महाकौशल के घट घट में बसे हैं प्रभु श्रीराम

कौशल की उत्तरी सीमा के दक्षिण में एक पवित्र क्षेत्र अमरकंटक था, जिसमें एक भाग मेकल था। वायु पुराण, मत्स्य पुराण में इसका उल्लेख है। वायु पुराण में मेकल को पंच कौशल में से एक के रुप में वर्णित किया गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि किसी समय मेकल क्षेत्र कौशल के शासकों के अधीन था।

The Narrative World    06-Jan-2024   
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ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में भगवान श्रीराम का महाकौशल प्रांत से गहरा संबंध रहा है। भू वैज्ञानिक दृष्टि से महाकौशल प्रांत सर्वाधिक प्राचीनतम गोंडवाना लैंड भू संहति का भू भाग है। भौगोलिक दृष्टि से समय-समय पर इसकी सीमाएं परिवर्तित होती रही हैं।


कौशल प्रदेश का क्षेत्रफल बहुत विस्तृत था। यह उत्तरी कौशल और दक्षिणी कौशल में सुविस्तीर्ण था। इसमें वर्तमान मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और महाराष्ट्र में विदर्भ क्षेत्र का एक भाग भी सम्मिलित था।


कौशल की उत्तरी सीमा के दक्षिण में एक पवित्र क्षेत्र अमरकंटक था, जिसमें एक भाग मेकल था। वायु पुराण, मत्स्य पुराण में इसका उल्लेख है। वायु पुराण में मेकल को पंच कौशल में से एक के रुप में वर्णित किया गया है। जो यह स्पष्ट करता है कि किसी समय मेकल क्षेत्र कौशल के शासकों के अधीन था।


त्रेता युग में महान इक्ष्वाकु के पुत्र दंडक का राज्य मध्य प्रदेश के दक्षिण के क्षेत्र में था, जो आगे चलकर दंडकारण्य के नाम से जाना गया। कालांतर में यह प्रदेश कौशल प्रदेश के अंतर्गत हो गया जिसे दक्षिण कौशल के नाम से जाना गया, यही प्रदेश अब महाकौशल प्रांत हैं। वर्तमान में 21 जिले हैं, परंतु पहले छत्तीसगढ़, बघेलखंड, बुंदेलखंड मध्य प्रांत और विदर्भ तक विस्तार था।


वस्तुतः भगवान श्री राम की वरिष्ठ पुत्र लव को उत्तर कौशल और कुश को दक्षिण कौशल प्राप्त हुआ था। श्रीराम की माँ कौशल्या जन्म दक्षिण कौशल अंतर्गत रायपुर के चंदखुरी ग्राम में हुआ था उनकी माता का नाम अमृतप्रभा और पिता का नाम सुकौशल था। अतः दक्षिण कौशल श्रीराम का ननिहाल है।


गौरतलब है कि रामायण की रचना का सूत्रपात भी तमसा नदी के किनारे महर्षि वाल्मीकि ने किया था। रामायण का अरण्यकांड भगवान् श्रीराम के महाकौशल प्रांत में 12 वर्ष व्यतीत करने का साक्षी है। इस कालावधि उन्होंने समूचे महाकौशल प्रांत का भ्रमण किया, ऋषि - मुनियों से मिले तथा आसुरी शक्तियों मुक्त किया, जिसके चरण चिन्ह आज भी विद्यमान हैं। भगवान श्रीराम ने सर्वाधिक समय महाकोशल प्रांत में ही बिताया, लगभग साढ़े ग्यारह वर्ष चित्रकूट (सतना) में बिताया।


यहीं श्री राम अत्रि ऋषि से मिले और रामवन में रुके। ओरछा, पन्ना, शहडोल, जबलपुर और बालाघाट तक पदचिन्ह मिलते हैं। रामायण और पुराणों के संदर्भ से प्रमाण मिलते हैं, कि सुतीक्ष्ण आश्रम से श्री राम जाबालि ऋषि से मिलने जबलपुर पधारे। उन्होंने शिवलिंग बनाकर नर्मदा के जल से जलाभिषेक किया। वह स्थान वर्तमान में गुप्तेश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है, इसे रामेश्वर उप लिंग कहा जाता है।


यह उल्लेखनीय है कि तमसा (टौंस) नदी के किनारे महर्षि भारद्वाज और महर्षि वाल्मीकि आए थे। यहीं जब क्रौंच वध हुआ तो महर्षि वाल्मीकि शोकाकुल हो गए और उनके मुख से एक श्लोक उद्भूत हुआ कि "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।

यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।।


यही श्लोक रामायण की रचना का सूत्र बना और महर्षि वाल्मीकि आदि कवि के रुप में प्रतिष्ठित हुए।


श्री राम महर्षि जाबालि को मनाने जिलहरी घाट, जबलपुर स्थित आश्रम में आए थे। जबलपुर में गौरी घाट में शक्ति पूजा की तथा गुप्तेश्वर में उपलिंग रामेश्वरम की स्थापना कर वैष्णव और शैवों को समरसता का पाठ पढ़ाया और लंका से लौटते अपने पूर्वजों की भांति तर्पण भी किया था।शहपुरा के पास स्थित रामघाट और बालाघाट में स्थित रामपायली में भगवान् श्री राम के पद चिन्ह अंकित हैं।


उल्लेखनीय है कि अयोध्या के महान् राजा दशरथ ने सुचारु रुप से शासन संचालन के लिए विद्वान ऋषि मुनियों का एक मार्गदर्शक मंडल बनाया था जिसमें महर्षि वशिष्ठ के उपरांत महर्षि जाबालि का स्थान था। दुर्देव से प्रभु श्रीराम को वनवास मिला परंतु भरत को राजगद्दी स्वीकार न थी, अतः उन्होंने महर्षि जाबालि को श्रीराम को मनाने के लिए भेजा। महर्षि जाबालि ने नास्तिक न होते हुए भी नास्तिकों के मत का अवलम्बन करते हुए श्रीराम को अयोध्या लौटने तथा राज्य करने के लिए प्रेरित किया।


अयोध्या काण्ड के 108 वें सर्ग के तीसरे, चौथे और सोलहवें श्लोक सहित कुल 18 श्लोक हैं जिसमें महर्षि जाबालि ने श्रीराम नास्तिक दर्शन के आलोक में अयोध्या लौटने की पुरजोर कोशिश की है परंतु श्री राम ने 109 वें सर्ग में महर्षि जाबालि के तत्कालीन नास्तिक मत का खंड करके आस्तिक मत की स्थापना की।


ग्लानि से भरे महर्षि जाबालि ने श्री राम से कहा कि हे रघुनंदन! इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जिससे धीरे-धीरे मैंने नास्तिकों की सी बातें कह डालीं। श्रीराम! मैंने जो यह बात कहीं, इसमें मेरा उद्देश्य यही था कि किसी तरह आपको सहमत करके अयोध्या लौटने को तैयार कर लूँ। तदुपरांत महर्षि जाबालि पश्चाताप के लिए श्री राम को बिना बताए तप के लिए अपने आश्रम जबलपुर चले आए तब रघुनंदन भी उनको मनाने के लिए निकल पड़े।


इस दौरान भगवान राम, सीता और लक्ष्मण महर्षि सुतीक्ष्ण के आश्रम पहुंचे थे। यह आश्रम वर्तमान में सतना के जैतवारा स्टेशन के पास पूर्व दिशा में 4-5 किमी दूर है। पश्चाताप के लिए महर्षि जाबालि जिलहरी घाट स्थित अपने आश्रम में तपस्या में लीन हो गए। भगवान् श्रीराम महर्षि जाबालि को मनाने एवं आत्म ग्लानि से मुक्त करने चित्रकूट से नर्मदा तट जबलपुर पहुंच गए। उस दौरान महर्षि जाबालि ध्यान में थे तब भगवान श्रीराम ने महर्षि जाबालि का ध्यान भंग नहीं किया।


भगवान् श्रीराम ने नर्मदा तट पर एक माह का गुप्तवास भी किया था। इस दौरान प्रभु श्रीराम ने गुप्तेश्वर में बालू से शिवलिंग बनाकर अपने आराध्य शिव का पूजन किया था। जिसे गुप्तेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। इसे रामेश्वरम का उपलिंग भी कहा जाता है।शिव पुराण स्कंद पुराण, नर्मदा पुराण, मत्स्य पुराण, और वाल्मीकि रामायण में इसके प्रमाण मिलते हैं।


महाकौशल ही वह प्रदेश है जहां भांजों के चरण स्पर्श करने की परंपरा है। यहाँ भांजों को मामा के पैर छूने से मना किया जाता है। इसका कारण यह है कि तत्समय महाकौशल प्रदेश में छत्तीसगढ़ सम्मिलित था और प्रभु श्रीराम का यह ननिहाल है इसलिए भगवान राम वनवास के दौरान यहाँ पहुंचे थे तो लोगों ने चरण वंदन कर प्रभु का स्वागत किया था।


गुप्तेश्वर रामेश्वरम उपलिंग, पीठाधीश्वर स्वामी डॉ. मुकुंददास महाराज पुराणों के आधार पर बताते हैं कि वनवास के समय भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण महर्षि जाबालि को ढूंढते हुए नर्मदा के उत्तर तट पहुंचे थे। यहाँ वे महर्षि जाबालि को प्रसन्न करने और आत्मग्लानि से मुक्त कर आशीर्वाद देने के लिए आए थे। उस समय भगवान् श्रीराम ने अपने प्रिय आराध्य शिव की पूजा हेतु गुप्तेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की थी।


यह कितना परम सौभाग्य है कि हिंदू संवत्सर पिंगल, गज केसरी योग, नवपंचम राजयोग एवं बुधादित्य योग के साथ चल रहा है, इन अद्भुत संयोगों के साथ अयोध्या जी में घट घट वासी प्रभु रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा, पौष शुक्ल पक्ष द्वादशी विक्रम संवत 2080 तदनुसार 22 जनवरी 2024 को होगी। तब प्रभु श्रीराम के लिए भोग उनके ननिहाल छत्तीसगढ़ से भेजे गए सुगंधित चावल से तैयार होगा।


लेख


डॉ. आनंद सिंह राणा

विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग श्रीजानकीरमण महाविद्यालय

इतिहास संकलन समिति महाकौशल प्रांत