भारत में वामपंथी राजनीति का अस्तित्व

इतिहास के पन्नों में वह दौर दर्ज है जब लोग कम्युनिस्टों को "भले मानस" के रूप में देखा करते थे और वामपंथी भी खुद को मार्क्सवादी विचारधारा का अनुयायी बताने में गर्व महसूस करते थे।

The Narrative World    03-Jan-2024   
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विश्व की राजनीति में एक समय सबसे चर्चित रही वामपंथी विचारधारा आज वैश्विक पटल पर ऐसे क्षीण हुई है जैसे किसी जादूगर ने अपनी जादूई छड़ी के सहारे
'छू मंतर' कर दिया हो।


इतिहास के पन्नों में वह दौर दर्ज है जब लोग कम्युनिस्टों को 'भले मानस' के रूप में देखा करते थे और वामपंथी भी खुद को मार्क्सवादी विचारधारा का अनुयायी बताने में गर्व महसूस करते थे।


इतना ही नही, दो महाशक्तियों सोवियत संघ और चीन में वामपंथी शासन था और हिन्दुस्तान के तीन राज्य त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और केरल वामपंथियों के गढ़ कहे जाते थे इसके अलावा देश की कई कम्पनियों में वामपंथी नेताओं और उनके मजदूर यूनियन का आधिपत्य होता था।


लेकिन, चूंकि यह सब अब सिर्फ इतिहास के पन्ने में ही दर्ज है इसलिए आज देश में वामपंथी राजनीति न केवल हासिए पर है बल्कि अब लोग वामपंथियों पर हंसने भी लगे हैं।


जिन तीन राज्यों को वामपंथी अपना गढ़ समझते थे और अपनी तानशाही दिखाते थे उनमें से दो राज्यों में वामपंथी राजनीति का अब नाम लेने वाले गिने चुने लोग ही शेष रह गए हैं।


पश्चिम बंगाल की सत्ता में 34 वर्ष तक क़ाबिज़ रहने के बाद वामपंथियों ने वहां ऐसे हालात पैदा कर दिए थे कि बंगाल का मतलब सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंसा हो चला था, जिसके बाद साल 2011 में बंगाल की राजनीति की गद्दी से वामपंथियों को बंगालियों ने निकाल फेंका और अब हालात यह है कि बंगाल में न तो वामपंथ का एक भी सांसद है और न ही विधायक।


यही हाल हुआ त्रिपुरा का, जहाँ पहले वामपंथी मुख्यमंत्री दशरथ देब और फिर माणिक सरकार ने त्रिपुरा का हाल बेहाल कर दिया था जिससे मुक्ति के लिए त्रिपुरावासियों ने भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में क़ाबिज़ करा दिया।


अब यदि वामपंथियों के हाथ में कुछ बचा है तो वह सुदूर दक्षिणी किला केरल, जहाँ धीरे-धीरे ही सही लेकिन वामपंथ के किले को भेदने के लिए दक्षिणपंथ मजबूत हो रहा है और वह दिन दूर नही जब केरल के लोग वामपंथी सरकार से त्रस्त हो कर यहां से भी वामपंथियों को अलविदा कह देंगें।


इतिहास गवाह है कि शासक की एक भूल से बड़े से बड़ा साम्राज्य भी ढह चुका है, लेकिन वामपंथी खुद को आधुनिक बताने की होड़ में गलती पर गलती करते गए और अब बस केरल की कुर्सी खाली होते ही वह दिन दूर नही जब आधुनिकता के प्रिय भारतीय वामपंथी इतिहास हो जाएंगे।


वामपंथियों की आज जो दशा है उसमें यदि किसी का दोष है तो वह सिर्फ़ वामपंथियों का ही क्योंकि उन्होंने न तो अपना दकियानूसी रवैये बदलाव किया और न ही अब तक बदलाव करना चाहते।


वामपंथी दलों की दुर्दशा का कारण उनकी विचारधारा और उनके आदर्श भी हैं, क्योंकि एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी के आदर्श श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय जी जैसे राष्ट्रभक्त थे तो दूसरी ओर कांग्रेस के आदर्श महात्मा गांधी और प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे, समाजवादियों ने अपना आदर्श राममनोहर लोहिया को माना।


लेकिन, वामदलों के आदर्श वे लोग थे जिन्हें उनके ही देश में हीन भावना से देखा जाता है. अर्थात, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आदर्श लेनिन और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के आदर्श कार्ल मार्क्स और माओ थे।


वामपंथियों की सबसे बड़ी भूलों में से एक है भारत-चीन युद्ध में चीन का समर्थन और दूसरी भूल है इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का समर्थन करना, इन दोनों गलतियों के बाद से देश की आम जनता का वामपंथ से विश्वास उठना शुरू हो गया था।


वामपंथी गलतियों को सुधारने या उनसे सीख लेने के वजाय गलती पर गलती करते जा रहे थे और 1996 में की जब स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली सरकार मात्र 13 दिन में धराशायी हो गई थी और कांग्रेस ने भाजपा की बढ़ती ताकत को देखते हुए चुनाव से बचने के लिए थर्ड फ्रंट (तीसरे मोर्चे) का समर्थन कर दिया था तब साल 1977 से लगातार पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे ज्योति बसु का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए सबसे आगे किया गया।


कहा जाता है कि ज्योति बसु इसके लिए तैयार भी थे लेकिन वामपंथियों ने तीसरे मोर्चे की सरकार में अपना एजेंडा फिट न बैठ पाने की बात कह दी जिसके बाद प्रधानमंत्री पद के लिए एचडी देवगौड़ा का नाम सामने आया और वे प्रधानमंत्री बना दिए गए।


हालांकि, वामपंथियों ने तीसरे मोर्चे से भी 21 महीने बाद खींच लिया जिससे सरकार गिर गई और अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बने और इस बार यह सरकार चली मात्र 19 महीने दिन लेकिन पहले 16 दिन और फिर 19 दिन की सरकार ने भाजपा की शक्ति में इतना इज़ाफ़ा कर दिया था कि अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर प्रधानमंत्री बन गए और वामदल सिर्फ़ मुंह ताकते रह गए।


इसी तरह यूपीए-1 में भी वामदलों ने सरकार में शामिल होने से इंकार कर दिया और यूपीए-2 में देश की जनता ने वामदलों को इस लायक ही नही छोड़ा कि वे सरकार को समर्थन देने की बात कर सके और अब वामपंथी सिर्फ़ केरल में ही सत्ता में हैं जहाँ पिनाराई विजयन सरकार वोटों के तुष्टिकरण और धार्मिक ध्रुवीकरण के प्रयास में लगातार सफल हो रहे हैं।


लेकिन जिस दिन केरल की जनता उनकी इस सच्चाई से वाकिफ़ हो जाएगी उसी दिन केरल भी वामपंथ के हाथ से निकल जाएगा और वामपंथ भारत के स्वर्णिम भविष्य में सिर्फ़ इतिहास होकर रह जाएगा।