थायी नहीं हैं। पहले आसामाई मंदिर में बड़ा शिवलिंग था, लेकिन अब उसे तहखाने में रख दिया गया है। उसकी जगह प्रतीकात्मक रूप से छोटा शिवलिंग रखा गया है।


मैं जिस कार से यहां आई थी, वो 80 साल के आगेराम चोपड़ा की है। उनकी यहां दवा की दुकान है, जिसे मुस्लिम पार्टनर संभालते हैं। वे दिल्ली में रहते हैं और उनके बच्चे लंदन में। कार में पांच लोग हैं। सभी हिंदू। मैंने बुर्का पहना है, बाकी लोग पठानी सूट में हैं। कार में लोकगीत बज रहा है, जो कभी यहां के हिंदू गाया करते थे। अब ये बस कैसेट में सिमट कर रह गया है। कार में एक तस्बीह लटक रही है, जिस परमाशा अल्लाह लिखा है।


पूनम कौशल आगे अपनी इस स्‍टोरी में एक दरगाह का जिक्र करती हैं जोकि रतन नाथ की है। वे अफगानिस्तान और पाकिस्तान में नाथ संप्रदाय की नींव रखने वाले गुरु गोरखनाथ के अनुयायी थे। यहां पुराने बाजार में रतन नाथ का सदियों पुराना मंदिर है। इसे यहां दरगाह कहा जाता है। इन्‍हें यहां एक पुरोहित, दो सेवादार मिलते हैं। मुख्य हॉल में कोई गर्भगृह नहीं है। दीवारों पर श्रीकृष्ण, शिव और विष्णु की तस्वीरें लगी हैं। गीता, रामायण और महाभारत की किताबें रखी हैं। यह दरगाह, पीर मंदिर गरदेज से लाई गई गणेश जी की मूर्ति के लिए भी चर्चित है।


पांचवीं सदी की ये मूर्ति इस मंदिर का अभिन्न अंग रही है। दो साल पहले तक इसे देखा जा सकता था, लेकिन अब दर्शन मुमकिन नहीं। आसामाई मंदिर की तरह ही यहां भी मूर्तियां तहखाने में रख दी गईं हैं। काबुल में जितने भी हिंदुओं से इनकी बात हुई, कोई भी यहां के हालात पर खुलकर बोलने को तैयार नहीं था।


काबुल के मुख्य इलाके में इल्हाम फिरदौस मेडिकल मार्केट को इंडिया बाजार भी कहा जाता है। ये अफगानिस्तान का सबसे बड़ा मेडिकल मार्केट है। फिरदौस मेडिकल मार्केट में फिलहाल हिंदू मालिकों की 15 दुकानें ही बची हैं। ज्यादातर कारोबारी मुस्लिम पार्टनर्स के भरोसे दुकान छोड़कर चले गए हैं।...मैं दुकान में बैठे एक बुजुर्ग से पूछती हूं कि क्या आपके पोते-पोतियां अफगानिस्तान लौटेंगे? वे गहरी सांस लेकर कहते हैं...शायद ही वे यहां वापस आएं। हमने पीढ़ियों से इस दुकान को संभाला है, पर अब लगता है कि इसे बेचना पड़ेगा।


वास्‍तव में आखों देखे हाल से आप यहां समझ सकते हैं कि कभी अफगान क्षेत्र हिन्‍दू बहुल हुआ करता था, जब सिख संप्रदाय की नींव पड़ी तो गुरुग्रंथ साहब के शिष्‍यों की जनसंख्‍या भी बहुतायत में यहां दिखाई दिया करती थी, लेकिन आज बाजार सूने हैं। हिन्‍दू और सिखों से खाली अफगान में इस वक्‍त इस्‍लाम का परचम फहरा रहा है। जिसमें कुरान-हदीस आधारित शरीया के कानून हैं। महिलाएं इंसान नहीं समझी जातीं! वह एक तरह से गुलाम हैं। क्या कोई यह कल्पना भी कर सकता है कि कोई सरकार महिलाओं को यौन हिंसा से बचाने के लिए हिंसा करने वालों के स्थान पर पीड़ितों को जेल में भेज दे? किसी भी देश में महिलाओं को यौनिक अत्‍याचार से बचाने के लिए इस प्रकार का लिया गया यह अकेला निर्णय है। जिसमें जो पीड़ित है, उसे जेल में रखा जा रहा है। तालीबानी शासन का यही निर्णय अपने आप में यह बताने के लिए पर्याप्‍त है कि यहां इस्‍लाम के अतिरिक्‍त दूसरे मत, पंथ, धर्म को छोड़ि‍ए, खुद इस्‍लाम को माननेवाली महिलाएं तक बदतर स्‍थ‍िति में जीवन-यापनकर रही हैं।


अफगानिस्‍तान की तरह पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश में हिन्‍दुओं की स्‍थ‍िति किसी से छिपी नहीं है। अन्‍य इस्‍लामिक देशों में भी हिन्‍दू खुलकर अपने देव की आराधना नहीं कर सकते वहां हिन्‍दू एवं अन्‍य अल्‍पसंख्‍या में रह रहे जन विकास के लिए मानवीय और योग्‍यता के आधार पर समानता के अवसर चाहते हैं, लेकिन जहां तक भारत की बात है, कहने को यहां हिन्‍दू बहुसंख्‍यक है। संविधान की नजर में सभी के समान मौलिक अधिकार हैं, आर्टिकल 14 से 27 तक समानता के सभी बराबर के अधिकारों के बारे में संविधान विस्‍तार से बतला रहा है। किसी के अल्पसंख्यक होने पर न तो उसे सहूलियत दिए जाने का इसमें कोई विधान है और न ही बहुसंख्यक होने पर उसके अधिकारों में कटौती की बात कही गई है। लेकिन फिर भी 23 अक्टूबर 1993 को एक अधिसूचना जारी कर राष्ट्रीय स्तर पर आबादी के आधार पर कुछ वर्ग अल्पसंख्यक घोषित किए जाते हैं। पर यहां भी अल्‍पसंख्‍यक की कोई स्‍पष्‍ट परिभाषा नहीं की जाती जिसके कि दुष्‍परिणाम आज हमारे सामने हैं।


अब सिर्फ मुस्लिम ईसाई सिख बौद्ध और पारसी देश में अल्‍पसंख्‍यक नहीं है। भारत के कई राज्‍यों में हिंदू भी अल्पसंख्यक हैं? सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में मांग की गई है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून 1992 की धारा 2 (सी) को रद किया जाए क्‍योंकि समय की आगे बढ़ती गति के बीच कई राज्यों में परिभाषित अल्पसंख्यक अब बहुसंख्यक हो चुके हैं और तब के बहुसंख्यक अल्पसंख्यक में तब्दील हो चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई यह याचिका बता रही है देश के नौ राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, लेकिन उन्हें इसका (अल्पसंख्यक होने का) लाभ नहीं मिलता, क्‍योंकि संपूर्ण देश की जनसंख्‍या में वह बहुसंख्‍यक है। यहां लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर राज्यों का जिक्र किया जा सकता है, जहां पर हिंदू अल्पसंख्यक हैं। यदि संपूर्ण देश में जिले देखें जाएं तो इनकी संख्‍या 200 तक पहुंच चुकी है, जहां हिन्‍दू अब अल्‍पसंख्‍यक हो चुका है।


पहले अल्‍पसंख्‍यक आयोग बनाकर गलती की गई, फिर 2006 में तत्‍कालीन मनमोहन सरकार ने अलग से अल्‍पसंख्‍यक कल्‍याण मंत्रालय बनाकर दूसरी बड़ी गलती की है जब देश में मानव अधिकार संरक्षण आयोग, महिला आयोग, बाल अधिकार संरक्षण आयोग, समाजिक न्‍याय विभाग जैसी विधि आधारित न्‍याय दिलाने के लिए तमाम संविधानिक संस्‍थाएं देश और राज्‍यों में स्वतंत्र रूप से मौजूद हैं तब फिर क्‍यों अल्‍पसंख्‍यकों के नाम पर आयोग बनाया गया ? निश्‍चित ही यह समझ के परे है। शायद भारत दुनिया का वह इकलौता देश होगा जहां पर बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज अपने लिए कानून के सहारे न्‍याय चाहता है। वह आज मांग करता दिखता है कि जिन 200 जिलों में वह अल्‍पसंख्‍यक हो चुका है, उन जिलों में अल्‍पसंख्‍यकों के नाम पर जो सुविधाएं दी जाती हैं, उनका लाभ उसे मिले न कि उन्‍हें जोकि उस जिले में पहले से ही बहुसंख्‍यक हैं


जिन जिलों में हिन्‍दू अल्‍पसंख्‍यक हो गया है, वहां उसकी हालत पर भी गौर कर सकते हैं! इन जिलों में से अधिकांश में जो सबसे ज्‍यादा खतरा आज सामने आ रहा है, वह इस्‍लामिक कट्टरवाद और जिहाद के नाम पर आतंक के पोषण व गैर मुसलमान पर अत्‍याचार किए जाने का है। सोचिए, देश में इस वक्‍त जिस तेजी के साथ भारत का मूल संस्‍कृतिधारक बहुसंख्‍यक हिन्‍दू समाज अल्‍पसंख्‍यक होता जा रहा है, यदि ऐसे ही चलता रहा तो भारत का भविष्‍य क्‍या होगा? क्‍या यह सच में पाकिस्‍तान, बांग्‍लादेश या अफगानिस्‍तान बनने की ओर अग्रसर है? ''विविध पंथ मत दर्शन अपने भेद नही वैशिष्ट्य हमारा'' के दर्शन को माननेवाले भारत को लेकर यह चिंता कितनी सही है अब ये विचार आप सभी को करना है

लेख

डॉ मयंक चतुर्वेदी