मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम व वचनबद्धता

यदि वर्तमान संविदा अधिनियम के अनुसार वचन शब्द की परिभाषा पर बात की जाये, तो ना ही कैकेयी यह वचन मांग सकती थी और ना ही राजा दरशथ इसके लिए बाध्य होते। इस तरह राम को भी इसके पालन की भी जरूरत नहीं थी। लेकिन वह युग व समय अलग था। समाज ,राज्य व राजा के नैतिक मूल्य व आदर्श उच्च श्रेणी के थे। रामराज्य में वचनबद्धता ही सबसे बड़ा नैतिक सिद्धांत, कर्त्तव्य व बल रहा है। राजा का मुख्य धर्म राजधर्म था ना कि पिता-धर्म।

The Narrative World    10-Jan-2024
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रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई


विगत दिनों जब मैं अपने विधि के छात्रों को भारतीय संविदा अधिनियम 1872 मेंवचनसे संबंधित सिद्धांतों व वचन की परिभाषा को समझा रहा था। तो अचानक से मुझे रामचरितमानस की उक्त पंक्ति ध्यान में आई। वाल्मीकि रामायण व रामचरितमानस के अयोध्या कांड का वह संपूर्ण दृश्य मेरे सामने आने लगा जिसमें;- “राजा दशरथ से महारानी कैकेयी ने दो वरदानों के रूप में भरत के लिए राजगद्दी और राम के लिए 14 वर्ष के वनवास की मांग की। राजा दशरथ के बार-बार अनुनय-विनय करने पर भी रानी सहमत नहीं होती है। वह अपने वचनों की मांग पर अडिग रहती है। वह राजा दशरथ से कहती है कि आपको अपना वचन भंग करना है तो अपने वरदान वापस ले लीजिए। इस पर राजा दशरथ ने कहा - “रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।राजा दशरथ ने कहा हमारे वंश में परंपरा रही है कि कोई भी अपने वचनों से नहीं फिर सकता है।इसके बाद राजा दशरथ विलाप करते रह गए और राम-लक्ष्मण और सीता वन को चले गए।


यहां सबसे महत्वपूर्ण विषय है भारतीय संस्कृति व रामराज्य में अपने वचनका महत्व व उसके पालन के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देना। जिस वर्तमान संविदा अधिनियम से मैंवचन" को समझा रहा था, उसमें वचन के विषय में संकुचित भाव में इतना ही लिखा है कि- “ जब कि वह व्यक्ति जिससे प्रस्थापना की जाती है, उसके प्रति अपनी अनुमति संज्ञापित करता है, तब वह प्रस्थापना प्रतिगृहीत हुई कही जाती है। प्रस्थापना प्रतिगृहीत हो जाने पर वचन हो जाती है।"


यहां यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इस अधिनियम को अंग्रेजो ने बनाया था। जो कि भारतीय संस्कृति व हमारे समाज के मानस व लोक-व्यवहार को बिल्कुल भी नहीं समझते थे।


यदि वर्तमान संविदा अधिनियम के अनुसार वचन शब्द की परिभाषा पर बात की जाये, तो ना ही कैकेयी यह वचन मांग सकती थी और ना ही राजा दरशथ इसके लिए बाध्य होते। इस तरह राम को भी इसके पालन की भी जरूरत नहीं थी। लेकिन वह युग व समय अलग था। समाज ,राज्य व राजा के नैतिक मूल्य व आदर्श उच्च श्रेणी के थे। रामराज्य में वचनबद्धता ही सबसे बड़ा नैतिक सिद्धांत, कर्त्तव्य व बल रहा है। राजा का मुख्य धर्म राजधर्म था ना कि पिता-धर्म।


राम को पता था कि राजा दशरथ ना सिर्फ़ उनके पिता है वरन् एक महान चक्रवर्ती सम्राट भी है। उनका वचन यदि भंग होता है तो संपूर्ण रघुकुल के मान ,सम्मान व गौरव को अपूरणीय क्षति पहुंच जाऐगी। समाज में गलत संदेश जाऐगा। आम नागरिक अपने व्यवहार में नैतिक मूल्यों से विमुख होने लगेगा। राज्य की विधि व्यवस्था व आचार-व्यवहार बिगड़ने के कारण राज्य में अराजकता आ सकती है। पिता के राज्य नेतृत्व व उनके गौरवशाली शासन की आलोचना होगी। एक आज्ञाकारी पुत्र भला यह कैसे हो जाने देता।


उन्होंने सहजता व सकारात्मकता से इस घटनाक्रम को स्वीकार किया व अपने श्रेष्ठ पुरूषार्थ को सिद्ध करते हुए, उन्होंने जन-जन के लोकमानस में राम से मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम का सम्मान प्राप्त किया। और अपने पिता की चक्रवर्ती कीर्ति पर आंच नहीं आने दी। इसी लोक कल्याण की नीति व आदर्श के लिए ही रामराज्य आज तक लोकमानस में अंकित है और हर युग में लोकजीवन रामराज्य की ही कल्पना करता है।


यहां राम के लिए अपने पिता के वचन का पालन करना इतना साधारण व आसान भी नहीं था। मानस में इस पर तुलसीदास जी कहते है कि;-

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी।।


तपस्वियों के विशेष उदासीन भाव से (राज्य और कुटुम्ब आदि की ओर से भलीभाँति उदासीन होकर विरक्त मुनियों की भाँति) राम चौदह वर्षतक वन में निवास करें। एक राजकुमार को पलभर में वनवास के संपूर्ण नियमों का पालन करना था। जैसे ही राम को यह पता चला -

दशरथ-कैकेयी संवाद के बाद पिता दशरथ के वचनों को सुनकर ;- “ सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान श्री रामचन्द्रजी मन में मुस्कुराकर सब दूषणों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे।


(मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू।।

बोले बचन बिगत सब दूषन मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।। )


ऐसे कठिन व विकट समय में भी श्रीराम बड़ी ही सहजता व धैर्य से आगे कहते है;-

सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥

तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।।


(हे माता! सुनो, वही पुत्र बड़भागी है, जो पिता-माता के वचनों का अनुरागी (पालन करने वाला) है। (आज्ञा पालन द्वारा) माता-पिता को संतुष्ट करने वाला पुत्र, हे जननी ! सारे संसार में दुर्लभ है।)


वहीं महर्षि वाल्मीकि रामायण में भी श्रीराम अपने पिता को दुखी देखकर उक्त वचन के पालन से पूर्व दृढ़तापूर्वक व प्रतिज्ञा करके अपनी माता कैकेयी से कहते है कि--


तद् ब्रूहि वचनं देवि राज्ञो यदभिकांक्षितम्।

करिष्ये प्रतिजाने च रामो द्विर्नाभिभाषते।।


(इसलिये देवि ! राजाको जो अभिष्ट है, वह बात मुझे बताओ ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ, उसे पूर्ण करूँगा। राम दो तरह की बात नहीं करता है।)


इस प्रकार कैकेयी के अप्रिय तथा मृत्यु के समान कष्टदायक वचन सुनकर भी शत्रुसूदन श्रीराम व्यथित नहीं हुए। और उन्होंने कैकेयी से इस प्रकार कहा--“मैं अभी पिता की बात पर कोई विचार न करके चौदह वर्षों तक वन में रहने के लिये तुरंत दण्डकारण्य को चला ही जाता हूँ। (दण्डकारण्यमेषो्हं गच्छाम्येव हि सत्वरः।

अविचार्य पितुर्वाक्यं समा वस्तुं चतुर्दश।।)


यहां महत्वपूर्ण बात यही है कि अपने पिता के वचन के पालन के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अपना सबकुछ दाव पर लगा दिया और एक महान आज्ञाकारी पुत्र का उदाहरण स्थापित किया। उस काल से वर्तमान तक यह मर्यादा हमारे समाज के लिए बहुत बड़ी नैतिक शिक्षा व संबल बनी हुई है। वहीं वर्तमान पीढ़ी को भी इससे सीख लेना चाहिए कि माता-पिता की इच्छा व माता-पिता की वचनबद्धता का कितना महत्व है। और हमें हमेशा उनके कहें वचनों का सत्यता व पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करना चाहिए।


लेख


भूपेन्द्र भारतीय

देवास, मध्यप्रदेश