कम्युनिस्ट आतंकवादियों की रणनीति और हथकण्डे (भाग -02) : मार्क्स-लेनिन-ग्राम्शी से वैचारिक आधार और माओ से मिली खाद

कार्ल मार्क्स जर्मनी का एक विचारक था, जिसने राजनीति, अर्थतंत्र और समाज के विषय में कई अजीबो-गरीब विचार दिए। उसके विचारों को ही सामूहिक रूप से मार्क्सवाद या सामान्य तौर पर कम्युनिज्म कहा जाता है। मार्क्स के अनुसार पूंजावादी लोग या कहें कि अमीर लोग, गरीबों का शोषण करते हैं। पर कैसे? तो इस पर मार्क्स का तर्क बड़ा अजीब है।

The Narrative World    20-Jan-2024   
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दिसम्बर 1925 में भारत में कम्युनिस्ट 'क्रान्ति' कराने के उद्देश्य से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया या सीपीआई की स्थापना हुई थी। लेकिन भारत में कम्युनिस्ट क्रान्ति की संभावना न के बराबर थी। सीपीआई भी यह समझ चुकी थी। और इसलिए उन्होंने छोटे-छोटे सशस्त्र विद्रोह भड़काने शुरु किए।


स्वाधीनता के समय तेलंगाना का कथित किसान विद्रोह और बंगाल का तेभागा विद्रोह, दोनों ही कम्युनिस्ट विद्रोह थे। सीपीआई, जिसकी मूल प्रेरणा ही रूसी क्रान्ति थी, उसका एक प्रतिनिधि मण्डल स्वतंत्र भारत में कम्युनिस्टों की अगली नीति पर परामर्श के लिए स्टालिन से मिला।


स्टालिन की नीति थी कि जब तक कम्युनिस्टों की शक्ति पर्याप्त न हो जाए, तब तक कम्युनिस्ट तानाशाही के लिए आवश्यकता के हिसाब से राष्ट्रवादी ताकतों को सहयोग देकर अपनी ताकत बढ़ाते रहना चाहिए। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सीपीआई ने ऐसा किया भी था। तो इसी राह पर चलते हुए स्टालिन ने उन्हें शक्ति संचयन तक संवैधानिक सरकारों में शामिल होने की सलाह दी। इसी के बाद केरल विधानसभा चुनावों में ऐसा सीपीआई ने भाग लिया और जीत दर्ज की।


सीपीआई की जीत के साथ दुनिया में पहली बार कोई कम्युनिस्ट सरकार चुन कर आई, क्योंकि इसके पहले तक कम्युनिस्ट केवल खून-खराबे से ही तानाशाही स्थापित करते आए थे। लेकिन सीपीआई का माओ से प्रभावित एक धड़ा इससे नाखुश था, माओ के विचारों के आधार पर वे भारत सरकार के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध को ही भारत में कम्युनिस्ट तानाशाही की स्थापना का एकमात्र तरीका मानते थे।


वर्ष 1964 के आते-आते सीपीआई में अलगाव की दरार काफी बढ़ चुकी थी। अन्ततः 1964 के अधिवेशन में सीपीआई (मार्क्सवादी) और माओ से प्रभावित सीपीआई (मार्क्स-लेनिनवादी), इन दो धड़ों में सीपीआई बंट गई। "China's Chairman is our Chairman, China's path is our path." अर्थात् "चीन का अध्यक्ष हमारा अध्यक्ष और चीन की राह हमारी राह"; इस नारे को मानने वाली यही सीपीआई (एमएल) 2004 में सीपीआई (माओवाद) के रूप में उभरी, जिसे आप-हम सब माओवाद या नक्सलवाद के रूप में जानते हैं।


आज इस नक्सलवाद या माओवाद यानी कम्युनिस्ट आतंकवाद के विषय में एक सबसे बड़ा मिथक फैला हुआ है कि यह अत्याचारों के विरुद्ध कमजोर लोगों की एक गैर-राजनीतिक प्रतिक्रिया है। लेकिन असलियत बिल्कुल उल्टी है। यह भारत के विरुद्ध एक विशुद्ध राजनैतिक-सांस्कृतिक युद्ध है, एक Pure Politco-Cultural War है, जिसका प्रधान उद्देश्य है - भारत के राजनैतिक संगठन व सांस्कृतिक संस्थानों को उखाड़कर उसकी जगह कम्युनिस्टों की राजनैतिक और सांस्कृतिक तानाशाही स्थापित करना। इसलिए ही यह एक विशुद्ध आतंकवाद है। और इसे नक्सलवाद नाम देना भी एक सोची-समझी चाल है, ताकि इसे लोगों से सहानुभूति मिल सके, तथा लोग इसकी वास्तविकता न समझ सकें।


इस आलेख शृंखला के पिछले लेख में मैंने आपसे कहा था कि इस बात को सिद्ध करने के लिए कि भोले-भाले लोगों द्वारा सत्ता के प्रतिकार के रूप में जाना जा रहा माओवाद या नक्सलवाद मूलतः एक आतंकवाद है, मैं पहले आपके समक्ष उसके वैचारिक आधार को स्पष्ट करने का प्रयास करूंगा। तो इस लेख में हम कम्युनिस्ट आतंकवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि व उसके वैचारिक आधार पर ही चर्चा करेंगे।


और जब हम इस कम्युनिस्ट आतंकवाद के वैचारिक आधार की ओर देखने का प्रयास करते हैं, तो मेरे विचार से यहाँ हमारे बीच दो-तीन संभाव्यताएँ हो सकती हैं। एक तो यह कि आपने मार्क्सिज्म, कम्युनिज्म और कम्युनिस्ट शब्द पहले न सुने हो, हालांकि इसकी संभाव्यता काफी कम होगी।


दूसरी एक संभावना है कि आपने ये शब्द या पद सुने तो हैं, पर इनके बारे में जानते नहीं। एक संभावना यह भी हो सकती है कि आप कम्युनिज्म और कार्ल मार्क्स के बारे में पहले ही जानते होंगे, लेकिन आपने इन पर कभी गहराई से विचार नहीं किया होगा। तो इसलिए हम अपनी बात कार्ल मार्क्स और उसके विचारों, यानी मार्क्सिज्म या कम्युनिज्म से शुरु करेंगे।


कार्ल मार्क्स जर्मनी का एक विचारक था, जिसने राजनीति, अर्थतंत्र और समाज के विषय में कई अजीबो-गरीब विचार दिए। उसके विचारों को ही सामूहिक रूप से मार्क्सवाद या सामान्य तौर पर कम्युनिज्म कहा जाता है। मार्क्स के अनुसार पूंजावादी लोग या कहें कि अमीर लोग, गरीबों का शोषण करते हैं। पर कैसे? तो इस पर मार्क्स का तर्क बड़ा अजीब है।


साल 1849 में प्रकाशित हुए उसके एक लेख "Wage Labour and Capital" में वह कहता है कि यदि एक मोहल्ले में 10 एक जैसे घर हैं, और वहाँ यदि उनसे बड़ा एक घर बन जाता है, तो उस बड़े घर के कारण बाकी 10 घरों के लोग शोषित महसूस करते हैं, दबा हुआ महसूस करते हैं। इसलिए बड़े घर का निर्माण सही नहीं है। कुल मिलाकर सबकुछ बिल्कुल एक समान हो जाए, यही कम्युनिज्म है। आपने उत्तर कोरिया के बार में सुना ही होगा कि किस तरह वहाँ की कम्युनिस्ट तानाशाही में जनता अपनी पसंद से बाल भी नहीं कटा सकती, क्योंकि अलग-अलग हेयरस्टाइल से भी कोई खुद को वंचित-शोषित महसूस कर सकता है। है न कमाल की बात!


खैर, यह कम्युनिज्म का एक पहलू था। अब मार्क्स के अनुसार गरीबी खत्म करने का एक ही तरीका है, वह यह कि सारे गरीब मिलकर पूरी दुनिया में अमीरों का कत्लेआम कर दें। इसे "Call for Action" या "क्रान्ति का आह्वान" भी कहा जाता है। इसे ऐसे समझिये कि 10 एक जैसे घर वाले, उस बड़े घर को तोड़ दें। मार्क्स का कहना था कि राज्य यानी सरकार भी अमीरों द्वारा गरीबों के शोषण का जरिया है, तो राज्यविहीन समाज बनाने के लिए सर्वहारों की तानाशाही जरूरी है।


मार्क्स के विचारों का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है, सर्वश्रेष्ठता का भाव, यानी Ideological Correctness तात्पर्य यह है कि मार्क्स के अनुसार उसके ही विचार ही मानव समाज की एकमात्र सही व्याख्या करते हैं। पर मानवजाति के दुर्भाग्य से युद्ध प्रेमी यूरोप में मार्क्स के इन विचारों का, खास तौर पर Call for Action का, जबरदस्त असर हुआ। कई जगहों पर संघर्ष छिड़े पर वैसी क्रान्ति नहीं हो पाई, जैसा मार्क्स कहता था।


लेकिन कम्युनिस्ट समाज के निर्माण के लिए कथित गरीबों की जिस तानाशाही को मार्क्स ने पहला चरण बताया था, वह तानाशाही कैसे काम करेगी, इसके बारे में मार्क्स मौनधारण कर लेता है। तो कथित गरीबों या सर्वहारों की इस तानाशाही का ढांचा रूस सहित दुनिया के पहले कम्युनिस्ट तानाशाह लेनिन ने तैयार किया। लेनिन का कहना था कि मजदूरों की इस तानाशाही से कम्युनिस्ट समाज के बनते तक सरकार के खिलाफ उठ रही हर एक आवाज को दबाना बहुत जरूरी है। लेनिन के उत्तराधिकारी जोसेफ़ स्टालिन ने इसे व्यवहार में उतारा भी। इसके भयानक परिणाम इतिहास में आपको डी-कौसेकाइजेशन, ग्रेट पर्ज, मॉस्को ट्रायल आदि के रूप में दिखते भी हैं।


उधर यूरोप के अन्य देशों जैसे - जर्मनी, इटली आदि में कम्युनिस्ट तानाशाही उखाड़ फेंक दी गयी। तब इटली के कम्युनिस्ट विचारक एंटोनियो ग्राम्शी ने लेनिन के विचारों से एक कदम आगे बढ़कर कहा कि केवल राजनीतिक सत्ता हासिल करके दुनिया को कभी भी कम्युनिस्ट नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए दुनिया के अलग-अलग देशों में पहले उनकी संस्कृति और उनके सामाजिक संरचनाओं, जैसे परिवार, आस्था आदि को तोड़ना होगा।


इसके लिए उसने सुझाव दिया कि पूरी दुनिया के बुद्धिजीवियों को चाहिए कि वे इस लम्बी सांस्कृतिक लड़ाई के लिए आगे आए। इसे उसने "Long March Ahead" कहा। बस यहीं से शुरुआत होती है, कल्चरल मार्क्सिज्म की। माओ की तानाशाही में चीन की विनाशकारी कल्चरल रिवाल्यूशन और आज बुरी तरह विघटित हो चुका अमेरिकी समाज; सब इसी के नतीजे हैं।


खैर, अब हम आते हैं - चीनी कम्युनिस्ट तानाशाह माओत्से तुंग पर, जिसके नाम से ही हम कम्युनिस्ट आतंकवाद को भारत में माओवाद कहते हैं। माओ ने कार्ल मार्क्स से Call for Action, लेनिन से तानाशाही व स्टेट कैपिटलिज्म का ढाँचा और ग्राम्शी से कल्चरल क्रान्ति के विचार लेकर उनकी खिचड़ी पकाई, जिसे माओवाद कहा जा सकता है। उसने Identity Politics यानी पहचान की राजनीति की नयी चाल चली।


इससे यह अभिप्रेत है कि समाज में दरार डालकर अलग-अलग पहचानें बनाकर उन पर आधारित बहुत-से छोटे-छोटे समूह बनाकर उनसे सेना बनाना और फिर उससे देश की स्थापित सरकार को उखाड़कर कम्युनिस्ट तानाशाही स्थापित करना। हालांकि जब लेनिन और माओ ने अपने-अपने देशों में सत्ता पर कब्जा किया, तब स्थापित सरकारें या तो काफी कमजोर हो चुकी थीं या वे दूसरी लड़ाइयों में उलझी हुई थीं। लेकिन भारत में अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के समय ऐसा नहीं था।


स्वतंत्र भारत की नई सरकार न तो कमजोर थी, और न ही परिस्थितियाँ वैसी थी। तो कम्युनिस्ट तानाशाही स्थापित न की जा सकी। तो माओ की Identity Politics की लीक पर चलकर सीपीआई (माओवादी) ने भारत के विरुद्ध राजनैतिक और सांस्कृतिक आक्रमण की विस्तृत योजना बनायी। सीपीआई ने भारत को तोड़ने के प्रयास शुरु कर दिए।


2004 के सितम्बर में उन्होने अपनी योजनाओं को पूरा करने की रणनीति और हथकण्डे भी तय कर लिए। न केवल तय किए, बल्कि वे उस पर अमल भी कर रहे हैं। कम्युनिस्ट आतंकवादियों की यही रणनीति और उस पर आधारित हथकण्डे इस आलेख शृंखला का प्रमुख विषय है।

तो अब अगले आलेख में हम भारत में इन कम्युनिस्ट आतंकियों की रणनीति और हथकण्डों पर बात शुरु करते हुए सीपीआई (माओवादी) के एक अति महत्वपूर्ण रणनीतिक दस्तावेज "Strategy and Tactics of Indian Revolution" की समग्र रूपरेखा के साथ-साथ इसकी प्रस्तावना पर भी चर्चा करेंगे।


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सन्दर्भ -


01. "Wage Labour and Capital", Karl Marx and Frederick Engels : Selected Works, pp 150-174, Progress Publishers, Moscow, 1969.


02. The Antonio Gramsci Reader, Selected Writings, 1916-1935, Ed. David Forgacs, Aakar Books, 2014.


03. “Quotations From Chairman Mao Tse-Tung (or The Little Red Book)”, First published in 1966 by Peking Foreign Language Press, E-Book format - 2019 by David Quentin & Brian Baggins for the Marxists Internet Archive.


04. “Strategy & Tactics of the Indian Revolution”, Central Committee (P) of the CPI (Maoist), As adopted at the 9th Congress of theParty in 2001, published on 21 September 2004.


लेख


ऐश्वर्य पुरोहित

शोधार्थी

स्तंभकार